हर्ष वी पंत

क्या पुरानी विश्व व्यवस्था ध्वस्त हो रही है और नई विश्व व्यवस्था आकार ले रही है? अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आइसीजे) में न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर संयुक्त राष्ट्र में हुए हालिया निर्वाचन का घटनाक्रम तो यही इंगित कर रहा है। यहां मुख्य मुकाबला पुरानी विश्व शक्ति ब्रिटेन और उभर रही विश्व शक्ति भारत के बीच ही था। चुनाव में दोनों ने अंत तक मजबूती से अपने-अपने पांव जमाए रखे, लेकिन अंतत: ब्रिटेन को अपने कदम पीछे खींचने को मजबूर होना पड़ा। इस प्रकार ब्रिटेन द्वारा चुनाव से अपने प्रत्याशी क्रिस्टोफर ग्रीनवुड का नाम हटाने के बाद भारत के जस्टिस दलवीर भंडारी नौ वर्ष के लिए अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में न्यायाधीश के तौर पर पुन: निर्वाचित हो गए। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय संयुक्त राष्ट्र का मुख्य वैधानिक निकाय है। इसकी स्थापना 1945 में हुई थी। इसमें 15 जज होते हैं। इसका काम विभिन्न देशों के बीच हुए विवादों का अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुसार निपटारा करना होता है।


निर्वाचन के दौरान दोनों के बीच आखिर तक मुकाबला बेहद नजदीकी बना रहा। पहले 11 दौर में संयुक्त राष्ट्र महासभा के दो तिहाई सदस्यों के भंडारी के पक्ष में मतदान करने के बावजूद सुरक्षा परिषद में ब्रिटेन की उम्मीद जिंदा थी। उसमें भंडारी को पांच के मुकाबले ब्रिटेन के ग्रीनवुड को बाकी सदस्यों के वोट मिलते रहे। हालांकि कानूनी प्रावधान ब्रिटेन के खिलाफ होने के बावजूद कुछ लोगों का मानना था कि ब्रिटेन अपने उम्मीदवार की जीत के लिए ‘ज्वाइंट कांफ्रेंस व्यवस्था’ का सहारा लेगा, लेकिन आखिर में उसने अपने प्रत्याशी का नाम वापस ले लिया और इस तरह से भारत के लिए आगे की राह आसान बना दी। दरअसल उसको इस बात का डर था कि बहुमत के फैसले को नजरअंदाज करना उसके खिलाफ जा सकता है। जर्मनी और फ्रांस जैसे उसके यूरोपीय सहयोगियों के अलावा अमेरिका ने भी उसे आगाह किया कि भारतीय उम्मीदवार के बढ़ते समर्थन के कारण उसका उम्मीदवार हार सकता है और उसकी छवि को भारी नुकसान पहुंच सकता है। इस प्रकार चुनाव में भंडारी को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। देखा जाए तो न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय में हुए निर्वाचन में भंडारी को संयुक्त राष्ट्र महासभा के 193 में से 183 वोट मिले और सुरक्षा परिषद के भी सभी 15 वोट हासिल हुए। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भंडारी को बधाई दी और उनके पुनर्निर्वाचन को भारत के लिए गौरव का क्षण बताया। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने ट्वीट किया-‘वंदे मातरम, भारत ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के चुनाव को जीत लिया है। जय हिंद।’ उन्होंने आगे कहा कि ‘यह विदेश मंत्रालय की पूरी टीम की कड़ी कोशिशों का नतीजा है। संयुक्त राष्ट्र में हमारे स्थाई प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन इसके लिए विशेष रूप से बधाई के पात्र हैं।’
चुनाव खत्म होने के बाद संयुक्त राष्ट्र में ब्रिटेन के स्थाई प्रतिनिधि मैथ्यू रेकॉफ ने कहा, ‘चूंकि चुनाव में ब्रिटेन नहीं जीत सका, फिर भी हमें खुशी है कि हमारे नजदीकी मित्र भारत को इसमें सफलता हासिल हुई। हम भारत के साथ संयुक्त राष्ट्र में और विश्व स्तर पर सहयोग जारी रखेंगे।’ बहरहाल भारत की इस जीत के महत्व को नजरअंदाज नहीं कर सकते। ब्रिटेन द्वारा अपने कदम वापस खींचना बताता है कि संयुक्त राष्ट्र न्यायालय में 71 वर्षों में पहली बार ब्रिटेन का कोई न्यायाधीश नहीं होगा। इसके साथ ही हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के इतिहास में भी यह पहली बार है कि सुरक्षा परिषद के एक स्थाई सदस्य के उम्मीदवार की एक अस्थाई सदस्य के उम्मीदवार के हाथों हार हुई हो। ब्रेक्जिट के बाद चौतरफा उथल-पुथल के दौर में घिरे ब्रिटेन के लिए फिलहाल यह कोई बड़ा मुद्दा भले न हो, लेकिन दीर्घकाल में उस पर इसके व्यापक नकारात्मक प्रभाव देखने को मिलेंगे। दरअसल विश्व स्तर पर ब्रिटेन की छवि कमजोर होती जा रही है और लग नहीं रहा है कि वह इन चुनौतियों से पार पाने के लिए आने वाले कुछ दिनों के दौरान कड़े फैसले लेगा। अभी बीते हफ्ते ही यूरोपीय मेडिसिन एजेंसी (ईएमए) ने अपने दफ्तर को लंदन से हटाकर एम्सटर्डम और यूरोपियन बैंकिंग अथॉरिटी (ईबीए) ने पेरिस ले जाने का निर्णय किया। इसके बाद से ही वहां के वित्तीय तंत्र में बड़ी मात्रा में नौकरियां खत्म होने पर बहस छिड़ी हुई है। हालांकि ब्रिटेन में बहुत से ऐसे लोग हैं जो ‘वैश्विक ब्रिटेन’ का नया दौर लाना चाहते हैं, लेकिन बाकी दुनिया अभी भी उसे संशय की नजर से देख रही है और उसे ऐसे देश के तौर पर पा रही है जो तेजी से आत्मकेंद्रित होता जा रहा है।
अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ब्रिटेन को अपने उम्मीदवार का नाम वापस लेने के लिए विवश होना पड़ा तो इसका श्रेय भारत की चुस्त और आक्रामक कूटनीति को भी जाता है। भारतीय कूटनीतिज्ञों और शीर्ष नेताओं ने चुनाव प्रक्रिया में न सिर्फ गहरी रुचि ली, बल्कि अपनी कूटनीतिक सूझबूझ का कहीं बेहतर तरीके से इस्तेमाल भी किया। मेरे विचार में यह कुछ ऐसा ही था जैसे कि ब्रिटेन उस दौर में ऐसी कूटनीति करता था जब दुनिया में उसकी तूती बोलती थी। अब यह भारत का समय है। भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर बड़ी भूमिका निभाने के लिए पूरी तरह तैयार है। यह चाहता है कि जहां कहीं भी जरूरत हो या संकट का समय आए उसे इसकी क्षमता के अनुसार अवसर मिले। पहले भारत में ऐसी भूख नहीं थी, लेकिन नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद से भारत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह अपनी योग्यतानुसार संघर्ष में विश्वास करता है। अर्थात जिस क्षेत्र में वह समर्थ है उसमें वह बड़ी भूमिका निभाने का इच्छुक है। बहरहाल नई दिल्ली यह मुकाबला जीतना चाहती थी और इसके लिए उसने हर परिस्थितियों का फायदा उठाया। भारतीय कूटनीति में यह आक्रामकता एक तरह से ताजातरीन है। हालांकि यह हमेशा काम नहीं करती है या कहें कि प्रभावी नहीं होती है। जैसे कि अपनी विदेश नीति के शीर्ष एजेंडे में रखने और तमाम कोशिशों के बावजूद भारत परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में शामिल होने में सफल नहीं हो पा रहा है। परंतु जब यह काम करती है जैसे कि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के मामले में, तो बताता है कि वास्तव में विश्व मंच पर एक नया भारत उभर रहा है। अब यह जोखिम से भागने वाला देश नहीं रहा है, बल्कि उसका खुलेआम सामना करना चाहता है। कुल मिलाकर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में हुए निर्वाचन के दौरान भी दुनिया इस बात की साक्षी रही कि विश्व शक्तियों के उत्थान और पतन से किस तरह विश्व व्यवस्था अपना स्वरूप बदलती है।
[ लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं ]