अनुच्छेद 370 खत्म करने के मोदी सरकार के निर्णय पर संवैधानिक वैधानिकता को लेकर सवाल उठ रहे हैं
सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह कश्मीरी लोगों की पहचान और गरिमा का सम्मान करते हुए उनमें स्वैच्छिक देशभक्ति का जज्बा जगाने में सफल हो।
[ अश्विनी कुमार ]: मोदी-शाह की जोड़ी ने एक बड़ा दांव खेला है। मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 समाप्त करते हुए राज्य को केंद्रशासित प्रदेशों में बांट दिया है। सरकार ने कश्मीरी लोगों के लिए शांतिपूर्ण एवं समृद्ध भविष्य का वादा करते हुए यह कदम उठाया। अब यह इतिहास ही तय करेगा कि सरकार ने जो हिम्मत दिखाई है, क्या वह वक्त से पहले उठाया गया कदम मानी जाएगी या फिर उसे इस तरह याद किया जाएगा कि ऐसे फैसले का समय आ गया था। चूंकि यह निर्णय देश को जोड़ने वाली कड़ी के रूप में देखा गया तो नि:संदेह लोकप्रिय राष्ट्रीय धारणा इसके पक्ष में है, लेकिन इस प्रक्रिया की संवैधानिक वैधानिकता को लेकर सवाल उठ रहे हैं। अब इसका फैसला शीर्ष अदालत को करना है जो कदम मुख्य रूप से राजनीतिक लिहाज से उठाया गया प्रतीत होता है।
सरकार का कदम देश के संघीय ढांचे पर प्रहार
संवैधानिक दृष्टि से देखें तो याचिकाकर्ता सहित इसके आलोचकों को लगता है कि सरकार का यह कदम देश के संघीय ढांचे पर प्रहार है। वे महसूस करते हैं कि यह विलय की संधि में कश्मीरियों के साथ किए गए वादे का शर्मनाक तरीके से किया उल्लंघन है। वे इस कदम को ‘संवैधानिक विरूपता’ की संज्ञा भी दे रहे हैं। बहस हो रही है कि अनुच्छेद 370 की धारा तीन को संवैधानिक गारंटी के मूल को खत्म करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। लिहाजा ऐसी कोई भी व्याख्या कानूनी तौर पर असंभव है। आलोचकों की दलील है कि चूंकि संविधान के अनुसार भारत राज्यों का एक संघ है तो इस स्थिति में वह किसी केंद्रशासित प्रदेश को अवश्य पूर्ण राज्य का दर्जा दे सकता है, लेकिन एक संप्रभु शक्ति के रूप में उसने कभी किसी प्रदेश के पूर्ण राज्य का दर्जा खत्म नहीं किया।
केंद्र सरकार का एकतरफा निर्णय
केंद्र सरकार के एकतरफा निर्णय के खिलाफ मुख्य कानूनी आपत्ति यही है कि इसमें राज्य के चुने हुए जनप्रतिनिधियों की सहमति नहीं ली गई है जो कि मूल संवैधानिक व्यवस्था के दृष्टिकोण से अनिवार्य है। नवगठित केंद्रशासित प्रदेश में विधानसभा के दायरे को सीमित करना ‘एक बड़े तबके को पूर्ण लोकतांत्रिक भागीदारी के अधिकार से वंचित करने’ के रूप में देखा जा रहा है। यहां बहुसंख्यक भावनाएं भुनाने के लिए संवैधानिक सिद्धांतों को ताक पर रख दिया गया। यह कार्यकारी शक्ति के अतिक्रमण के विरुद्ध पूरक संवैधानिक संरक्षण की अवहेलना के क्रम में अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।
कश्मीरियों को भी लाभ
वहीं इसके पक्ष में भी उतनी ही मजबूती से तर्क दिए जा रहे हैं। इस पर संसदीय हस्तक्षेप में गृहमंत्री अमित शाह ने सामाजिक एवं आर्थिक न्याय, लैंगिक समानता का सिद्धांत और राज्य में शांति एवं तरक्की की उम्मीद का हवाला दिया। वहीं केंद्र द्वारा दिए गए अधिकारों से कश्मीरियों को भी अन्य नागरिकों की तरह विकास के पूरे लाभ मिलेंगे। इससे संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता का अधिकार सुनिश्चित होगा। यह दावा भी किया गया कि बीते सात दशकों से जम्मू-कश्मीर के लोगों को जो विशेष दर्जा और खास अधिकार मिले थे उनसे मकसद हासिल नहीं हुआ और ऐसे में कश्मीरियों के लिए समय आ गया है कि वे राज्य में शांति और स्थानीय लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिए एक नई राष्ट्रीय कड़ी से जुड़ें। इस दृष्टि से फैसले को मूल संवैधानिक मान्यताओं के अनुरूप पेश किया जा रहा है।
नए रास्ते तलाशने चाहिए
सरकार की बुनियादी दलील है कि संविधान को किसी कालखंड के दायरे में समेटकर नहीं रखा जा सकता। राष्ट्र और लोकतंत्र समकालीन स्थितियों के संदर्भों में विकसित होते हैं। एक स्थिर समाज का विकास अपने अंतर्निहित प्रभावों से अवरुद्ध हो जाता है। ऐसे में आने वाली पीढ़ियों को इतिहास की बेड़ियों से मुक्त होकर अपने अनुभवों के आधार पर नए रास्ते तलाशने चाहिए।
अनुच्छेद 370 एक अस्थायी संवैधानिक प्रावधान है
सरकार का दावा है कि अनुच्छेद 370 एक अस्थायी संवैधानिक प्रावधान है, जिसका उपयोग एवं प्रासंगिकता पर निर्णय करने का अधिकार सरकार के पास है कि वह किसी विशेष संदर्भ में इसका आकलन कर सकती है। केंद्र सरकार शायद इसमें अदालत के क्षेत्राधिकार को भी चुनौती देते हुए दलील दे कि एक चुनी हुई सरकार को भारत की एकता और कश्मीरी लोगों की प्रगति को ध्यान में रखकर एक नीति आधारित राजनीतिक निर्णय करने का अधिकार है। इस लिहाज से यह न्यायिक समीक्षा का विषय नहीं हो सकता और यह ‘न्यायिक शासनीय मानदंडों’ के दायरे में नहीं आता।
संवैधानिक गारंटी स्थिर नहीं होती
अदालत को आगाह किया जाएगा कि वह किसी ‘राजनीतिक झंझावात’ में न पड़े। इस विषय पर संवैधानिक नीतिशास्त्र की भी दुहाई दी जाएगी और स्मरण कराया जाएगा कि संवैधानिक गारंटी स्थिर नहीं होती और यह समय के अनुसार बदलती रहती है। अपने निर्णय के समर्थन में सरकार आवश्यकता के सिद्धांत का हवाला भी दे सकती है कि अतीत में भी अनुच्छेद 370 को लेकर ऐसी प्रक्रियाएं अपनाई जा चुकी हैं।
सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक सक्रियता
इसमें न तो कोई बुद्धिमानी है और न ही यह संभव है कि इस मामले में अदालती रुख के आकलन का जोखिम लिया जाए। हालांकि राजनीतिक संदर्भों को देखते हुए यह कड़ी परीक्षा अवश्य होगी। मौजूदा राष्ट्रीय मिजाज को देखते हुए संविधान की व्याख्या में ‘मूलवाद (ओरिजिनलिज्म) की ऐतिहासिक अस्वीकार्यता’ बड़ी लुभावनी प्रतीत होती है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने जो न्यायिक सक्रियता दिखाई है, उसमें मामले को नकारने की गुंजाइश नहीं है। जैसे समाज में बदलाव जीवन का नियम है, वैसे ही समाज में आ रहे बदलावों पर प्रतिक्रिया भी कानूनी जीवन का हिस्सा है। वास्तव में न्यायिक समीक्षा की विस्तृत शक्ति स्वयं ही इस सिद्धांत पर संचालित होती है कि किसी संविधान को नए प्रारूप में सार्थकता देनी होती है। वहीं सुप्रीम कोर्ट ने भी स्थिर न्यायिक व्याख्या द्वारा संविधान की भावना को धता बताने के खतरे को लेकर आगाह किया है।
कश्मीर में शांति और समृद्धि की लड़ाई
फिर भी कानूनी चुनौतियों के परिणामों के लिहाज से स्पष्ट है कश्मीर को लेकर विरोधाभासी विमर्श की निर्णायक लड़ाई अदालती कक्षों या लुटियंस दिल्ली की बैठकों में और कश्मीर की सड़कों पर नहीं लड़ी जाएगी। कश्मीर में शांति और समृद्धि की लड़ाई में हार-जीत का फैसला इसी से तय होगा कि भारतीय लोग अपने दिल और दिमाग में क्या रखते हैं। कश्मीर की नियति राजनीतिक विमर्श में अपने यही अर्थ प्रस्तुत करती है कि देश केवल रोटी के सहारे ही जिंदा नहीं रहते। सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह कश्मीरी लोगों की पहचान और गरिमा का सम्मान करते हुए उनमें स्वैच्छिक देशभक्ति का जज्बा जगाने में सफल हो। उम्मीद है कि इस संदर्भ में प्रधानमंत्री के आश्वस्तकारी बयान से जुड़ी योजना जल्द ही मूर्त रूप लेगी। इससे ही भारत की ‘सभ्य’ देश वाली छवि मुखरित होगी, जो उसके मूल्यों से ‘सॉफ्ट पावर’ में परिलक्षित होती है।
( लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं )
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