ए. सूर्यप्रकाश। बीते दिनों ग्लोबल हंगर इंडेक्स यानी जीएचआइ, 2021 रिपोर्ट जारी की गई। कई पैमानों पर इसके निष्कर्ष संदिग्ध प्रतीत होते हैं। कथित तौर पर विश्व में भुखमरी की स्थिति को दर्शाने वाली इस रपट में भारत को पाकिस्तान, बांग्लादेश और अन्य दक्षिण एशियाई देशों से भी नीचे रखा गया। इस रपट को तैयार करने में जो पुराने आंकड़े और दोषपूर्ण प्रक्रिया अपनाई गई, उससे इस रपट पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। वैश्विक एवं क्षेत्रीय स्तर पर भुखमरी की स्थिति का पता लगाने के लिए यह रिपोर्ट चार बिंदुओं पर तैयार की गई। इनमें पहला बिंदु अल्पपोषण से जुड़ा है। दूसरा बिंदु चाइल्ड वेस्टिंग यानी लंबाई के अनुपात में कम वजन से संबंधित है।

तीसरा बिंदु चाइल्ड स्टंटिंग यानी आयु के अनुसार कम लंबाई का है। चौथा बिंदु बाल मृत्यु दर का है। इन बिंदुओं का जुड़ाव पांच साल से कम आयु के बच्चों से है। इस रपट में भारत को 116 देशों में से 101वें स्थान पर जगह दी गई, जिसमें वह कई दक्षिण एशियाई देशों से भी नीचे है। इसमें भारत को 27.5 का स्कोर प्राप्त हुआ। वहीं 18 देश ऐसे हैं जिन्हें पांच से भी कम स्कोर मिला। इसमें कम स्कोर बेहतर प्रदर्शन माना जाता है। भारत पिछले वर्ष 94वें स्थान पर था, लेकिन इस साल फिसलकर 101वें पायदान पर पहुंच गया। उसकी तुलना में 65वें स्थान पर श्रीलंका, 76वें स्थान पर नेपाल और 92वें स्थान पर पाकिस्तान दिखाया गया। जीएचआइ की रैकिंग में पांच वर्ष से कम आयु के जिन बच्चों के आंकड़े लिए गए, वे 2016 से 2018 के हैं। अब चाहे तस्वीर उससे बुरी हो या बेहतर, लेकिन वे आंकड़े मौजूदा जमीनी हकीकत को नहीं दर्शाते। इतना ही नहीं रपट तैयार करने में एफएओ के जिन आंकड़ों को आधार बनाया गया, उन्हें जुटाने के लिए जो प्रक्रिया अपनाई गई, वह भी सवालों के घेरे में है।

दरअसल, एफएओ के लिए ये आंकड़े गैलप नाम की संस्था ने टेलीफोन पर सर्वे के आधार पर तैयार किए। सर्वेक्षणकर्ताओं ने कोविड-19 के दौरान रोजगार की स्थिति, नौकरी या कारोबार में नुकसान जैसे सवाल भी पूछे। जबकि इस दौरान सरकार ने खाद्य उत्पादों की सुनिश्चित आपूर्ति के लिए एक व्यापक अभियान चलाया, लेकिन लोगों से यह पूछा ही नहीं गया कि क्या उन्हें खाद्य उत्पाद मिलते रहे। इस तथ्य में भी उतनी ही विसंगति है कि अल्पपोषण को वैज्ञानिक रूप से मापने के लिए लंबाई और वजन मापना आवश्यक है, लेकिन हंगर इंडेक्स में

गैलप के फोन से हुए सर्वे पर ही भरोसा कर लिया गया।विवादित पेच केवल इतने ही नहीं हैं।

रैंकिंग में शुरुआती 18 देश वर्ष 2000 में 5 या 5.5 से कम वाले दायरे में थे, जिन्होंने अपनी स्थिति कायम रखी है। हालांकि, 2000 में जिस चीन का स्कोर 13.5 था, वह भी अब 5 से कम के दायरे में आ गया है। कहा जा रहा है कि कई वैश्विक संस्थाओं ने इस रैंकिंग के लिए आंकड़े जुटाए। ऐसे में क्या चीन के संदर्भ में इन आंकड़ों पर

भरोसा किया जा सकता है। विशेषकर इस बात को देखते हुए कि कोरोना की जांच को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ को धमकाना हो या फिर ईजआफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग में विश्व बैंक को प्रभावित करना, दोनों ही मामलों में चीन की दबंगई से इन आंकड़ों की विश्वसनीयता भी संदेहास्पद हो जाती है। लिहाजा चीन द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों की गहन रूप से परख-पड़ताल की जानी चाहिए थी, क्योंकि जब डब्ल्यूएचओ कोरोना की जांच को लेकर चीन के झांसे में आ सकता है तब हंगर इंडेक्स के लिए उसके आंकड़ों पर कैसे भरोसा किया जा सकता है?

ग्लोबल हंगर इंडेक्स भी अतीत में आई वैश्विक संस्थानों की उन तमाम रिपोर्ट के ही ढर्रे पर है, जो भारत की गलत तस्वीर पेश करती रही हैं। हंगर इंडेक्स तैयार करने में हुई गड़बड़ियां पेरिस के रिपोर्टर्स विदाउट फ्रीडम के प्रेस फ्रीडम इंडेक्स और स्वीडिश एजेंसी वी-डेम द्वारा पेश की गई डेमोक्रेसी रिपोर्ट, 2020 की याद दिलाती हैं। उक्त रपट में भारत से बेहतर ‘लोकतंत्र की स्थिति’ उस मालदीव में बताई गई थी, जहां केवल मुस्लिम ही देश के नागरिक हो सकते हैं और जहां शरई कानून लागू हैं।

एक स्पष्ट रुझान यह भी दिखता है कि जबसे चीन ने संयुक्त राष्ट्र के लिए अपना वित्तीय योगदान बढ़ाया है, तबसे

वह इस वैश्विक संस्था और उसकी एजेंसियों के कामकाज को प्रभावित करने की कोशिशों में जुटा है। यही बात पश्चिम की कई अकादमिक, पेशेवर संस्थाओं और विश्वविद्यालयों पर भी लागू होती है, जो विभिन्न विषयों पर स्वतंत्र सर्वेक्षण और रैंकिंग जारी करते हैं। समय आ गया है कि इन संस्थानों के वित्तीय स्रोतों की कड़ी

जांच-पड़ताल कराई जाए। हाल के वर्षों में विश्व बैंक और डब्ल्यूएचओ के रवैये को देखते हुए भारतीय एजेंसियों को पूरी तरहसतर्क हो जाना चाहिए। विशेषकर एशिया में एक और आर्थिक एवं सामरिक शक्ति के रूप में भारत के उभार से चिंतित होते चीन को देखते हुए यह आवश्यक हो जाता है।

भारत की तरक्की की राह में चीन किसी भी प्रकार से अवरोध पैदा करने में जुटा हुआ है। ऐसी कई दलीलें हैं जो विश्वास दिलाती हैं कि ये वैश्विक संस्थान चीन के शिकंजे में फंसकर वही रिपोर्ट तैयार करते हैं, जो चीनी एजेंडे के अनुकूल हो। मिसाल के तौर पर भारत के वैश्विक वैक्सीन उत्पादन में अग्रणी होने के बावजूद डब्ल्यूएचओ

स्वदेशी कोवैक्सीन को मान्यता देने में आनाकानी कर रहा है। देश में 11.20 करोड़ से अधिक लोग कोवैक्सीन की खुराक ले चुके हैं और उसकी क्षमताओं पर भी कोई सवाल नहीं उठे। फिर भी डब्ल्यूएचओ के इस अवरोध से लाखों भारतीय विदेश जाने से वंचित हो रहे हैं। आखिर डब्ल्यूएचओ किसकी शह पर ऐसा कर रहा है?

संभवत: सबसे बड़ा मजाक यह है कि दुनिया का सबसे बड़ा तानाशाह देश इन वैश्विक संस्थाओं पर अपनी मर्जी थोप रहा है कि वे लोकतंत्र और अन्य पैमानों पर भारत की बदरंग तस्वीर दिखाएं। ऐसे में इन तथाकथित वैश्विक रिपोर्ट का प्रतिकार किया जाए, जो शोध, जांच और विश्लेषण के मूल सिद्धांतों पर ही न खरी उतरती हों।

(लेखक संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)