[सुशील कुमार मोदी]। पिछले एक दशक में बिहार ने अभूतपूर्व सामाजिक-आर्थिक प्रगति की है जिसमें राज्य की नीतिगत संरचना और कुशल र्थिक-वित्तीय प्रबंधन की अहम भूमिका रही है। इसमें संदेह नहीं कि राज्य के विकास कार्यों में वित्त आयोग की सिफारिश के आधार पर मिलने वाले केंद्रीय करों में हिस्सेदारी और आर्थिक अनुदान का विशेष योगदान होता है। देश में वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी व्यवस्था लागू किए जाने तथा वित्तीय प्रशासन में योजना आयोग की भूमिका कम होने के बाद यह पहला वित्तीय आयोग है और संभावित तौर पर यह पहले के मुकाबले ज्यादा बहुआयामी और प्रभावी होगा। पंद्रहवें वित्त आयोग के टम्र्स ऑफ रेफरेंस में 1971 के स्थान पर 2011 की जनगणना को आधार बनाए जाने का केरल, कर्नाटक जैसे राज्यों ने विरोध किया है। केरल का यह भी कहना है कि इन राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रित की है, इसके बावजूद 1971 के बजाय 2011 की जनसंख्या को आधार बनाकर उन्हें दंडित किया जा रहा है और अनियंत्रित जनसंख्या वाले राज्यों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। 2011 को आधार बनाने से उनके वित्त आयोग के माध्यम से मिलने वाली सहायता और कम हो जाएगी।

साथ ही कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने यह भी कहा है कि दक्षिण-पश्चिम के राज्यों की केंद्रीय करों में हिस्सेदारी ज्यादा होने के बावजूद उन्हें वित्त आयोग की सिफारिश द्वारा काफी कम राशि दी जाती है। उदाहरण के रूप में महाराष्ट्र को केंद्रीय करों में प्रति रुपये योगदान के बदले 15 पैसे, कर्नाटक को 47 पैसे मिलते हैं वहीं बिहार को 4.20 रुपये एवं उत्तर प्रदेश को प्रति रुपये के योगदान के बदले 1.79 रुपये मिलते हैं। वित्त आयोग की सिफारिशों में जनसंख्या की तुलना में आय अंतर (सर्वाधिक प्रति व्यक्ति आय वाले राज्य से संबंधित राज्य में प्रति व्यक्ति आय का फासला) को सर्वाधिक वजन दिया गया है। 12वें और 13वें वित्त आयोग ने 1971 की जनगणना के आधार पर जहां जनसंख्या को 25 प्रतिशत तथा 14वें में मात्र 17.5 फीसद का वजन दिया वहीं आय अंतर को 11वें वित्त आयोग ने 62.5 प्रतिशत तथा 12वें और 14वें ने 50 प्रतिशत वजन दिया। यानी बिहार, उप्र जैसे राज्यों की दक्षिण-पश्चिमी राज्यों की तुलना में ज्यादा हिस्सेदारी मिली तो उसका कारण जनसंख्या नहीं, बल्कि उन राज्यों की प्रति व्यक्ति आय का तुलनात्मक रूप से काफी कम होना है।

दक्षिण और पश्चिम भारत के राज्यों का केंद्रीय करों में योगदान ज्यादा होने का एक बड़ा कारण अधिकांश औद्योगिक घरानों का मुख्यालय उन राज्यों में होना है। यद्यपि इन औद्योगिक घरानों के उत्पाद पूरे देश में बेचे जाते हैं और इनकी आमदनी में देश के अन्य राज्यों का अहम योगदान है, परंतु मुख्यालय होने के कारण ये घराने उस राज्य में कर भुगतान करते हैं। एक पिछड़ा राज्य होने के कारण बिहार का कर-जमा अनुपात 43.15 प्रतिशत है। वर्ष 2017-18 में बिहार के बैंकों में तीन लाख 12 हजार करोड़ रुपये जमा थे, जिसके आधार पर बैंकों ने बिहार में मात्र एक लाख 27 हजार करोड़ रुपये का ऋण दिया यानी बिहार के बैंकों में जमा एक लाख 85 हजार करोड़ रुपये का इस्तेमाल दूसरे राज्यों में हुआ। यदि यह धनराशि बिहार में ही निवेशित होती तो राज्य की अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने में काफी मदद मिलती। दक्षिण और पश्चिम राज्यों के बेहतर विकास और आर्थिक संपन्नता के ऐतिहासिक कारण भी हैं। समुद्री तट की मौजूदगी, अंतरारष्ट्रीय व्यापार में निर्णायक भूमिका, औद्योगीकरण, सामाजिक आंदोलन, आजादी के पूर्व से ही शिक्षा-स्वास्थ्य के बजट में ज्यादा खर्च आदि के कारण इन राज्यों का अधिक विकास हुआ, जबकि पूर्वी और उत्तरी राज्यों के ऐतिहासिक पिछड़ेपन के बावजूद इन राज्यों के विकास के लिए आजादी के प्रारंभिक वर्षों में विशेष प्रावधान नहीं किए गए, परिणामत: ये राज्य प्रगति की दौड़ में पिछड़ गए।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 280 के अनुसार हर पांच साल पर वित्त आयोग का गठन देश की आर्थिक स्थिति के संदर्भ में राज्यों के बीच आर्थिक असमानता को कम करने के दृष्टिकोण से किया जाता है। इस विषमता को दूर करने के लिए जिन राज्यों की प्रति व्यक्ति आय ज्यादा है उनकी केंद्रीय करों में हिस्सेदारी ज्यादा होने के बावजूद उन्हें वित्त आयोग की सिफारिश पर पिछड़े राज्यों की तुलना में कम राशि मिलती है और पिछड़े राज्यों को ज्यादा हिस्सेदारी मिलती है ताकि सभी नागरिकों को समान सेवा मिल सके। 15वें वित्त आयोग की संवैधानिक जिम्मेदारी बनती है कि केंद्र और राज्यों के बीच करों को विभाजित किए जाते समय यह सुनिश्चित करे कि ऐतिहासिक कारणों से पिछड़ गए राज्यों को उनकी जनसंख्या और पिछड़ेपन के अनुपात में पर्याप्त संसाधन मिलें ताकि प्रति व्यक्ति आय और विकास के विशाल अंतर को पाटा जा सके।

(लेखक बिहार के उप मुख्यमंत्री एवं जीएसटीएन पर

गठित उपसमिति के प्रमुख हैं)