पंजाब, अमित शर्मा। हाल ही में संपन्न हुए प्रोग्रेसिव पंजाब इन्वेस्टर्स समिट के दौरान देशविदेश से आए निवेशकों के लिए पंजाब को सबसे आदर्श राज्य के रूप में पेश करने का भरसक प्रयास किया गया। ठीक ऐसा ही प्रयास पिछली अकाली-भाजपा गठबंधन सरकार के कार्यकाल में भी हुआ था, लेकिन नतीजे क्या निकले, यह किसी से छिपा नहीं है। 

पिछली बार की तरह ही अबकी बार भी दो दिन में खूब सेमिनार हुए, चर्चाएं हुईं, घोषणाएं भी हुईं और निवेश के दावे भी। लेकिन इसी तमाम हलचल और बड़े-बड़े दावों के बीच कहीं दब कर रह गई एक सेमिनार के बीच उठी वह आवाज जिसने राज्य की उस लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था को परिभाषित करने का प्रयास किया जो न सिर्फ निवेशकों को हतोत्साहित करती रही है, बल्कि राज्य के बिगड़ते आर्थिक और सामाजिक हालात के लिए प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार भी है।

दरअसल ‘कैसे बने पंजाब अगला स्टार्ट अप सेंटर’ विषय पर आयोजित सेमिनार में चर्चा के उपरांत एक युवा उद्यमी ने दो टूक कहा था कि जिस सूबे में ‘सत्ता पक्ष इतना बेजार हो और विपक्ष इस कदर बेहाल’ कि दोनों (पक्ष और विपक्ष के नुमांइदे) जन साधारण के मुद्दे छोड़ अंदरूनी गुटबंदी में उलझ अपने-अपने अस्तित्व की जंग लड़ रहे हों तो ऐसी अवस्था में प्रगति, विकास और वृद्धि जैसे शब्दों के मायने बेमानी हो ही जाते हैं। एक पंक्ति में की गई यह टिप्पणी बेशक अखबारों की सुर्खियां नहीं बन सकी, लेकिन नि:संदेह इसने राज्य में सत्तारूढ़ और विपक्षी दोनों दलों द्वारा निभाई जा रही विनाशकारी भूमिका को उपयुक्त रूप से परिभाषित किया।

पंजाब में आज जहां सत्तासीन कांग्रेस के मंत्रियों, विधायकों और नेताओं में फैले असंतोष का असर सरकार की कारगुजारी में साफ-साफ झलक रहा है, वहीं लोगों के मसलों की आवाज बनने वाला विपक्ष (अकाली- भाजपा और आम आदमी पार्टी) आपसी जंग का शिकार हो इस कदर बेहाल है कि उनका हर कदम ‘अपनी कुर्सी अपनी सीट’ सुरक्षित करने तक ही सिमट गया सा प्रतीत होता है। सत्तारूढ़ पार्टी में तो बेजारी का यह आलम है कि यहां तीन साल में अमरिंदर सिंह सरकार की कारगुजारी को लेकर पार्टी में ही इतना कारगर विपक्ष उभर चुका है कि आने वाले दो वर्षों में शायद सदन में विरोधी दलों की जरूरत ही महसूस न हो।

सरकार बनने के शुरुआती दो वर्षों में अगर पहले नवजोत सिंह सिद्धू थे जो विपक्ष से कहीं पहले अपनी ही सरकार के हर फैसले पर सवाल खड़े करते थे तो अब पिछले चंद महीनों में पार्टी के अनेक विधायक बगावत का झंडा उठा लिए हैं। पार्टी के अंदरूनी मसलों में फंसी सरकार के निराशाजनक प्रदर्शन के विरोध के चलते ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुनील कुमार जाखड़ भी आज पार्टी कार्यकर्ताओं की तीखी आलोचना सुन मंत्रिमंडल में परफॉरमेंस के आधार पर अपेक्षित बदलाव की बात सार्वजनिक तौर पर कबूलने लग गए हैं। हां, प्रदेश के वित्त मंत्री मनप्रीत बादल हर स्तर पर ऐसी विफलता के पीछे घोर वित्तीय संकट का रोना जरूर रोते रहे हैं। लेकिन गत ढाई वर्षों में प्रदेश को वित्तीय संकट से उभारने में उन्होंने क्या ठोस कदम उठाए, इसका जवाब अब उन्हीं की पार्टी के सांसद रवनीत सिंह बिट्टू समेत कई अन्य विधायक सरेआम मांगने लग गए हैं।

लेकिन क्या बिगड़ती आर्थिक स्थिति और विकास सूचकांक पर नीचे सरकती पंजाब की रैंकिंग में केवल सत्तासीन दल का हाथ है? शायद नहीं, क्योंकि एक मजबूत विपक्ष को हमेशा से लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के लिए बेहद जरूरी माना जाता है जो आज यहां पंजाब में पूरी तरह से नदारद है। अलग-अलग गुटों में

बंटा मुख्य विपक्षी दल आम आदमी पार्टी (आप) तीन साल में आपसी तालमेल ही नहीं बिठा पाया और अपनों के बीच ही जोड़-तोड़ में ऐसा अटका कि लोगों के मुद्दों को लेकर सरकार के लिए आज तक कोई ठोस एजेंडा ही तय नहीं कर सका। कुछ ऐसी ही स्थिति रही अकाली-भाजपा गठबंधन की।

बेअदबी और पार्टी में बिखराव के संकटों से जूझते शिरोमणि अकाली दल ने अमरिंदर सरकार के खिलाफ समय-समय पर आक्रामकता तो दिखाई, लेकिन वह जन साधारण व राज्य के विकास और प्रगति पर केंद्रित न होकर अकाली दल के कार्यकर्ताओं का खोया विश्वास जीतने तक ही सीमित रही है। पंजाब का कोई भी संवेदनशील नागरिक इस पीड़ को मशहूर पंजाबी कवि पद्मश्री सुरजीत पातर की इन पंक्तियों में आसानी बयां कर सकता है-लग्गी नजर पंजाब नूं ऐदी नजर उतारो, लै के मिर्चा कौड़ियां इदे सिर तों वारो, सिर तों वारों वार के अग्ग दे विच साड़ो, लग्गी नजर पंजाब नूं ऐदी नजर उता।

[स्थानीय संपादक]