[आशुतोष झा]। लगभग छह महीने पहले संसद का बजट सत्र कोरोना के कारण बीच में स्थगित करना पड़ा था। तबके मुकाबले आज भारत कोरोना से लड़ने में सक्षम तो दिख रहा है, लेकिन कोरोना का प्रसार भी कई गुना तेज है। संवैधानिक बाध्यता के कारण मानसून सत्र की घोषणा हो गई है, जो 14 सितंबर से शुरू होगा, लेकिन इसी के साथ एक बहस प्रश्नकाल स्थगित करने को लेकर छिड़ गई है। विपक्षी दलों की ओर से इसे ऐसे पेश किया जा रहा है जैसे यह आपातकाल लगाने की तैयारी है।

संसद और विधानसभाओं में प्रश्न काल की काफी महत्ता है, क्योंकि यह वह वक्त होता है जब जनप्रतिनिधि की योग्यता और समझ के साथ-साथ मंत्री की क्षमता का आकलन तो होता ही है, सरकार जवाब देने के लिए संवैधानिक रूप से बाध्य भी होती है। यह एक लगाम है, जिसके जरिये सरकार को नियंत्रित किया जाता है। सरकार कोई भी हो, वह प्रश्नकाल में गलत जानकारी देकर नहीं बच सकती। यही कारण है कि कई बार सरकार ऐसे जवाब भी देती है, जिसमें वह खुद फंसने वाली होती है। संसदीय परंपरा में प्रश्नकाल जितना अहम है, सदस्यों की ओर से उसकी गरिमा का उतना ध्यान नहीं रखा जाता।

हर दिन शोरशराबे से शुरू होती है संसद की कार्यवाही

यह एक काला अध्याय है कि संसद के कुछ सदस्यों ने पैसों की खातिर सवाल किए थे। इसके बाद संसद ने सांसदों को दंडित किया। इसमें अलग-अलग दल के सदस्य थे, लेकिन संसद एक थी, ताकि फिर कभी ऐसी घटना सामने न आए। संसद ने अपनी गरिमा के अनुसार यह कदम उठाया, लेकिन आज भी संसद की कार्यवाही सामान्यतया हर दिन शोरशराबे से ही शुरू होती है। शायद ही कोई दिन हो, जब विपक्षी सदस्यों की ओर से प्रशनकाल स्थगन का आग्रह न होता हो। विपक्ष में कांग्रेस रही हो या भाजपा, यह दृश्य आम हुआ करता है। राजनीतिक दल इसे अपनी उपलब्धि मानते हैं कि उन्होंने कई- कई दिनों तक सदन की कार्यवाही नहीं चलने दी।

तात्कालिक मुद्दों से जुड़ा होता है शून्यकाल

जब कोई गर्म राजनीतिक मुद्दा हो तो कोशिश यह होती है कि प्रश्नकाल स्थगन हो और फिर पूरे दिन की कार्यवाही स्थगित हो जाए। अगर प्रश्नकाल स्थगित न भी हुआ और स्पीकर बहुत जतन से प्रश्नकाल कराने में सफल हो गए तो औसतन 5-6 सवाल होते हैं। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो, जब सभी सवाल पूछे गए हों, लेकिन ऐसा तो सिर्फ रिकॉर्ड बनाने के लिए होता है। इसीलिए राज्यसभा में प्रश्नकाल का वक्त बदल दिया गया और कार्यवाही शुरू होते ही सबसे पहले शून्यकाल कर दिया गया, ताकि तात्कालिक मुद्दों पर जो कुछ अवरोध होना है वह उसी एक घंटे में खत्म हो जाए और फिर प्रश्नकाल चले। ऐसी ही चर्चा लोकसभा के लिए भी हुई थी। हालांकि यहां यह सवाल रह जाता है कि आखिर शून्यकाल की महत्ता कहां गई? शून्यकाल सीधे-सीधे तात्कालिक मुद्दों से जुड़ा होता है, जिसमें सांसद अपने विशेषाधिकारों से जुड़े मुद्दे भी उठाते हैं। इस बार शून्यकाल थोड़े कम वक्त के साथ बरकरार है।


पंजाब, राजस्थान और बंगाल विधानसभा में भी नहीं हुआ प्रश्नकाल

इतिहास में प्रश्नकाल स्थगित करने के उदाहरण हैं। 1962, 1975, 1976, 1991 में भी कुछ सत्रों में प्रश्नकाल स्थगित हुआ था। हाल में पंजाब, राजस्थान, बंगाल विधानसभा के जो सत्र आयोजित हुए, उनमें भी प्रश्नकाल नहीं हुआ। अगर ऐसा ही संसद में हो रहा है तो फिर इतना हंगामा क्यों? वैसे लिखित सवाल-जवाब अभी भी होंगे। जो चाहे सो सरकार को जवाब देने के लिए बाध्य कर सकता है। जब स्थिति असामान्य हो तो बात सामान्य नहीं हो सकती। यह जरूर है कि संसद में अहम मुद्दों पर बहस जरूरी है। 


कई बार नए सदस्यों के लिए होता है अवसर 

कोरोना, अर्थव्यवस्था, चीन से तनाव आदि विषयों पर सरकार को जवाब देने होंगे। यह देखना अहम होगा कि सोशल मीडिया पर रोज आग उगलने वाले नेता संसद के अंदर क्या आंकड़े पेश करते हैं और कितनी गंभीर बहस करते हैं? इसमें शक है कि ज्वलंत मुद्दों पर ऐसी बहस हो पाएगी, जिससे जनता ज्यादा जागरूक होगी और उसमें ज्यादा समझ पैदा होगी। पिछले कुछ महीनों से जैसी बहस चल रही है, उससे तो यही लगता है कि बहस का स्तर बहुत ऊपर नहीं होगा। जहां तक प्रश्नकाल में पूछे गए सवालों की बात है तो यह लॉटरी से तय होता है कि कौन से 20 सवाल प्रश्नकाल के लिए लगेंगे और बाकी लिखित सवालों के खाते में चले जाएंगे। यह अच्छी बात भी है, क्योंकि किसी मुद्दे पर चलने वाली चर्चा में तो हर दल के खास और वरिष्ठ सांसद ही बाजी मार ले जाते हैं। कई बार ध्यानाकर्षण प्रस्ताव तक में देखा गया है कि पहले वक्ता अपनी बारी किसी वरिष्ठ सदस्य को दे देते हैं। प्रश्नकाल में जिसका प्रश्न वही अधिकारी। कई बार नए सदस्यों के लिए यह एक अवसर होता है।

कोरोना के चलते संसद की कार्यवाही का समय रखा गया सीमित

कहा जा सकता है कि जब संसद चल ही रही है तो फिर प्रश्नकाल से परहेज क्यों? पहली बात तो यह कि कोरोना के कारण संसद की कार्यवाही का समय सीमित रखा गया है और दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि प्रश्नकाल के वक्त संबंधित मंत्री को जरूरी जानकारी उपलब्ध कराने के लिए अधिकारियों की एक लंबी जमात भी सदन के अंदर ही एक कक्ष में मौजूद होती है। क्या कोरोना काल में ऐसा करना उचित है? कोरोना जैसे असामान्य काल में अधिकार से ज्यादा कर्तव्य की बात होनी चाहिए और फिलहाल कर्तव्य यही है कि जिस तरह संवैधानिक बाध्यता पूरी करने के लिए सुरक्षा मानकों के साथ सत्र बुलाया गया है, उसमें हर कोई समय का सदुपयोग करे। सरकार को ऐसे सकारात्मक कदम सुझाए जाएं, जो कोरोना, अर्थव्यवस्था, एलएसी के मुद्दे पर व्यापक बदलाव ला सकें। कम से कम एक बार तो पक्ष-विपक्ष दिखाएं कि वे यह भी कर सकते हैं। यह अवसर है अपनी धूमिल छवि को स्वस्थ और चमकदार बनाने का।

(लेखक दैनिक जागरण के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख हैं)