[ शंकर शरण ]: पुलवामा आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान को सेना, हथियार, कथित सर्जिकल स्ट्राइक आदि से हराने की सोच एक भूल है। याद करें कि पाकिस्तान एक विचार से बना था। विचार को हथियार से कभी नहीं हराया जा सकता! उसे केवल बेहतर विचार से ही हराया जा सकता है। बेहतर विचार सदैव कर्णप्रिय नहीं होते। सत्य मधुर भी होता है, कटु भी। यह ध्यान न रखना भी एक भूल है जो गांधी जी से लेकर आज तक बदस्तूर जारी है। सभी समस्याओं के समाधान के लिए ‘अहिंसा’ से लेकर ‘विकास’ की दलीलें कुछ वैसी ही हैं। पहले हम सच का सामना करना सीखें। अन्यथा परमाणु शक्ति संपन्न होने के बावजूद हम सोवियत संघ की तरह धराशायी हो सकते हैं।

प्रसिद्ध पत्रकार राजेंद्र माथुर ने लिखा था कि भारत में एक पाकिस्तान और पाकिस्तान में एक भारत सदैव बसा है। यह गंभीर सत्य है। भारत की पाकिस्तान समस्या तथा पाकिस्तान की भारत समस्या, दोनों ‘वैदेशिक’ नहीं, आंतरिक समस्याएं हैं। लिहाजा यहां दो देशों के रूप में विचार करना ही भ्रामक है। हम 1947 से जरूर दो (तीन) देश हैं, किंतु यह अस्थाई है। हजारों वर्षों के इतिहास में सत्तर साल कुछ भी नहीं। इसलिए तीनों राज्य भारत-भूमि हैं जहां विराट सभ्यता-संघर्ष चल रहा है। इसका परिणाम वैश्विक महत्व का होगा। अब तक दोनों पक्षों की समझ, नासमझ, संदेह, हिंसक प्रकृति वही हैै जो अतीत में बार-बार दिखी हैै। स्वतंत्रता पूर्व जो भूमिकाएं मुस्लिम लीग, कांग्रेस और ब्रिटिश सत्ता के माध्यम से दिखती थीं, कमोबेश वही तब से भिन्न-भिन्न रूपों में जारी हैैं। मालदा से लेकर मुंबई और श्रीनगर से लेकर गोधरा तक वही कारनामे देश के भीतर भी लोग अंजाम देते रहे हैं।

दुर्भाग्यवश हमने इस सभ्यता संघर्ष को नहीं पहचाना तो उससे निपटने की तैयारी भी नहीं की। पहले स्वतंत्रता संघर्ष में मुस्लिम भागीदारी के लिए कांग्रेस के विफल प्रयासों और बाद में पाकिस्तान से मैत्री के भारतीय प्रयासों में भारी समानता है। समस्या की पहचान, उन पर उचित विमर्श, फिर नीति तय करना न गांधी जी के समय था, न आज है। गांधी जी और कांग्रेस नेतृत्व इस समस्या पर सदैव तात्कालिकता से ग्रस्त रहे। एक ही समस्या बार-बार नए रूप में आती थी। फिर भी उसका आमूल अध्ययन नहीं किया गया। हमेशा किसी तरह तात्कालिक संकट से छुटकारा पाने तथा मूल समस्या से मुंह फेरने की प्रवृत्ति ही रही।

श्रीअरविंद जैसे मनीषी विरले थे जिन्होंने समस्या को आंख मिलाकर देखा और सही समाधान बताया, पर ऐसे स्वरों को जानबूझकर अनसुना किया जाता था। हमेशा कोई ‘वार्ता’ या किसी अन्य उपक्रम के माध्यम से अस्थाई शांति स्थापना का शॉर्टकट हमारी स्थाई कमजोरी रही। यह आसान उपाय की लालसा थी। यह लड़ने से नहीं, सच्चाई से बचने की भीरुता थी जो आज भी यथावत है।

मुस्लिम लीग की अनुचित मांगें स्वीकार कर ‘एकता’ की चाह जितनी दयनीय थी, उससे अधिक समस्या को और बिगाड़ने वाली थी। गांधी जी भी इसे देख नहीं पाए। 1916 के लखनऊ पैक्ट से लेकर 2015 के लाहौर चाय-पकौड़ा तक, ‘समाधान’ कर लेने की वह दुराशा कभी न बदली। इसीलिए जो दृश्य पहले था, वही एक भयंकर विभाजन, अंतहीन दंगों, आतंकी हमलों के बाद भी रूप बदल कर निरंतर चल रहा है। समस्या को किसी पाकिस्तानी नेता के साथ ‘वार्ता’ के बाद कोरी शाब्दिक उपलब्धि की संतुष्टि के रोग से भारत ग्रस्त है। अनगिनत विश्वासघात, आक्रमण और विफलता झेलकर भी पुन: उसी लीक के सिवा कुछ नहीं सोच पाता, क्योंकि समस्या के मूल, वैचारिक, सभ्यतागत संघर्ष की अनदेखी करता है।

यह संघर्ष किन्हीं विदेशी लोगों से नहीं, बल्कि हिंदू सभ्यता के प्रति स्थाई बैर रखने वाले एक विदेशी, साम्राज्यवादी, अधम मतवाद से है। वह हमारे ही लोगों को मतांतरित कर हमसे लड़ता रहा है। यहां सारे मुसलमान पूर्ववर्ती हिंदू ही हैं-यह तो गांधी जी से लेकर फारूख अब्दुल्ला तक बोलते रहे हैं। मगर इसका मतलब क्या है? इसके उत्तर में ही समस्या का समाधान है। इसका उपाय हथियारों में नहीं है।

बल्कि दुश्मन तो चाहता ही है कि यह सैन्य लड़ाई चलती रहे। यही उसके लिए अच्छा है, क्योंकि वह इसके सिवा कुछ नहीं जानता। अन्य पैमानों पर वह एकदम खोखला है। इसे देखने के बदले हम भारत-पाकिस्तान, कांग्रेस-मुस्लिम लीग या हिंदू-मुस्लिम प्रसंग की सभी बातों, बड़े-बड़े ऐतिहासिक तथ्यों तक को छिपाते रहे हैं! ऐसी एकतरफा सेंसरशिप ने हमें अंधेरे में रखा जिसका पीढ़ीगत खामियाजा हमें बार-बार धोखे और हिंसा के रूप में भुगतना पड़ा। इस बीच जैसे ब्रिटिश अपने हित में हमारे विरुद्ध मुस्लिम-लीग कार्ड इस्तेमाल करते थे तो कभी हमसे सहमत होकर लीग पर दबाव डालते थे, वही आज भी हो रहा है।

पाकिस्तान पर यूरोपीय या अमेरिकी निंदा का कोई अर्थ नहीं, जब हमने मिथ्या कल्पनाओं से समाधान की आस पाल रखी है। हमने कभी नहीं सोचा कि पाकिस्तान ऐसा क्यों कर रहा है? वह एक स्वतंत्र मुस्लिम देश बनकर क्यों संतुष्ट नहीं हुआ? ऐसा इसलिए, क्योंकि पाकिस्तान कोई सहज देश ही नहीं है। वह इस्लामी कब्जे वाला भारत ही है। उसे पूरे भारत पर वही कब्जा चाहिए, जिसका उसके अपने शब्दों में ‘कश्मीर केवल दरवाजा भर है।’

वास्तव में पाकिस्तान उस साम्राज्यवादी शत्रु मतवाद का शरीर मात्र है। तभी वह सामान्य देश जैसा आचरण नहीं करता। उसे भारत को तोड़ना है, वरना वह स्वयं टूटेगा। यही विडंबना भारत की भी है। यदि वह इस्लाम को हराकर, कृत्रिम विभाजन खत्मकर पुन: भारतवर्ष की पुनस्र्थापना का लक्ष्य नहीं रखता तो यह और खंडित होगा। आजादी के बाद से असंख्य घटनाओं ने इसकी पुष्टि ही की है।

सिमी, इंडियन मुजाहिदीन और हुर्रियत जैसे तमाम संगठन जिस काम में लगे हैं उसे हम देखकर भी अनदेखा कर रहे हैं। यह उस सभ्यतागत वैचारिक संघर्ष से बचने की चाह है, पर जिस दिन हम इसका सामना करना शुरू दर देंगे उसी दिन से हमारी स्थाई जीत आरंभ होगी। यह खुलकर कहना पूर्णत: अहिंसक, किंतु वैचारिक आक्रमण है कि जिस मतवाद से पाकिस्तान बना था, उसमें कभी कुछ भी अच्छा नहीं रहा है। उसने आज तक अंतहीन मारकाट, गुलामी, तबाही और अशांति के सिवा कुछ नहीं दिया है। इस कटु सत्य को पोप बेनेडिक्ट कह सकते हैं तो हम क्यों नहीं जो इसे सदियों से झेल रहे हैं? अभी तक हम मानसिक रूप से स्वतंत्र नहीं हुए और अपने धर्म और उत्तरदायित्व को नहीं समझे हैं। इसीलिए यह भीरुता और भ्रम है।

यह मूलत: वैचारिक, असैनिक, नितांत अहिंसक युद्ध है। जितना पाकिस्तान से, उतना ही अंदर भी इसे लड़ना होगा। रक्षात्मक नहीं, आक्रामक रूप से लड़ना होगा। यह शत्रु मतवाद के पैरों तले जमीन खिसकाने की लड़ाई है। इसमें उसकी हार अवश्यंभावी है। केवल इसे शुरू करने में हमें अपनी हिचक दूर करनी होगी। इससे कतराना न धर्म है, न लाभकारी। यह सत्यनिष्ठा, स्वाभिमान, मनोबल और चरित्र का युद्ध है। अस्त्र-शस्त्र या कूटनीति उसके बाद आते हैं। यह समझकर इस युद्ध को सरलता से जीत सकते हैं। इसमें हथियारबंद सैनिकों की जरूरत नगण्य पड़ेगी।

( लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं स्तंभकार हैं )