वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायिक नियुक्तियों पर 99वें संविधान संशोधन को गैर-संवैधानिक घोषित करने के फैसले पर कहा है कि यह निर्णय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गैर-निर्वाचित का अधिनायकत्व लागू करने जैसा है। 99वें संविधान संशोधन के जरिये 'नेशनल जुडिशल अपॉइंटमेंट्स कमीशन 13 अप्रैल, 2015 को लागू हुआ था। इस संविधान संशोधन को संसद के दोनों सदनों ने सर्वसम्मति से पारित किया जिसका 16 राज्यों ने समर्थन किया, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीशों ने 4-1 के बहुमत से उसे निरस्त कर दिया। जेटली के अनुसार इससे संसदीय संप्रभुता और कार्यपालिका के अधिकारों को झटका लगा है। दूसरी ओर अनेक न्यायविद न्यायालय के निर्णय का बचाव कर रहे हैं। न्यायालय ने 22 वर्षों से चली आ रही न्यायिक नियुक्तियों की 'कोलेजियम-व्यवस्था ' को समाप्त करने वाले नए संविधान संशोधन को 'शक्ति-पृथक्करण ' और 'संविधान के मूल ढांचे ' के विरुद्ध बताया। इस बहस में कुछ मूलभूत बातों पर ध्यान देना जरूरी है। चूंकि सरकार की समस्त गतिविधियों को राजनीति कहते हैं अत: न्यायपालिका के निर्णय भी राजनीति की परिधि में ही आते हैं। राजनीति समाज में संघर्षों के समाधान की कुंजी है। ज्यादातर लोकतंत्रों में न्यायपालिका को संविधान और कानून का अंतिम प्रहरी बनाया जाता है, लेकिन प्रहरी स्वयं संविधान का पर्याय नहीं हो सकता, लेकिन 1973 के केशवानंद भारती मुकदमे के बाद से सर्वोच्च न्यायालय कुछ इसी दिशा में चल पड़ा है।

न्यायपालिका स्वयं को एक लोकतांत्रिक परिवेश में ही परिभाषित करती है। लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए जनस्वीकृति अपरिहार्य है। संसद अपने सदस्यों का चयन स्वयं नहीं कर सकती। उनका निर्वाचन जनता करती है। कार्यपालिका भी अपने सदस्यों को नहीं चुन सकती। भारत और इंग्लैंड जैसी संसदात्मक व्यवस्थाओं में बिना निर्वाचन के कोई मंत्री नहीं रह सकता और अमेरिका जैसे अध्यक्षात्मक व्यवस्था में किसी भी मंत्री की नियुक्ति बिना सीनेट (संसद के द्वितीय सदन) की स्वीकृति के नहीं हो सकती। जब इंग्लैंड और अमेरिका में न्यायाधीशों की नियुक्तियों में कार्यपालिका की भूमिका होती है तो फिर भारतीय न्यायपालिका को जनस्वीकृति के किसी तरीके से परहेज क्यों होना चाहिए? क्यों उसे यह लगता है कि कार्यपालिका द्वारा नियुक्त होने से उसे स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग से काम करने में दिक्कत होगी? स्वतंत्रता के बाद कार्यपालिका से नियुक्त न्यायाधीशों ने क्या स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग से काम नहीं किया?

नेशनल जुडिशल अपॉइंटमेंट्स कमीशन की अवधारणा इंग्लैंड के जुडिशल अपॉइंटमेंट्स कमीशन से ग्रहण की गई। इंग्लैंड में कमीशन की वजह से न केवल नियुक्तियों में गुणवत्ता बढ़ी, वरन महिलाओं, अल्पसंख्यकों और विकलांगों का प्रतिनिधित्व भी उच्च-न्यायपालिका में बढ़ा। इंग्लैंड में अभी तक न्यायपालिका ने नियुक्ति-प्रक्रिया में परिवर्तन का कोई प्रतिकार नहीं किया है। अमेरिका में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्तियां राष्ट्रपति करता है और प्राय: वह अपनी राजनीतिक प्राथमिकताओं को भी नजरंदाज नहीं करता। इन नियुक्तियों की सीनेट से स्वीकृति ली जाती है। 1789 से अभी तक अमेरिकी सीनेट ने 34 प्रस्तावित नियुक्तियों को स्वीकृति नहीं दी। सीनेट के अलावा, अमेरिकन-बार-एसोसिएशन भी प्रस्तावित न्यायिक नियुक्तियों की पड़ताल करती है। इस प्रकार लोकतंत्र के दो प्रमुख मॉडल्स में सर्वोच्च न्यायाधीशों की नियुक्तियों में कार्यपालिका का हाथ होता है। भारत में उच्च-न्यायपालिका क्यों नियुक्तियों के मामले में स्वयं को व्यवस्थापिका और कार्यपालिका से मुक्त करना चाहती है? लोकतंत्र में सरकार की तीनों संस्थाओं को मिल कर चलना पड़ता है। यही सिद्धांत हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में अपनाया। संविधान प्रारूप-समिति के अध्यक्ष डॉ. अंबेडकर ने न तो इंग्लैंड के 'संसदीय-संप्रभुता ' का सिद्धांत अपनाया और न ही अमेरिका के 'न्यायिक-सर्वोच्चता ' का। इस दृष्टि से देखें तो वित्तमंत्री जेटली गलत हैं जो सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को संसदीय-संप्रभुता के विरुद्ध बता रहे हैं, लेकिन इसी के साथ सर्वोच्च न्यायालय भी अपने निर्णयों से 'न्यायिक-सर्वोच्चता ' की स्थापना करने पर तुला है जो संविधान निर्माताओं की मंशा के विरुद्ध है। अंबेडकर ने भारतीय संविधान में संसदीय संप्रभुता और न्यायिक सर्वोच्चता के बीच संतुलन के सिद्धांत को अंगीकार किया था। सर्वोच्च न्यायालय का संदर्भित निर्णय इस संतुलन के अनुरूप नहीं। इतना ही नहीं, वह केशवानंद-भारती मुकदमे में 'संविधान के मूल-ढांचे ' की भावना के भी विरुद्ध है जो न केवल न्यायिक स्वतंत्रता की बात करता है वरन व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति-वितरण के सिद्धांत की भी वकालत करता है। यूरोपीय मॉडल भी न्यायालयों को संविधान संशोधनों पर न्यायिक समीक्षा का अधिकार नहीं देता, लेकिन भारतीय सर्वोच्च न्यायालय न केवल कानूनों, वरन संविधान संशोधनों की भी न्यायिक समीक्षा कर सकता है और यदि उन्हें संविधान के 'मूल-ढांचे ' के विरुद्ध पाए तो उन्हें निरस्त भी कर सकता है जैसा कि उसने 99वें संशोधन का किया, लेकिन 'मूल-ढांचे ' को न तो संविधान ने और न ही न्यायपालिका ने कहीं भी अंतिम रूप से परिभाषित किया है। यह एक प्रकार से सर्वोच्च न्यायालय को व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के विरुद्ध वीटो-पॉवर देने जैसा है जो स्वयं संविधान के दर्शन के विरुद्ध है।

न्यायिक नियुक्तियों को लेकर भारतीय लोकतंत्र अभी किसी अंतिम सिद्धांत या प्रक्रिया पर नहीं पहुंच पाया है। इस पर जारी मंथन को किसी नकारात्मक दृष्टि से देखने की जरूरत नहीं। संविधान और लोकतंत्र इसी प्रक्रिया से आगे बढ़ते हैं। वर्तमान विवाद को 'न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका ' के रूप में देखने की कोई वजह नहीं। देश में राजनीतिक संस्कृति ऐसी बननी चाहिए कि जनता के सम्मान और निष्ठा पर सरकार के तीनों अंगों का समान हक हो, किसी का भी एकाधिकार नहीं। तभी लोकतंत्र सशक्त और जीवंत होगा।

[लेखक डॉ. एके वर्मा, राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं शोध-संस्था सीएसएसपी के निदेशक हैं]