[ राजीव सचान ]: लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद से भाजपा के प्रबल बहुमत को जोर-शोर से रेखांकित करते हुए भले ही विपक्ष को दुर्बल बताया जा रहा हो, लेकिन सच यह है कि वह उतना भी असहाय नहीं जितना प्रचारित किया जा रहा है। शायद इस सच्चाई से सत्तापक्ष भी परिचित है और इसीलिए प्रधानमंत्री ने गैर विवादित मुद्दों को प्राथमिकता देने की बात कही।

तीन तलाक बिल राज्यसभा में जल्द आने वाला नहीं है

उनके इस बयान का एक अर्थ यह भी निकाला जा रहा है कि तीन तलाक संबंधी विधेयक के लोकसभा से पारित हो जाने के बावजूद वह राज्यसभा में जल्द आने वाला नहीं है। इसकी एक वजह यह भी है कि तेलुगु देसम पार्टी के चार राज्यसभा सांसदों के भाजपा में शामिल हो जाने के बाद भी इस सदन में सत्ताधारी दल बहुमत के आंकड़े से दूर ही है। इसके अतिरिक्त भाजपा की सहयोगी पार्टी जद-यू तीन तलाक संबंधी विधेयक को समर्थन देने से इन्कार कर रही है और फिलहाल इस बारे में कुछ कहना कठिन है कि अन्नाद्रमुक एवं बीजू जनता दल इस विधेयक को राज्यसभा में समर्थन देना पसंद करेंगे या नहीं?

विपक्ष राज्यसभा में विधेयकों को रोकने में समर्थ है

साफ है कि ऐसी प्रतीत कराना सही नहीं कि सत्तापक्ष के प्रबल बहुमत के आगे विपक्ष बेचारा है। राज्यसभा में अपने बहुमत के बल पर विपक्ष अभी भी लोकसभा से पारित विधेयकों को रोकने अर्थात सरकार के एजेंडे को पटरी से उतारने में समर्थ है। इसे इस तरह और अच्छे से समझा जा सकता है कि पिछली लोकसभा से पारित 22 विधेयक राज्यसभा की मंजूरी नहीं हासिल कर सके। इनमें तीन तलाक संबंधी विधेयक भी है और नागरिकता से जुड़ा विधेयक भी। राज्यसभा की अड़ंगेबाजी का शिकार हुए इन सभी 22 विधेयकों को लोकसभा से फिर से पारित कराना होगा। इसी क्रम में बीते दिनों तीन तलाक संबंधी विधेयक को नए सिरे से पारित कराया गया है।

समय और संसाधन की बर्बादी

यदि लोकसभा प्रतिदिन दो लंबित विधेयकों को भी पारित करे तो कम से कम 10-11 दिन का समय लगेगा। जो काम हो चुका हो उसे फिर से करना समय और संसाधन की बर्बादी ही है, लेकिन इस बर्बादी से दो-चार होने के अलावा और कोई उपाय नहीं। अच्छा हो कि कोई यह हिसाब लगाए कि जिस संसद की कार्यवाही में प्रति मिनट लाखों रुपये खर्च होते हैं वहां 22 विधेयकों को फिर से पारित कराने में कितना रुपया व्यर्थ में खर्च होगा? नि:संदेह लोकतांत्रिक देशों को लोकतंत्र की भी कीमत चुकानी होती है, लेकिन आखिर यह कितना उचित है कि राज्यसभा की अड़ंगेबाजी के कारण लोकसभा को वही काम फिर से करना पड़े जो वह पहले कर चुकी है?

क्या सकारात्मक विरोध को अड़ंगेबाजी कहा जा सकता है

इस प्रश्न पर यह प्रतिप्रश्न खड़ा हो सकता है कि क्या सकारात्मक विरोध को अड़ंगेबाजी कहा जा सकता है? बिल्कुल नहीं कहा जा सकता, लेकिन क्या कोई यह कह सकने की स्थिति में है कि राज्यसभा जब-जब लोकसभा के विपरीत रवैया अपनाती है तब-तब वह सही ही होती है? हो सकता है कि इतने बड़े देश में कोई ऐसा कुछ कह भी दे, लेकिन फिलहाल उस दिन का स्मरण करते हैं जब राज्यसभा ने जुवेनाइल जस्टिस एक्ट यानी किशोर न्याय अधिनियम से संबंधित विधेयक पारित किया था। चूंकि राज्यसभा में विपक्षी दल के सांसद इस विधेयक के कुछ प्रावधानों से सहमत नहीं थे इसलिए वह एक अर्से से वहां अटका हुआ था।

... जब विपक्ष किशोर न्याय अधिनियम के खिलाफ अड़े थे

किशोर न्याय अधिनियम में संशोधन कर यह बदलाव किया गया था कि जघन्य अपराध के मामलों में 16 से 18 साल के किशोरों के खिलाफ भी बालिगों की तरह मुकदमा चलाया जा सकेगा। जब विपक्ष के रवैये से यह साफ था कि वह इस विधेयक को मंजूरी देने वाला नहीं है तभी यह खबर आई कि देश को दहलाने वाले निर्भया कांड का नाबालिग दोषी रिहा हो गया है। इस रिहाई ने दिल्ली ही नहीं, देश के लोगों को आक्रोशित किया। दिल्ली में जंतर-मंतर पर इस रिहाई के खिलाफ प्रदर्शन होने लगे और निर्भया के माता-पिता उन विपक्षी दलों को कठघरे में खड़ा करने लगे जो किशोर न्याय अधिनियम के खिलाफ अड़े थे। उन्होंने कुछ अन्य विपक्षी नेताओं से मिलकर अपनी आपत्ति भी जताई।

लोगों का गुस्सा देखकर विपक्ष ने बदला अपना सुर

लोगों का गुस्सा बढ़ता देखकर विपक्ष विरोध करना भूलकर विधेयक के समर्थन में आ गया और राज्यसभा में किशोर न्याय विधेयक पर चर्चा के लिए तैयार हो गया। एक दिन पहले जो विपक्षी नेता इस विधेयक को टालने पर अड़े थे वे 22 दिसंबर 2018 को उच्च सदन में यह कहते दिखे, ‘यह बहुत ही महत्वपूर्ण बिल है। निर्भया केस दिल को दहलाने वाला और बेहद खौफनाक था...।’

लंबे समय तक राज्यसभा में लटका रहा विधेयक

इन बदले सुरों का मूल कारण निर्भया के नाबालिग हत्यारे की रिहाई से उपजा आक्रोश ही था। विधेयक पर चर्चा के समय निर्भया के माता-पिता भी राज्यसभा की दर्शक दीर्घा में बैठे थे। पता नहीं उनकी उपस्थिति ने विपक्ष पर कितना दबाव बनाया, लेकिन यह साफ हो गया था कि जो विधेयक 7 मई 2015 को लोकसभा से पारित हो गया था उसे राज्यसभा में 22 दिसंबर 2018 तक रोके रखने की कोई ठोस वजह नहीं थी।

मतभेद की स्थिति में बीच का रास्ता ही सर्वोपरि

जैसे यह नहीं कहा जा सकता कि सत्तापक्ष के पास ही हर तरह की कानूनी समझ होती है वैसे ही यह भी नहीं कह सकते कि हर मसले पर विपक्ष नीर-क्षीर विवेक से ही फैसला करता है। विभिन्न विधेयकों पर सत्तापक्ष और विपक्ष में मतभेद होने स्वाभाविक हैं। मतभेद की स्थिति में जरूरी यह है कि बीच का कोई रास्ता निकाला जाए ताकि न तो नए कानूनों के निर्माण में देरी हो और न ही उनमें संशोधन-परिवर्तन का काम थमे। मुश्किल यह है कि इसके बजाय विपक्ष लोकसभा से पारित विधेयकों की राह रोक लेना पसंद करता है।

राज्यसभा विधायी कार्यों में बाधक

संविधान निर्माताओं ने यह कल्पना नहीं की थी कि राज्यसभा विधायी कार्यों में बाधक बनेगी, लेकिन बीते कुछ समय से विपक्ष अपने बहुमत के बल पर जो कुछ रोक सको उसे रोक लो वाले रवैये का प्रदर्शन कर रहा है। यह रवैया सत्तापक्ष के शासन करने के अधिकार पर अड़ंगा ही है। नि:संदेह राज्यसभा लोकसभा से पारित विधेयकों पर मुहर लगाने वाले सदन के तौर पर तब्दील नहीं हो सकता, लेकिन उसे मुहर लगाने से हर हाल में बचने वाले सदन के रूप में भी नहीं उभरना चाहिए।

सत्तापक्ष को है राज्यसभा में बहुमत का इंतजार

कहना कठिन है कि सत्तापक्ष को राज्यसभा में कब बहुमत हासिल होगा, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि मोदी सरकार समेत अन्य गैर कांग्रेसी सरकारों को राज्यसभा में कभी बहुमत हासिल नहीं रहा। यदि आने वाले समय में मोदी सरकार को राज्यसभा में बहुमत हासिल हो जाता है तो वह ऐसी सहूलियत पाने वाली पहली गैर कांग्रेसी सरकार होगी। बेहतर होगा कि ऐसा होने के पहले ही पक्ष-विपक्ष के रिश्ते ऐसे हो जाएं कि कोई भी विधेयक बेवजह न अटके।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )

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