[अशोक भगत]। आज पूरी दुनिया कोरोना महामारी जनित लॉकडाउन और उससे प्रभावित अर्थव्यवस्था को एक बार फिर से गति प्रदान करने के लिए नए-नए तरीकों की तलाश में जुटी है। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी छिपी हुई आर्थिक ताकतों को या फिर जिन उपायों की व्यापक अनदेखी की, उन्हें समङों। दशकों से आदिवासी गांवों में रहकर रोजमर्रा की जरूरतों का समाधान खोजने के अपने अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूं कि अब अर्थव्यवस्था के वैश्विक चक्र के साथ ही हमें स्थानीय स्तर के अर्थचक्र को वैकल्पिक समाधान की राह में अपनाना होगा।

उत्पादन, बिक्री, बाजार और रोजगार के नेटवर्क को कायम रखते हुए हमें उन संभावनाओं पर भी गौर करने की जरूरत है, जो इन सबसे परे हैं। गांवों और विशेष रूप से आदिवासी गांवों में बहुत सारे ऐसे उत्पादों का भी निर्माण होता है, जिनका कोई बाजार नहीं होता और न ही बड़े पैमाने पर उनकी बिक्री होती है। इनका उत्पादन स्थानीय उपयोगिताओं के आधार पर होता है और उत्पादन के साथ ही स्थानीय खपत की सटीक गारंटी भी होती है। इससे बड़ी आबादी का जीवन निर्वाह भी होता रहता है।

देश में आज भी करोड़ों लोगों की आजीविका का यही आधार भी है। कुम्हार के काम, बांसशिल्प निर्माण, बढ़ईगिरी, खाद्य उद्योग और मधुमक्खी पालन जैसे काम के लिए न तो बाजार की तलाश और न ही पूंजी की जरूरत है। प्राकृतिक चिकित्सा भी ऐसा ही विकल्प है जो लोगों की जेब पर बोझ बढ़ाए बिना उनके जीवन की आशा बढ़ा देता है। अर्थव्यवस्था के ग्राफ चढ़ने और उनके गोते लगाने से भी इनका बहुत रिश्ता नहीं है। हमें संकट की इस घड़ी में अपनी अर्थव्यवस्था के इस देसी आधार को सहारे के रूप में अपनाने की जरूरत है। इसके लिए स्थानीय स्तर पर सघन नेटवर्क बनाने की आवश्यकता है। नीति आयोग से लेकर राज्य सरकारों और स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं तक को इस बारे में सोचना चाहिए।

शहरों से गांवों की ओर बढ़ रहे प्रवासी मजदूरों को कुछ दिनों के आराम के बाद फिर से शहरों में रोजगार की तलाश में जाने के लिए मजबूर करना भी न्यायसंगत नहीं होगा। उनके कौशल के आधार पर स्थानीय स्तर पर ही उनके लिए रोजगार के साधन उपलब्ध कराएं। वैकल्पिक अर्थरचना के निर्माण में इनकी सहायता ली जा सकती है। कोई बायोगैस प्लांट बना सकता है तो कोई तरह-तरह के शिल्प के जरिये शहरों के रोजगार गांव में खींच सकता है। गांवों की अर्थव्यवस्था की धुरी बनकर ये लोग क्रयशक्ति के विकास के जरिये महानगरों या बड़े शहरों के औद्योगिक केंद्रों के लिए बाजार का व्यापक आधार दे सकते हैं।

दशकों पहले असुविधाओं के भंवर में पिसकर शहर की ओर पलायन करने वाले लोगों को अपने गांव में कोई आर्थिक रचना शुरू करने में अब मामूली दिक्कत ही आएगी, क्योंकि भारत के गांव भी सड़कों से अच्छी तरह से जुड़ गए हैं। लगभग हर गांव में बिजली है। शहरों की तुलना में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की खाई को पाटना जरूर बाकी है। इसलिए गांव आधारित वैकल्पिक आर्थिक पुनर्रचना की रणनीति हमारी अर्थव्यवस्था को भी हमेशा के लिए संजीवनी दे सकती है। कृषि की बेहतरी और इजरायल की तरह कृषि पर आधारित उद्योगों के जरिये बेहतर भविष्य की कल्पना भी इसी में निहित है। हमारे उद्योगपतियों को भी इस दिशा में पहल कर शहरों की जगह गांव में उद्योग लगाने को प्राथमिकता देनी चाहिए। ऐसी पहल उत्पादन लागत को कम करने के साथ ही दूरगामी विकास और समृद्धि की रूपरेखा का निर्माण करेगी।

प्रखंड स्तर पर सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क की स्थापना से सूचना तकनीक के समावेशीकरण की दिशा में मील का पत्थर कायम हो सकता है। प्रधानमंत्री आवास योजना में तेजी लाकर भी मजदूरों को रोजगार की दिशा दी जा सकती है। श्रम आधारित उद्योगों के विकास के अलावा कृषि में भी सिंचाई के साधनों को बढ़ावा देकर रोजगार के नए अवसर पैदा किए जा सकते हैं। हमें गांव के स्तर पर अर्थव्यवस्था के विकास के लिए सहकारीकरण की प्रक्रिया के जरिये पूंजी जुटाने पर खास तौर पर ध्यान देना चाहिए। खासकर ईंट भट्ठों के संचालन, लघु खनिजों के पट्टे और बालू के खनन की जिम्मेदारी मजदूरों की सहकारी सहयोग समितियों को सौंपी जा सकती है। इनसे स्थानीय खपत के लिए उत्पादन के साथ ही वृहद बाजार की संभावनाओं का भी विकास किया जा सकता है। राज्य या जिला स्तर पर विशेषज्ञों की समिति गठित कर इसके लिए चरणबद्ध कार्ययोजना तैयार किए जाने की जरूरत है। इसमें विज्ञान केंद्रों की सहभागिता भी अहम है।

गांव को अर्थव्यवस्था की धुरी बनाने का शंखनाद तो महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई के वैकल्पिक हथियार के तौर पर पहले ही कर दिया था। आजादी के बाद उनके प्रिय शिष्य और अर्थशास्त्री जेसी कुमारप्पा ने देश भर का सघन दौरा कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को दीर्घकालिक रणनीति के रूप में अपनाने का सैद्धांतिक अधिष्ठान प्रदान किया। तोप के मुकाबले चरखे का हथियार गांव को आर्थिक केंद्र बनाने का ही अस्त्र था। संकट के इस काल में दुनिया भर में समाधान के नए-नए रास्ते सुझाए जा रहे हैं। भारत में विकास और समृद्धि की संभावनाओं से ग्रहण छंटने के लिए समांतर नीतियों की पैरोकारी हो रही है। ऐसी अवस्था में हम क्यों न काल की कसौटी पर बार-बार खरे उतर चुके गांधी की राह पर फिर से चलकर अपनी अर्थव्यवस्था को फिर से जीवनी शक्ति दें। हमारी वन संपदा, हमारे प्राकृतिक संसाधन, पीढ़ियों से प्राप्त हुनर, देसी की चाहत, स्थानीय की जरूरत और घर-घर की खपत इसका आधार बनेगी। हमारी छिपी संभावनाएं उभरेंगी और विकेंद्रीकरण के सपनों के बीच बाजार के आंकड़ों का ग्राफ भी उड़ान भरेगा।

[पद्मश्री से सम्मानित और विकास भारती, बिशुनपुर के सचिव]