डा. अजय खेमरिया। इन दिनों पुणे में दो इंजीनियरों की सड़क दुर्घटना में हुई मौत और इस हादसे के आरोपित नाबालिग को किशोर न्याय बोर्ड से मिली जमानत पूरे देश में चर्चा का विषय बनी हुई है। चुनावी माहौल में राजनीतिक नजरिये से भी बयानबाजी हो रही है, मगर बुनियादी रूप से जिस पक्ष पर बात होनी चाहिए, वह नदारद है। बात यह है कि क्या किशोर न्याय कानून, 2015 के प्रावधानों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है?

पुणे में किशोर न्याय बोर्ड ने कोई नियम विरुद्ध या विशेषाधिकार का प्रयोग किया ही नहीं, क्योंकि किशोर न्याय कानून मूल स्वरूप में एक सुधारात्मक कानून है, जो 18 साल तक के हर लड़के-लड़की को उसकी हर गलती पर सुधरने का अवसर सुनिश्चित करता है। इस बार किशोर न्याय बोर्ड ने वही किया, जो निर्भया केस में सर्वाधिक दरिंदगी करने वाले नाबालिग आरोपित के साथ किया गया था। देखा जाए तो इस मामले में दो अधिनियम मोटर वाहन कानून और किशोर न्याय कानून प्रभावशील हैं।

मोटर वाहन कानून की धारा 199 (अ) के अनुसार लापरवाही से वाहन चलाकर दुर्घटना करने वाले व्यक्ति को अधिकतम तीन साल की सजा के साथ वाहन का लाइसेंस एक साल के लिए निलंबित होगा। इसमें 25 हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया जा सकता है। पुणे सड़क दुर्घटना मामले में यही प्रावधान लागू होगा, जबकि किशोर न्याय कानून कहता है कि बच्चों के मामले में अपराध को तीन श्रेणियों में देखा जाएगा। मामूली अपराध, जिनमें तीन साल तक की सजा है। गंभीर अपराध, जिनमें तीन से सात साल तक की सजा है। जघन्य अपराध, जिनमें सात साल से ऊपर की सजा के प्रावधान हैं।

पुणे प्रकरण में आरोपी का कृत्य मामूली अपराध की श्रेणी में ही आता है इसलिए सुधारात्मक पहलू लागू हुआ और किशोर न्याय बोर्ड ने आरोपित किशोर को इसी आधार पर जमानत दे दी। स्मरण रहे कि 2012 में जब निर्भया कांड हुआ था, तब ये तीनों श्रेणियां बनाई गई थीं और यह निश्चय किया गया था कि अगर जघन्य अपराध करने वाले किशोर 16 से 18 साल की आयु के हैं तो उन पर वयस्कों की तरह मुकदमा चलाया जा सकता है, लेकिन इसका निर्णय भी किशोर न्याय बोर्ड किशोर न्याय कानून की धारा 15 के तहत विचार करने के बाद ही करेगा। यानी किशोर न्याय बोर्ड अगर जघन्य अपराध में भी किसी किशोर में सुधारात्मक संभावना देखता है तो किसी हत्या और दुष्कर्म के मामले में भी उसे जमानत दे सकता है।

इसके अलावा अगर किशोर न्याय बोर्ड ऐसा मानता है कि किशोर ने जो अपराध किया है, वह उसके प्रभावों से वाकिफ था, तब उस मामले को किशोर न्यायालय में वयस्कों की तरह सुनवाई के लिए भेज सकता है। यहां भी कानून में प्रविधान है कि किशोर न्यायालय उसे मृत्युदंड नहीं दे सकता है, अधिकतम 20 साल की सजा ही सुनाएगा। चूंकि पुणे प्रकरण का आरोपित भी नाबालिग है इसलिए उसे वही छूट मिली, जो मौजूदा किशोर न्याय कानून में है। सड़क पर आदमी को मारने की सजा भारत में तीन साल ही है। इसलिए उसका यह अपराध किशोर न्याय कानून की नजर में जघन्य नहीं है, भले ही पीड़ितों के परिवार उसके इस कृत्य से उजड़ गए हों। जाहिर है इस पूरे मामले में पुलिस किशोर न्याय कानून से बाहर जाकर कार्रवाई नहीं कर सकती है। ज्यादा से ज्यादा वह जिस पब में आरोपित ने शराब पी, उसके संचालक को नाबालिग को शराब परोसने के अपराध में सात साल की सजा दिला सकती है।

एक महत्वपूर्ण पक्ष मोटर वाहन कानून से भी जुड़ा है। इसके हिट एंड रन के कुछ प्रविधानों को जब मौजूदा केंद्र सरकार ने सख्त करने का निर्णय लिया, तब उसका तीखा विरोध हुआ था। यह बताता है कि देश में किसी घटना विशेष पर हायतौबा तो खूब होती है, लेकिन जब कानून के प्रवर्तन की बात आती है तो हम यथास्थितिवाद के साथ खड़े हो जाते हैं। ऐसे में बेहतर होगा कि इस घटना से सबक लेते हुए सरकार मोटर वाहन कानून में वैसे ही सुधार करे, जैसे निर्भया के वक्त नाबालिग के अपराधों को परिभाषित किया गया था।

किशोर न्याय, पोक्सो, महिला सुरक्षा जैसे कानून भी भारत में लागू तो कर दिए गए, लेकिन इनकी भावभूमि भारतीय है ही नहीं। किशोर न्याय कानून उन पश्चिमी देशों की सामाजिक व्यवस्था की उपज है, जहां परिवार नामक संस्था उतनी प्रभावी नहीं। वहां बच्चे दो वयस्कों की एक संविदा का प्रतिफल अधिक होते हैं। इसीलिए वहां 18 साल के बच्चों को कानून की शरण अपने नैसर्गिक विकास के लिए लेनी पड़ती है। भारत में आज भी परिवार संस्था जीवित है और इसके अंदर अभिभावकों और बच्चों के मध्य जिम्मेदारी का भाव तिरोहित नहीं हुआ है। स्पष्ट है मौजूदा कानून परिवार व्यवस्था के साथ बच्चों के लिए सामाजिक जवाबदेही को भी सरकार के पाले में डालता है। बेहतर होगा कि 1989 से शुरू बाल कल्याण की इस अवधारणा को भारतीयता के धरातल पर मूल्यांकित किया जाए।

पुणे में जो घटना हुई, उसे अगर किशोर न्याय के नाम पर छोड़ दिया जाएगा तो इसके दुष्परिणाम भारतीय समाज में बहुत गहरे रूप में होंगे। एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि 2022 में 4,22,659 सड़क हादसे हुए, जिनमें दस प्रतिशत हादसे बच्चों ने किए। समझा जा सकता है कि एक गंभीर चुनौती बच्चों की उद्दंडता और स्वच्छंदता की खड़ी हो रही है। किशोर कानून में अपराधों की श्रेणी को नए सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता तो है ही, मोटर वाहन कानून को भी बच्चों के मामले में सख्त किया जाना चाहिए। इसके साथ ही पोक्सो के मामलों का भी स्वतंत्र रूप से सामाजिक प्रभावोत्पादकता के नजरिये से अध्ययन किया जाए और तत्संबंधी संशोधन हो।

(लोकनीति विश्लेषक लेखक किशोर न्याय बोर्ड के सदस्य रहे हैं)