[ साकेत सूर्येश ]: शरद जी रिटायर हो चुके थे। आधार का भय आधारहीन मानकर आधार बनवा चुके थे और इसी आधार पर मिलने वाली पेंशन के जरिये जीवनयापन में जुटे थे। अपने जीवन में वह इतने व्यस्त थे कि जहां चंद बुद्धिजीवी लोकतंत्र पर आए संकट पर चर्चा करते तो वह वहां भी नहीं जाते थे। बहरहाल कॉफी हाउस में एक मलियाली वेटस को जोशी जी के हिंदी लेखक होने का पता चला तो उसने उन्हें ‘यिंदी यिंपोजीशन’ के विरोध में कॉफी देने से मना कर दिया। कहां शरदजी सरस्वती से ब्रह्मप्रदेश तक लिखना चाहते थे और कहां उन्हे बड़े तालाब के उत्तर भाग का लेखक घोषित कर दिया गया। इससे क्षुब्ध जोशी जी अपने बगीचे में टमाटर उगा रहे थे। जानने वाले कहते हैं कि इसके पीछे उनकी मंशा किसान नेता बनने की थी, किंतु उन्हे पता चला कि आधुनिक किसान नेता किसानों को पुलिस के सामने खड़ा कर नानी याद दिलाते है और स्वयं पीछे से दुबककर विदेशी ननिहाल निकल लेते हैं।

जोशी जी ने एक दफा प्रकाशक को पांडुलिपि भेजने के संदर्भ में प्रकाशक से बात की तो उत्तेजित प्रकाशक के रुख से लगा कि फोन से निकलकर ही चमाट मार देगा। वह उद्विग्न होकर बोला, ‘आप हमें संघी प्रकाशक समझे हैं? हम क्यों पांडवों की कथा छापेंगे? हमें न चाहिए पांडुलिपि। पिछली ठंड मे हिंदी विशारद का सागर हिंदू अकादमी से मिला पुरस्कार फासिस्ट सरकार के विरोध में लौटा चुके हैं।’

एक ही वाक्य में प्रकाशक महोदय ने हिंदी ज्ञान और विद्रोही व्यक्तित्व का परिचय दे डाला। शरद जी ने सकुचाते हुए बताया कि महाभारत पर उन्होंने कभी कुछ नहीं लिखा। व्यंग्य संकलन है जिसे प्रकाशित करने के इच्छुक हैं। प्रकाशक ने झिड़क दिया।

‘व्यंग्य का बाजार ही नहीं बचा अब। तमाम आइटी वाले ट्विटर पर व्यंग्य रच रहे। तमाम अभियंता व्यंग्य लेखन मे जुटे हैं तो लेखक कहां से इनोवेशन लाएगा। हिंदी वाले ट्विटर पर व्यस्त हैं। अंग्र्रेजी वालों ने गाली गलौज को व्यंग्य विधा बना रखा है। बहरहाल हास्य की स्थिति पर गमगीन होते हुए प्रकाशक ने शरद जी से पूछा, आप करते क्या हैं?

जोशी जी बोले, व्यंग्यकार हैं।’

‘वह तो समझे पर करते क्या हैं?’

जोशी जी कुछ समझ न पाए। प्रकाशक ने समझाया।

‘देखिए, आप क्रिकेटर हैं, नेता हैं, पत्रकार हैं, समाजसेवी हैं, पुलिस में हैं, सेठ साहूकार हैं, मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, स्वयं अभिनेता है या धनी अभिनेत्री के पति हैं। व्यवसाय क्या है? अब तो हम उन्हीं की किताबें छापते है जो मूलत: लेखक नहीं होते, क्योंकि वही बिकता है। सफल लेखक से अधिक किताबें असफल अभिनेता और छुटभैये नेता की बिकती हैं। आप कुछ तो लेखन के अलावा करते होंगे?’

‘जी, घर के पीछे टमाटर उगाता हूं।’

‘हम आपकी पुस्तक को कृषक लेखक के नाम पर प्रचारित कर सकते हैं। इसमें रोमांस कितनी है?’

‘कतई नहीं।’

‘अरे भाई, कुछ तो बिकने वाला माल लिखते। आप पुराने आदमी हैं, कुछ मसाला डालिए?

‘किंतु, मैं तो समाज पर लिखता हूं।’

‘अरे प्रभु, समाज ही तो लोगों के शयनकक्षों पर कान लगाए बैठा है। उन्हें कुछ तो मसालेदार दें। हिंदी भी शुद्ध लिखते हैं आप, हिंगलिश लिखते तो आपका एक शो करवा देते, किंतु आप तो गाली भी देने को तैयार नहीं हैं। देखिए, दुनिया आगे निकल चुकी है।’

जोशी जी थोड़ी देर शांत रहे। प्रकाशक बोले, ‘एक तरीका है। आप बुद्धिजीवी बन जाएं।’

‘उसके लिए क्या करना होगा?’

प्रकाशक महोदय सोच में डूब गए। अचानक बोले, ‘सबसे पहले तो दाढ़ी बढ़ा लें और ये क्लर्कों जैसे कमीज पहनकर घूमना बंद करें। फैबइंडिया से बढ़िया सा सूती कुर्ता खरीदें। सिगरेट पीते हैं? नहीं पीते तो शुरू कर दें। गांजा मिल जाए तो अति उत्तम। चिलम थामकर सर्वहारा पर चर्चा करें। सरकार को गरियाएं। बीते दिनों आपके इर्दगिर्द कुछ गड़बड़ हुआ?’

‘पड़ोस का पप्पन केले के छिलके पर फिसल गया था। और तो कुछ खास नहीं।’ शरद जी शर्मिंदा से हो गए’

‘उसी पर लेख लिख मारिए।’

‘उस पर क्या? वह तो दुर्घटना थी।’

‘अब यह भी हम बतलावें, लेखक आप हैं। लिखिए, पप्पन का गिरना सामाजिक पतन का सूचक है। सवाल यह नहीं है कि पप्पन गिरा, सवाल यह है कि पप्पन क्यों गिरा। पप्पन फल के छिलके से गिरा, पप्पन यदि मांस खाता तो फल न खाता, छिलका न होता और पप्पन संभवत: न गिरता। हम पप्पन को तो गिरता हुआ देख रहे है, किंतु पप्पन का गिरना अपने आप में एक घटना नहीं है, सामाजिक पतन का सूचक है। ।’

शरद जी समझ न पाए कि क्या कहें। उन्होंने धीमे से फोन रख दिया।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]