[निरंकार सिंह]। दौलत आसमान से नहीं टपकती है, लेकिन यदि आप पार्षद, विधायक, सांसद और मंत्री बन जाते हैं तो देखते ही देखते मालामाल कैसे हो जाते हैं? इसका कोई संतोषजनक जवाब हमारे नेताओं के पास नहीं है। ऐसा नहीं है कि सभी नेता भ्रष्ट और बेईमान होते हैं। कई ऐसे भी हैं जिन्होंने सार्वजनिक जीवन में मिसाल भी पेश की है, पर इनकी संख्या बहुत कम है। इसी संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से पूछा है कि जनप्रतिनिधियों की संपत्ति में बेतहाशा बढ़ोतरी पर नजर रखने के लिए अब तक कोई स्थायी निगरानी तंत्र क्यों नहीं बना? उसने अपने पिछले वर्ष के आदेश पर अमल के बारे में कानून मंत्रालय और विधायी सचिव से जवाब भी मांगा है।

सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश गैर सरकारी संगठन लोक प्रहरी की ओर से सरकार के खिलाफ दाखिल अवमानना याचिका पर सुनवाई के दौरान दिया है। मालूम हो कि सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले वर्ष 16 फरवरी को आदेश दिया था कि चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को नामांकन भरते समय हलफनामे में स्वयं की ही नहीं, बल्कि अपने जीवन साथी और सहयोगियों की संपत्ति का स्नोत भी बताना होगा।

आम आदमी के खाते में चंद पैसों की आमद भी बैंकों के लिए तहकीकात का कारण बन जाती है, लेकिन हमारे माननीयों की संपत्ति में हो रही बेतहाशा वृद्धि खबरों में भी जगह नहीं पाती। हालांकि संपत्ति में बढ़ोतरी निजी मामला है, लेकिन अगर किसी जनप्रतिनिधि की संपत्ति कुछ ही वर्षों में लाख से बढ़कर करोड़ रुपये हो जाए तो यह आंकड़ा अचरज में डालने वाला है। एक आम आदमी कैसा भी व्यापार करे उसे हजार को लाख में बदलने में वर्षों लग जाते हैं, जबकि हमारे माननीय महज एक बार के प्रतिनिधित्व में लाख को करोड़ में बदलने का माद्दा रखते हैं। 2014 में लोकसभा चुनाव में जो 168 सांसद दोबारा चुनकर आए, उनमें से 165 की औसत संपत्ति 12.78 करोड़ रुपये थी, जो 2009 की उनकी औसत संपत्ति से 137 फीसद ज्यादा थी। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 2004 के अपने चुनावी शपथपत्र में अपनी संपत्ति 55,38,123 रुपये घोषित की थी जो 2014 में 9 करोड़ रुपये हो गई।

केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने राहुल गांधी से पूछा है कि उनकी संपत्ति दस साल में 17 गुना कैसे बढ़ गई? जबकि बतौर सांसद राहुल गांधी का वेतन ही उनकी आय का जरिया है। सपत्ति बढ़ाने का यह सियासी फॉर्मूला न तो उन्हें पता है और न ही वे इसका इस्तेमाल कर सकते हैं, जो बेरोजगारी और गरीबी की मार से जूझ रहे हैं। भारत में इस समय करीब 5 करोड़ लोग रजिस्टर्ड बेरोजगार हैं। बेरोजगारी एवं गरीबी भी उन मुद्दों में से प्रमुख है, जिनका राग अलाप कर लोग राजनीति में आते हैं। सेवा के नाम पर की जा रही सियासत जिस तरह से भारी मुनाफा देने वाले उद्योग में बदलती जा रही है, उससे राजनीति के साथसाथ लोकतंत्र की सार्थकता पर भी सवाल खड़े होते हैं।

लोक प्रहरी द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई याचिका के मुताबिक दूसरी बार चुने गए 25 सांसदों और 257 विधायकों की संपत्ति 5 साल में 5 गुना बढ़ गई है। वहीं ऐसे सांसदों और विधायकों की संख्या भी सैकड़ों में है, जिनकी संपत्ति में 100 से लेकर 500 फीसद तक की बढ़ोतरी हुई है। इस फेहरिस्त में कई नामचीन हस्तियां भी शामिल हैं, जिनकी संपत्ति में 500 फीसद से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है। विधायकों की संपत्ति में बढ़ोतरी की बात करें तो वे इस मामले में सांसदों से भी आगे हैं। ऐसा भी नहीं है कि यह बढ़ोतरी किसी एक राज्य के किसी एक विधायक की संपत्ति में हुई है। मध्य प्रदेश के विधायकों की औसत संपत्ति में 290 फीसद, हरियाणा के विधायकों की 245 फीसद, महाराष्ट्र के विधायकों की 157 फीसद और छत्तीसगढ़ के विधायकों की औसत संपत्ति में 147 फीसद की बढ़ोतरी हुई है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के 70 फीसद विधायक तो ऐसे हैं, जिनकी संपत्ति एक करोड़ रुपये से ज्यादा है।

सांसदों-विधायकों की संपत्ति में यह बेतहाशा वृद्धि इसलिए भी सवाल खड़े करती है, क्योंकि एक जनप्रतिनिधि के रूप में इनकी कमाई उतनी नहीं होती, जिससे इतनी बढ़ोतरी हो सके। हमारे सांसदों की बात करें तो सैलरी के रूप में इन्हें हर महीने 50 हजार रुपये मिलते हैं। वहीं जब संसद सत्र चल रहा होता है तो प्रत्येक सत्र के हिसाब से 2 हजार रुपये का दैनिक भत्ता मिलता है। इसके अलावा हर सांसद को निर्वाचन क्षेत्र भत्ता के नाम पर 45 हजार और कार्यालय खर्च भत्ता के नाम पर 45 हजार रुपये हर महीने मिलते हैं। यानी सैलरी के रूप में एक सांसद को एक महीने में कुल एक लाख 40 हजार रुपये मिलते हैं। हालांकि इसमें फायदा यह होता है कि उन्हें आम लोगों की तरह इस सैलरी से घर का रेंट, बिजली-फोन का बिल और यात्रा के लिए खर्च नहीं करना पड़ता है।

आजादी की अद्र्धशताब्दी पर लोकसभा के विशेष अधिवेशन में विपक्ष के तत्कालीन नेता की हैसियत से अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि ‘लोकतंत्र को सबसे बड़ा खतरा भ्रष्टाचार से है। भ्रष्टाचार का दानव आज हमें निगलने जा रहा है। ...इंदिरा गांधी ने एक बार कहा था कि यह (भ्रष्टाचार) अंतरराष्ट्रीय परिघटना है। उन्होंने गलत नहीं कहा था। जहांजहां लोकतंत्र है, वहां भ्रष्टाचार पनपने लगता है। हमने अपनी आंखों से देखा है। अमेरिका के एक राष्ट्रपति को त्याग पत्र देना पड़ा और उपराष्ट्रपति को पद छोड़ना पड़ा। जापान के एक प्रधानमंत्री को जेल जाना पड़ा। कोरिया के एक राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री को मृत्युदंड दिया गया। इटली में मंत्री जेल गए हैं। हालांकि भारत में भी भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ कदम उठाए गए हैं, लेकिन धीरे-धीरे उठाए गए हैं।

सत्ता के समीकरण पर उसका क्या असर होगा, यह पूरी तरह से आंकते हुए कदम उठाए गए हैं। देखा जाए तो यह राष्ट्र की अस्मिता को बचाने का सवाल है। इसके लिए यह सुझाव भी आया था कि राजनेता अपनी संपत्ति का पूरा ब्यौरा दें। सब कुछ लोगों के सामने आना चाहिए। अपने रिश्तेदारों की संपत्ति का विवरण देना भी बहुत जरूरी है, क्योंकि जब कोई राजनेता चुनकर आता है तो थोड़े ही दिनों में उसके सगे-संबंधी मालदार बन जाते हैं। सवाल है कि अगर राजनेता निष्कलंक नहीं होंगे, अगर राजनेता का जीवन पारदर्शी नहीं होगा तो कैसे काम चलेगा? ऐसे नेताओं के विरुद्ध कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन इससे वह नैतिक बल नहीं आएगा जिस नैतिक बल से समाज बदला जाता है, व्यवस्था बदली जाती है। यह केवल कानून बनाने का मामला नहीं है। लोकतंत्र एक स्वच्छ वातावरण की मांग करता है। लोकतंत्र एक नैतिक व्यवस्था है और आज यहां लोकतंत्र दांव पर लगा है।’

[राजनीतिक विश्लेषक]