[ज्ञानेंद्र रावत]। पिछले दो माह से लगभग समूचा उत्तर भारत भीषण गर्मी से त्रस्त है। भीषण गर्मी के चलते होने वाली बीमारियों से मरने वालों का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। इस गर्मी और चिलचिलाती जानलेवा धूप का दुष्परिणाम ओजोन प्रदूषण में बढ़ोतरी के रूप में सामने आया है। विडंबना यह कि एक ओर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और पर्यावरण पर काम करने वाली संस्था ‘सफर’ दिल्ली एनसीआर सहित समीपस्थ राज्यों में हवा में ओजोन की मौजूदगी का दावा कर रही है।

वहीं हमारे केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर इसके विपरीत यह दावा कर रहे हैं कि दिल्ली एनसीआर की हवा इतनी भी खराब नहीं जितनी मीडिया बता रहा है। उनका कहना है कि मीडिया ऐसी तस्वीर पेश कर रहा है जिससे यह लग रहा है कि प्रदूषण की वजह से लाखों लोगों की मौत हो रही है। यह हमारे देश के कर्णधारों की सोच का एक सबूत भी है। यह तब है जब विश्व स्वास्थ्य संगठन स्पष्ट रूप से कह चुका है कि भारत और चीन में वायु प्रदूषण का स्तर अमेरिका से कई गुना अधिक है।

हमारे देश के मौजूदा हालात बयां कर रहे हैं कि इस गर्मी से मैदान ही नहीं, पहाड़ भी अछूते नहीं हैं। दिल्ली और उसके समीप के इलाकों की हवा में पीएम 10 और पीएम 2.5 से भी ज्यादा खतरनाक प्रदूषक कण यानी ओजोन की मात्रा रिकार्ड की जा रही है। यह खतरनाक तो है ही, साथ ही सतह पर पाए जाने वाले ओजोन कण मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत ही खतरनाक हैं। ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट’ की मानें तो चिलचिलाती धूप की किरणें वाहनों से निकलने वाले धुएं से प्रतिक्रिया करके ओजोन के प्रदूषक तत्व बनाते हैं। यह स्थिति भयावहता की ओर इशारा करती है।

यदि आइआइएम अहमदाबाद की रिपोर्ट की मानें तो देश के उत्तरी राज्यों में आने वाले दिनों में भीषण गर्म हवाओं का खतरा बढ़ जाएगा। बीते 50 सालों में लू चलने वाले दिनों की संख्या और इससे मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। ‘क्लाइमेट ट्रेंड’ की अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन के चलते तेज गरम हवाएं जो पहले अप्रैल महीने में चलती थीं, अब मार्च माह में ही चलनी शुरू हो गई हैं। जाहिर है यह सब जलवायु परिवर्तन का नतीजा है।

जलवायु में भीषण परिवर्तन मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ा खतरा बन गया है। वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि बिजलीघरों, फैक्ट्रियों और वाहनों में जीवाष्म ईंधनों के जलने से पैदा होने वाली ग्रीन हाउस गैस ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है ग्रीन हाउस गैसों का पर्यावरण में फैलाव तथा जंगलों की बेहिसाब कटाई। मालूम हो कि वृक्ष कार्बन डाईऑक्साइड को सोख लेते हैं और ऑक्सीजन प्रदान करते हैं। वे कार्बन डाईऑक्साइड भी उत्पन्न करते हैं, पर सोखने और उत्पन्न करने की निरंतर प्रक्रिया से वे कार्बन डाईऑक्साइड का संतुलन बनाए रखने में सहयोग देते हैं। वृक्षों के अभाव में जितनी भी कार्बन डाईऑक्साइड पर्यावरण में छोड़ी जाती है, वह वहीं जमा होती रहती है और उसकी बढ़ोतरी तापमान में वृद्धि करती है और मौसम का मिजाज दिन-ब-दिन गर्म करती है।

यह गर्माहट यदि इसी तरह बढ़ती रही और पृथ्वी के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों की बर्फीली चादरें यदि पिघलने लगीं, तो समुद्र की सतह ऊपर उठ जाएगी और अनेक छोटे द्वीप जो समुद्र की ऊपरी सतह से कुछ ही ऊंचे हैं, समुद्र में डूब जाएंगे। साथ ही वातावरण में पहले की तुलना में कार्बन डाईऑक्साइड का संकेद्रण 30 प्रतिशत से ज्यादा हुआ है, जो मानवीय स्वास्थ्य के लिए कई तरह से घातक साबित हो सकता है।

जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर ओजोन परत पर पड़ा है जिससे उसके लुप्त होने का खतरा मंडराने लगा है। दरअसल वायुमंडल के ऊपरी हिस्से में लगभग 25 किमी की ऊंचाई पर फैली ओजोन परत सूर्य की किरणों के खतरनाक अल्ट्रावायलेट हिस्से से पृथ्वी के जीवन की रक्षा करती है। लेकिन यही ओजोन गैस जब धरती के वायुमंडल में आ जाती है तो हमारे लिए जहरीली गैस के रूप में काम करती है। यदि हवा में ओजोन का स्तर काफी अधिक हो जाए तो बेहोशी और दम घुटने की स्थिति आ सकती है। मौसम के बदलाव से कहीं प्रचंड गर्मी तो कहीं प्रचंड सर्दी ने मानवीय स्वास्थ्य को बुरी तरह से प्रभावित किया है।

गर्मी बढ़ने से हवा में प्रदूषण के रूप में मौजूद कार्बन मोनोऑक्साइड व नाइट्रोजन डाईऑक्साइड जैसी गैसों के तत्व टूट कर हवा में मौजूद ऑक्सीजन से प्रतिक्रिया करते हैं। इससे ओजोन गैस बनती है। हवा में ओजोन का स्तर बढ़ने से उसकी गुणवत्ता खराब होती है। तब अन्य प्रदूषक तत्वों की अपेक्षा ओजोन आसानी से शरीर में प्रवेश कर अंगों को प्रभावित करती है। प्रचंड गर्मी ओजोन के रूप में नई मुश्किलें पैदा कर रही है जो हवा में ओजोन के स्तर बढ़ने से पैदा हुई है। यह समस्या सांस से जुड़ी बीमारियां, उल्टी आने, चक्कर, थकान बढ़ने और रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने की मुख्य वजह साबित हो रही है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार जिस रफ्तार से ओजोन परत की क्षति हो रही है, उससे प्रत्येक वर्ष त्वचा कैंसर के तीन लाख अतिरिक्त रोगी पैदा होंगे और फसलों को नुकसान पहुंचेगा।

वर्ष 1988 में मॉन्ट्रियल कन्वेंशन में इस संबंध में एक समझौता किया गया था जिसमें ओजोन के लिए खतरनाक गैसों के प्रयोग एवं रिसाव में 90 फीसद की कटौती का प्रस्ताव था, लेकिन इससे समस्या का समाधान नजर नहीं आता दिख रहा है। सारा दोष उपभोगवादी संस्कृति का है जिसने प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन, शोषण व बर्बादी को जन्म दिया। उपभोगवादी संस्कृति के विकास व प्रसार का मनोवैज्ञानिक पहलू भी है जो इसके अर्थशास्त्र, राजनीति व समाजशास्त्र से अधिक महत्वपूर्ण है। आज भौतिक समृद्धि ही सम्माननीय बन गई है। सोच और व्यवहार की इस क्रिया को इंसान यदि स्वयं नहीं बदलेगा, तो एक दिन प्रकृति उसे बदलने पर बाध्य कर देगी। समय की मांग है कि हम उपभोगवादी प्रवृत्ति को त्यागकर पृथ्वी को शस्य, श्यामला और समस्त चराचर जीवों के लिए सुरक्षित बनाएं, तभी ओजोन की रक्षा संभव है। और ओजोन की रक्षा से ही हमारी रक्षा होगी।

[लेखक एवं पर्यावरणविद्]