नई दिल्ली [गिरीश्वर मिश्र]। गोल्ड कोस्ट में खत्म हुए राष्ट्रमंडलीय खेलों में मनिका बत्रा, साइना नेहवाल, मनु भाकर, पीवी सिंधु, तेजस्विनी, सीमा, दिव्या और अन्य यशस्वी बेटियों के शानदार प्रदर्शन से देश का मान-सम्मान बढ़ा। सारे देशवासियों को उनकी उपलब्धियों को लेकर एक गर्व की अनुभूति हुई। इसके पहले महिला क्रिकेट टीम की खिलाड़ियों ने अपने प्रदर्शन से देश-दुनिया का ध्यान खींचा था। खेलों की दुनिया के साथ ही भारतीय महिलाएं अब लड़ाकू विमान तक चला रही हैं। वस्तुत: वे जीवन के किसी भी क्षेत्र में अपने पुरुष प्रतिद्वंद्वी से किसी भी तरह कमतर नहीं दिखतीं। साहित्य, नृत्य आदि तो स्त्रियों के लिए प्रतिभा के परंपरागत क्षेत्र हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था की जटिल दुनिया में भी भारतीय महिलाओं ने देश के भीतर और बाहर नाम कमाया है।

यह सब देखकर यही लगता है कि देश के महिला समाज में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। युवा प्रतिभाओं को संवारने निखारने की व्यवस्था सुधारनी चाहिए और उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। ‘अबला’ रह कर पराश्रय में जीना ही स्त्री की नियति नहीं है। भारतीय स्त्रियां अपने दम खम से इस तरह की छवि को तोड़ रही हैं। वे अपनी क्षमता और योग्यता से नए प्रतिमान गढ़ रही हैं। स्त्रियों को सशक्त बनाने की सरकारी मुहिम भी योजनाबद्ध रूप से कई मोर्चों पर जारी है। महिलाओं की विभिन्न स्तरों पर और अलग-अलग क्षेत्रों में सहभागिता बढ़ाने की कोशिशें हो रही हैं। ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ’ की योजना के साथ स्त्रियों के स्वास्थ्य और सामथ्र्य के लिए अनेक प्रयास चल रहे हैं। यह सब देख कर यही लगता है कि भारतीय समाज की इस शोषित, वंचित, उपेक्षित श्रेणी को सशक्त बनाया जाना संभव है।

हाशिये पर जीने के लिए अभिशप्त स्त्री जाति को उनका प्राप्प्य देने के लिए सरकार और जनता, दोनों ही प्रतिबद्ध प्रतीत हो रहे हैं। यह हमारी संवैधानिक वचनबद्धता भी है, पर इसी दौरान देश के कई कोनों से लगातार आ रही दुष्कर्म और दुराचार की खबरों से हर सभ्य भारतीय का सिर शर्म से झुका जा रहा है। बच्चे, युवा, प्रौढ़ और यहां तक कि वृद्ध आयु वर्ग की स्त्रियां हिंसा का शिकार हो रही हैं। उनके साथ यौन हिंसा की हिंस्न घटनाओं से रोंगटे खड़े हो रहे हैं। देश में दुष्कर्म और हत्या जैसी घटनाओं का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। ऐसी घटनाओं से भय, शोक और क्षोभ का माहौल बन रहा है। दुर्भाग्य यह है कि सारे नैतिक मानदंडों को धता बताती इन बर्बर और विचलित करने वाली घटनाओं के अनेक आरोपी शिक्षित हैं और कई तो औपचारिक जीवन के उन स्थलों और संदर्भों से जुडे़ हैं जहां आचरण के सामाजिक मानक प्रकट रूप से मान्य हैं और जिनका आम जनता से सीधा रिश्ता होता है।

इस तरह की घटनाओं से न्यायालय, विद्यालय, विश्वविद्यालय, सरकारी कार्यालय, अस्पताल और थाना आदि जैसे संस्थान जो मूलत: सामज की सहायता के लिए बने हैं और स्वभाव से शरण देने वाले हैं, संदिग्ध से हुए जा रहे हैं। इनकी स्वाभाविक रूप से अर्जित साख घट रही है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि आधुनिक होते समाज में हो रहा सामाजिक परिवर्तन भरोसे और विश्वास को ठोकर मारते हुए रिश्तों के व्याकरण को बुरी तरह गड़बड़ा रहा है। जो कभी अभद्र, अश्लील और सामाजिक रूप से अग्राह्य माना जाता था उसकी श्रेणी और परिभाषा बदल रही है। अब अमानवीय आचरण की हद से कुछ भी नहीं छूट रहा है। महिलाओं के प्रति हिंसक घटनाओं में शक्ति और सत्ता के साथ खास रिश्ता बनता नजर आता है। आर्थिक लोभ और लाभ कमाना भी कई बार रिश्तों में सेंधमारी का सबब बन रहा है। संस्कृति के क्षरण, विखंडन और अपसंस्कृति की चर्चाएं तो होती हैं पर हम संबंधों और रिश्तों को संभालने, संजोने और समृद्ध करने की राह नहीं बना पा रहे हैं।

महिलाओं के साथ घर के भीतर और बाहर जिस तरह हिंसा बढ़ी है उससे देश के सामाजिक स्वास्थ्य के लिए चिंताजनक संकेत मिलते हैं। ‘देवी’ मान कर आराधना करने वाले देश में जिस किस्म की दरिंदगी की कहानियां सामने आ रही हैं वे मानवोचित नैतिकता और आचार-व्यवहार के मानदंडों को धूल-धूसरित कर रही हैं। ये घटनाएं एक प्रकार के सामाजिक प्रदूषण को ही दिखा रही हैं। उनमें पुराकाल के हिंसक पशु-जीवन की स्वच्छंदता के अवशेष पुनर्जीवित हो रहे हैं। इस परिस्थिति और उसके कारणों की पहचान जरूरी है। इसे उपेक्षणीय मानना घातक होगा, क्योंकि यह सामाजिक विकार थमने का नाम नहीं ले रहा है। कुछ वर्ष पूर्व घृणित ‘निर्भया कांड’ के वक्त देश में एक संवेदना जगी थी और लगा था कि हम स्त्री के विरुद्ध हो रहे अत्याचारों पर लगाम लगा सकेंगे, लेकिन ऐसा न हुआ और धीरे-धीरे वह संवेदना कुंद सी पड़ती दिख रही है।

यह बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि सारी मर्यादाओं को ताख पर रखकर कुछ लोग समाज और देश को शर्मसार कर रहे हैं। शिक्षित लोगों का दायित्व बनता है कि वे आगे बढ़कर इस अमानुषिक प्रवृत्ति का विरोध करें। ऐसे संवेदनशील मसलों पर तटस्थ बने रहना अमानवीय होगा। ऐसी घटनाओं का संज्ञान लेकर त्वरित कार्रवाई की कारगर व्यवस्था करनी होगी और एक बेहतर समाज के लिए एकजुट होकर कार्य करना होगा। मानवीय गरिमा के साथ हम खुद भी जियें और दूसरे को भी गरिमा के साथ जीने का अवसर दें, क्योंकि स्वतंत्र भारत में सात दशक बाद के हालात आश्वस्ति की जगह चिंता जगा रहे हैं। आज यह सोचना होगा कि समाज का विकास बर्बरता से सभ्यता की दिशा में हो रहा है या फिर हम हम बर्बरता की ही तरफ बढ़ रहे हैं?

एक स्वस्थ लोकतांत्रिक एवं न्यायपूर्ण समाज के निर्माण के लिए प्रयास बेहद जरूरी हो रहा है। नए दौर में धीरे-धीरे धर्म, ईश्वर, पाप, पुण्य, शील और आचार जैसे शब्द तो दकियानूसी मानसिकता करार दिए गए, लेकिन हम कोई विकल्प नहीं खोज पाए हैं। उनकी जगह स्वायत्त होता आदमी निरंकुश, बेखौफ और दिशाहीन होता जा रहा है। समाज को महिलाओं के प्रति नजरिया बदलने का प्रयास करना होगा। भारत की सभ्यता-संस्कृति की गौरवमयी परंपरा के विपरीत इस तरह का घृणास्पद आचरण सामाजिक जीवन को नियमित-व्यवस्थित करने के लिए आचरण-संहिता की अपेक्षा करता है। इसलिए करता है, क्योंकि 21वीं सदी में यौन हिंसा की दहशत फैलाने वाली घटनाएं आधुनिकता के तमाम दावों के बीच बर्बरता का प्रमाण दे रही हैं।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विवि के कुलपति हैं)