[ एम वेंकैया नायडू ]: इतिहास केवल कुछ घटनाओं का विवरण मात्र नहीं है। उसके सबक हमें भविष्य की रोशनी भी दिखाते हैं ताकि हम नई शुरुआत कर सकें। किसी राष्ट्र के इतिहास में ऐसे क्षण आते हैं जो घटनाचक्र को हमेशा के लिए बदल देते हैं। भारत के स्वाधीनता संघर्ष में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ नि:संदेह ऐसा ही एक पड़ाव था जिसने आजादी के अभियान की काया ही पलट दी। इसने आजादी के संघर्ष को गति देने के साथ ही पूरे देश को एकजुटता के धागे में पिरोने का काम किया।

जब दुनिया युद्ध की विभीषिका के साये में थी तब शांतिदूत बनकर उभरे महात्मा गांधी अहिंसा के सिद्धांत के प्रति समर्पित रहे और 8 अगस्त, 1942 की शाम को मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान से देशवासियों के लिए ‘करो या मरो’ का नारा दिया। अब यही मैदान अगस्त क्रांति मैदान कहलाता है। अहिंसक संघर्ष को लेकर उनकी अपील ने देशवासियों पर जादुई असर किया। देश में हर तबके के लोग इस आंदोलन से जुडे़ और उन्होंने निर्मम विदेशी शासन खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की।

भारत से ब्रिटिश शासन की समाप्ति को लेकर महात्मा की अपील ने राष्ट्रीय पुनर्जागरण में अप्रत्याशित भूमिका निभाई। इसने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट को भी भारत की आजादी की मांग के समर्थन में लामबंद किया। आंदोलन के असर से घबराए अंग्रेजों ने महात्मा गांधी सहित लगभग सभी प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार कर लिया। अंग्रेजों ने आंदोलन का क्रूरतापूर्वक दमन किया, लेकिन कुछ इलाकों में हिंसक प्रदर्शन के बावजूद इसने ऐसा प्रभाव उत्पन्न किया कि देश से अंग्रेजों की विदाई की जमीन तैयार हो गई।

8 अगस्त, 1942 को अपने ऐतिहासिक भाषण में महात्मा गांधी ने कहा था, ‘मेरी राय में दुनिया के इतिहास में हमसे ज्यादा लोकतांत्रिक स्वाधीनता संघर्ष कहीं और नहीं हुआ होगा। जेल में मैंने फ्रांसीसी क्रांति के बारे में पढ़ा और पंडित जवाहरलाल ने मुझे रूसी क्रांति के बारे में भी कुछ बताया, मगर उनकी लड़ाई हिंसक रूप से लड़ी गई और लोकतांत्रिक आदर्शों के मामले में नाकाम रही। मैं अहिंसा द्वारा स्थापित लोकतंत्र की कल्पना करता हूं जिसमें सभी के लिए बराबर स्वतंत्रता हो। जब आप इसे महसूस कर लेंगे तो हिंदू और मुसलमान के बीच का भेद भूलकर केवल भारतीय होने के बारे में सोचेंगे।

तमाम मुश्किलों के बाद हासिल हुई आजादी को अब 71 साल से अधिक हो गए हैं। ऐसे में हम सभी का दायित्व है कि हम राष्ट्रपिता और उन अन्य राष्ट्रीय नायकों के सपने को पूरा करने के लिए जी-जान से जुटें जिन्होंने हमारी आजादी के लिए तमाम त्याग किए। बीते सात दशकों में हमने काफी प्रगति की है, लेकिन सभी राज्यों के विकास में विषमता भी है। अगले 15 से 20 वर्षों के दौरान जब भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में तब्दील होने को तैयार है तब हम गरीबी, निरक्षरता, शहरी-ग्रामीण खाई, लैंगिक भेदभाव, कृषि संकट और विकास के मोर्चे पर असमानता जैसे अवरोधों के चलते अपने देश की तरक्की में अवरोध बर्दाश्त नहीं कर सकते।

हम अपने सार्वजनिक एवं सामाजिक विमर्श की दिशा को नए सिरे से तय करें ताकि वह भारत को तेज तरक्की के पथ पर अग्र्रसर करने में मदद करे और ऐसे नए भारत के निर्माण में सहायता मिले जिसमें जाति, धर्म या क्षेत्र जैसे मुद्दे गौण हो जाएं और प्रत्येक व्यक्ति देशहित को सर्वोपरि रखे। आखिर हम निर्धन तबकों, किसानों, महिलाओं, दस्तकारों और युवाओं के सशक्तीकरण के बिना तरक्की की रफ्तार कैसे तेज कर सकते हैं?

सभी वर्गों के आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक उत्थान में शिक्षा सबसे अहम कुंजी है।

हमें यह तय करना होगा कि हमारे बच्चे स्कूली शिक्षा से वंचित न रह जाएं। इसी तरह यह भी सुनिश्चित करना होगा कि महिलाएं अशिक्षित न रहें। योग्यता एवं प्रवीणता के मामले में भी कोई समझौता नहीं होना चाहिए ताकि दोयम दर्जे के लोगों का बोलबाला न हो। सभी क्षेत्रों के मानकों और नैतिक मूल्यों में आ रही गिरावट को भी हमें रोकना होगा। सामाजिक चेतना का भाव जगाकर सहअस्तित्व और एकजुटता के भाव को बढ़ाना होगा। बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, मुद्रा बैंक, स्किल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, खेलो इंडिया और जनधन-आधार-मोबाइल जैसे सरकारी कार्यक्रमों एवं योजनाओं का मकसद ही वंचित वर्ग के लोगों को सशक्त बनाना है। एक व्यापक राष्ट्रीय पुनर्जागरण की जरूरत है जो हमारे स्वराज्य को सुराज्य में बदले। इसमें सुनिश्चित हो कि प्रत्येक भारतीय समावेशी विकास यात्रा में सहभागी बने जिसका सपना हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और संविधान निर्माताओं ने देखा था।

संविधान की प्रस्तावना के अनुसार हम एक संप्रभु, समाजवादी, सेक्युलर, लोकतांत्रिक गणतंत्र हैं जो सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, धार्मिक मान्यता एवं उपासना की स्वतंत्रता के साथ ही अवसरों की समानता प्रदान करता है। ऐसे संविधान के लागू होने के 68 वर्ष बाद भी हम अपने दैनिक जीवन में इन आदर्शों को आत्मसात करने में काफी पीछे हैं। कुछ विचलित करने वाले रुझान हैं जो संविधान में वर्णित मूल सिद्धांतों का मखौल उड़ा रहे हैं। हमें संविधान सभा में डॉ. आंबेडकर के अंतिम भाषण का स्मरण करना होगा जिसमें उन्होंने कहा था, ‘हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वतंत्रता ने हमें गहरी जिम्मेदारी दी है।

आजादी के साथ ही हमने गड़बड़ियों के लिए अंग्रेजों पर दोष मढ़ने का बहाना भी खो दिया। अगर यहां से चीजें बिगड़ती हैं तो इसके दोषी हम स्वयं होंगे।’ हम देश को औपनिवेशिक शक्तियों से आजाद कराने में सफल रहे। अब हमें उन सामाजिक बुराइयों से पीछा छुड़ाना होगा जिनका बदसूरत चेहरा विभिन्न क्षेत्रों में समय-समय सिर उठाता रहता है। जातिवाद, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, धर्मांधता और असहिष्णुता के खिलाफ हमें समवेत स्वर में आवाज उठाने की दरकार है। यह नए भारत के आकार लेने का समय है जो हम सभी की ख्वाहिश है। ऐसा नया भारत जो आर्थिक रूप से सशक्त, सामाजिक समरसता से परिपूर्ण और सांस्कृतिक रूप से गतिशील हो। जातिगत एवं लैंगिक भेदभाव के साथ ही महिलाओं और कमजोर समूहों के खिलाफ हिंसा हमें बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं होनी चाहिए।

हमें सार्वजनिक विमर्श को उस दिशा में मोड़ना चाहिए जो हमारे समृद्ध मानव एवं प्राकृतिक संसाधनों के समुचित उपयोग से सतत विकास की प्रक्रिया को तेजी दे। विरासत में मिले ज्ञान की अपनी अमूल्य धरोहर पर भी हमें ध्यान देना चाहिए। अपने धर्मग्रंर्थों और संविधान में वर्णित मूल्यों को भी हमें अपने जीवन में उतारना चाहिए। ऐसे अवसर बहुत कम आते हैैं जब आर्थिक हालात और जनसांख्यिकीय हालात के अनुकूल होते हैं। हमें यह अवसर खोना नहीं चाहिए। अपने लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए देश में सभी क्षमताएं हैं। बस हमें चीजों को बेहतर तरीके से करने का संकल्प लेना होगा। इस बात को तेलुगु कवि गुरजादा अप्पा राव की यह कविता अच्छे से व्यक्त करती है, ‘मेरे मित्र बहुत बातें हो चुकी हैं, अब कुछ ठोस काम किया जाए।’ समय आ गया है कि हम सभी सामाजिक बुराइयों के पीछे पड़कर उनके खिलाफ ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का आह्वान करें।

[ लेखक भारत के उप-राष्ट्रपति हैं ]