प्रदीप सिंह

राजनीति सिर्फ यही तय करती है कि किसके पास ताकत है। वह यह नहीं तय करती कि सच्चाई किसके साथ है। देश और दुनिया ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के दस साल के शासन में इस कथन को चरितार्थ होते हुए देखा। राजनीतिक सत्ता की ताकत से कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार और उसके रहनुमाओं ने झूठ का एक संजाल खड़ा किया। यह था भगवा आंतकवाद का। देश और दुनिया में बढ़ते इस्लामिक आतंकवाद से निपटने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व को लगा कि हिंदू आतंकवाद का विमर्श खड़ा करके मुस्लिम समुदाय को खुश किया जा सकता है। आतंकवाद के जिन मामलों में सरकार के लिए कार्रवाई से बचना मुश्किल हो रहा था उसकी राजनीतिक आंच से बचने के लिए उसे यह रास्ता नजर आया। इसके साथ ही वह भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिंदू आतंकवाद की जनक और पोषक के रूप में पेश करना चाहती थी। मनमोहन सिंह सरकार ने ऐसा माहौल बना दिया था कि देश का बहुसंख्यक समाज पीड़ित महसूस करने लगा। उसका जवाब लोगों ने 2014 के लोकसभा चुनाव में दिया। अपनी योजना को अमली जामा पहनाने के लिए कांग्रेस सरकार ने भारतीय सेना के एक अधिकारी (लेफ्टीनेंट कर्नल पुरोहित), एक साध्वी( प्रज्ञा ठाकुर) और स्वामी (असीमानंद) को अपना मोहरा बनाया। इसके लिए समझौता ब्लास्ट में शामिल पाकिस्तानी आतंकियों को देश से निकल जाने दिया और अपने ही देश के नागरिकों को फंसा दिया। समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट और मालेगांव धमाके में फर्जी तरीके से फंसाए गए इन तीनों पर लगाए गए आरोपों को अदालत के समक्ष सही साबित करना मुश्किल हो रहा है। पहले साध्वी प्रज्ञा मालेगांव मामले से बरी हुई और अब लेफ्टीनेंट कर्नल पुरोहित को जमानत मिल गई। यह धारणा कहीं अधिक गहरा गई है कि संप्रग सरकार ने इन सबको इसलिए फंसाया ताकि वह इस्लामिक आतंकवाद के बरक्स हिंदू आतंकवाद का एक विमर्श खड़ा कर सके।
दरअसल कांग्रेस आज भी वहीं खड़ी है जहां वह 1986 में शाहबानो के मामले में थी। ऐसे हर मुद्दे पर कांग्रेस और अपने को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले दलों की नजर मुस्लिम कट्टरपंथियों के रुख पर रहती है। इसी रवैये ने 1986 में शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद में बदलवाया। पता नहीं क्यों उसे मुस्लिम कट्टरपंथियों को खुश रखने में ही अपना राजनीतिक भविष्य नजर आता है? राजनीतिक दल जब कोई ऐसा काम करता है जो अनुचित और अनैतिक हो तो वह राजनीतिक दल न होकर सत्ता प्राप्ति के लिए षडयंत्र का एक औजार बनकर रह जाता है। साल 2004 से 2014 के बीच कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली सरकार की यही भूमिका रही। दुख की बात यह है कि उस सरकार का नेतृत्व डॉ. मनमोहन सिंह कर रहे थे। चाणक्य के मुताबिक दुष्ट लोग जितना नुकसान करते हैं उससे ज्यादा अच्छे, लेकिन निष्क्रिय लोग करते हैं। मनमोहन सिंह ने अपना जो किया सो किया, लेकिन देश का बहुत नुकसान किया। इससे भी ज्यादा अफसोस की बात यह है कि उन्हें इसका कोई पछतावा नहीं है। उनकी अगुआई में देश की सुरक्षा एजेंसियों से लेकर हर संस्था की अवमानना हुई या फिर उसका दुरुपयोग हुआ, लेकिन उन्हें इसका कभी कोई मलाल नहीं हुआ। प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में गलत नहीं कहा था कि डॉक्टर साहब रेनकोट पहन कर नहाने की कला जानते हैं।
एक समय तो ऐसा भी आया जब लोगों के मन में सवाल उठने लगा कि क्या हिंदू इस देश के दूसरे दर्जे के नागरिक हो गए हैं? कांग्रेस और अपने को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले दलों ने 1996 में 13 दिन की सरकार का इस्तीफा देते हुए संसद में अटल बिहारी वाजपेयी की चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया। वाजपेयी ने कहा था कि देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज अल्पसंख्यक मानसिकता का शिकार हो गया है। उन्होंने कहा था कि इस पर चर्चा होनी चाहिए, लेकिन इस राजनीतिक इदारे ने उनकी बात को नजरअंदाज किया। उसका नतीजा सबके सामने है। सोचिए कि जब देश का प्रधानमंत्री (मनमोहन सिंह) कहे कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है तो ऐसी आशंकाओं का जन्म लेना स्वाभाविक है। जब देश की सत्तारूढ़ पार्टी का वारिस अमेरिकी राजदूत से कहे कि भारत को इस्लामी आतंकवाद से ज्यादा हिंदू आतंकवाद से खतरा है तो इसके क्या मायने निकाले जाएं? एक तरफ हिंदू आतंकवाद का झूठा शिराजा खड़ा किया जा रहा था तो दूसरी ओर बाटला हाउस एनकाउंटर को फर्जी बताया जा रहा था। देश का कानून मंत्री एक आमसभा में बोल रहा था कि बाटला हाउस एनकाउंटर की फोटो देखकर सोनिया गांधी रो पड़ीं। कांग्रेस के स्वनामधन्य नेता दिग्विजय सिंह को 2008 के मुंबई हमले में आरएसएस का हाथ नजर आ रहा था। कांग्रेस पिछले 13 साल के दिग्विजय सिंह के बयानों को इकट्ठा करके देख ले तो समझ में आ जाएगा कि पार्टी की यह दुर्दशा क्यों हुई? तब मुसलमानों को रिझाने की ऐसी होड़ लगी कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ हिंदू विरोध बन गया। आलम यह था कि सिख आतंकवाद बोला जा सकता है और हिंदू आतंकवाद तो जरूर ही बोला जाना चाहिए, लेकिन जैसे ही इस्लामिक आतंकवाद की बात आए तो कहा जाता है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। ऐसा करने वालों से बड़ी गलती यह हुई कि उन्होंने देश के आम लोगों की समझ पर शक किया। उन्हें लगा कि लोग वही देखेंगे जो वे दिखाएंगे, उसी पर भरोसा करेंगे जो वे कहेंगे। यह नेहरू और इंदिरा गांधी के समय का सिंड्रोम था। वे भूल गए कि गांधी परिवार का यह तिलिस्म 1977 में टूटा तो टूटता ही गया। कल्पना कीजिए कि कांग्रेस अपने इस कुत्सित प्रयास में सफल हो गई होती तो देश का क्या होता?
लेफ्ट लिबरल और सेक्युलर बिरादरी को 2014 से भी बड़ा झटका लगा 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे से। पहले लोकसभा चुनाव और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे ने मुस्लिम वोटों के वीटो को खत्म कर दिया। छह दशकों से चली आ रही इस धारणा को तोड़ दिया कि मुस्लिम वोट के बिना आप चुनाव में कुछ सीटें तो जीत सकते हैं पर सत्ता में नहीं आ सकते। मुस्लिम मतदाताओं ने अब तक उसे वोट दिया जो भाजपा को हरा सके। इस रणनीतिक मतदान के जरिये वह भाजपा को सत्ता से बाहर रखने में कामयाब रहा, लेकिन अब भाजपा को हरा सकने वाले ही हारने लगे हैं और वह भी मुस्लिम समर्थन के बावजूद।
लेफ्टीनेंट कर्नल पुरोहित की जमानत पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया से लगता है कि वह न तो गलती स्वीकार करने को तैयार है और न ही उससे कुछ सीखने को। धर्मनिरपेक्ष बिरादरी यह नहीं समझ पाई कि तीन तलाक के मुद्दे को लैंगिक समानता का मुद्दा बनाकर पीएम मोदी ने मुस्लिम महिलाओं के बड़े वर्ग की न केवल सहानुभूति बटोरी, बल्कि इस मुद्दे को धर्म से अलग कर दिया। भाजपा विरोधी अब भी कोर्ट के अल्पमत फैसले में अपने लिए मुद्दा खोज रहे हैं। विडंबना देखिए कि प्रगतिशील कहे जाने वाले सुधार के मुद्दों के विरोध में खड़े हैं और रूढ़िवादी समझे जाने वाले सुधार के पक्ष में।
[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]