[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: सदियों से चले आ रहे अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को देश ने जिस सहिष्णुता के साथ स्वीकार किया था उसके चलते अपेक्षा यही थी कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के समारोह के साथ देश में सामाजिक सद्भाव को और अधिक सशक्त बनाने की पहल आगे बढ़ेगी। ऐसी ही कोशिश की गई और वह प्रधानमंत्री के संबोधन से प्रकट भी हुई, लेकिन दुर्भाग्य से खळ्द को उदारवादी और सेक्युलर कहने वालों की नकारात्मक सोच इस ऐतिहासिक अवसर को भी अपने पूर्वाग्रहों के कारण ओछी राजनीति के चश्मे से ही देख रही है। उनके लिए यह केवल एक और मंदिर का निर्माण है। वे राम और उनके जन्मस्थान की महत्ता को समझने से जानबूझकर इन्कार कर रहे हैं। वे यह देखने से भी बच रहे हैं कि राम के प्रति आस्था किसी पंथ विशेष तक सीमित नहीं है।

सांप्रदायिकता की धुरी पर राजनीति करने वालों को राम मंदिर निर्माण में हो रही प्रगति रास नहीं आ रहा

आखिर इस देश में रामकथा किसे प्रेरित नहीं करती? राम मंदिर निर्माण में हो रही प्रगति और लोगों का असीम उत्साह उन लोगों को भी रास नहीं आ रहा जो सांप्रदायिकता की धुरी पर ही अपनी राजनीति करते रहे। उन्हें इस पर आपत्ति है कि कुछ विपक्षी नेताओं ने राम मंदिर निर्माण समारोह पर खुशी जताई। उनकी ओर से यह साबित करने की भी कोशिश हो रही है कि जो भी राम और उनके नाम पर बनने वाले मंदिर के प्रति अपनी आस्था व्यक्त कर रहा है वह घोर सांप्रदायिक है। उनकी मानें तो प्रगतिशील वही जो राम मंदिर का विरोध करे। उनकी ओर से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राम मंदिर के खिलाफ किया जा रहा दुष्प्रचार देश की विविधता की स्वीकार्य परंपरा को नकारने वाला है। वे यह देखने से इन्कार कर रहे हैं कि इस देश में प्रत्येक समुदाय के लोग किस प्रकार सदियों से सहयोग करते आए हैं और उन्होंने किस तरह यह दिखाया कि वे एक लंबे विवाद को सुलझाकर दुनिया के समक्ष उदाहरण रख सकते हैं।

विभेदकारी तत्व अपनी दूषित मानसिकता का आसानी से परित्याग नहीं करने वाले

आशा की किरण यह है कि देश की जनता ने ऐसे नकारात्मक लोगों को पहचान लिया है, जो सेक्युलरिज्म के नाम पर विद्वेष फैलाने और मतभेद पैदा करने के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं। हालांकि जनता इन विभेदकारी तत्वों की अनदेखी कर रही है, लेकिन उनसे सतर्क रहना होगा, क्योंकि वे अपनी दूषित मानसिकता का आसानी से परित्याग नहीं करने वाले।

राम के राजधर्म में कोई पराया हो ही नहीं सकता

अयोध्या का राम मंदिर इतिहास के एक नए कालखंड को परिभाषित कर सकने की क्षमता रखता है। यह अवसर भारत की सद्भावना, सहभागिता, विश्वबंधुत्व और विविधता की निर्बाध स्वीकार्यता की संस्कृति को वैश्विक पटल पर सशक्त स्वरूप में स्थापित करने के लिए अभूतपूर्व संभावना के रूप में प्रस्तुत हुआ है। राम के राजधर्म में कोई पराया हो ही नहीं सकता। उसमें तो ‘सर्वभूत हिते रत:’ ही प्राथमिकता पाएगा। मेरी अपेक्षा है कि राम मंदिर प्राचीन भारतीय संस्कृति, उसकी मान्यताओं, उसकी सार्वभौमिकता, ज्ञानार्जन की परंपरा और मनुष्य और प्रकृति के पारस्परिक संबंधों की अद्भुत समझ और व्यावहारिकता और आध्यात्मिकता जैसे विषयों की आज के संदर्भ में उपयोगिता और आवश्यकता को विश्व पटल पर उद्घाटित करने का उत्तरदायित्व निभाए।

शिक्षा साथ-साथ मिलकर रहना सिखाती है

आज शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ साथ-साथ मिलकर रहना सीखना ही माना जाता है। राम मंदिर केंद्र को वैश्विक समस्याओं को सामने रखकर और उनका विश्लेषण कर केवल भारत में ही नहीं, विश्व में यह प्रेरणा देनी होगी कि श्रद्धा, शांति, सहजता, धीरज, सेवा जैसे तत्व जब तक सारे विश्व में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा स्वीकार्य नहीं हो जाते, विश्व शांति और सद्भावना की अभिलाषा एक यूटोपिया मात्र बनी रहेगी।

भविष्य की अयोध्या वसुधैव कुटुंबकम का केंद्र बन सकती है

आज की आवश्यकता यह है कि मनुष्य अपने जीवन की सार्थकता के सत्य से परिचित हो और अपने विवेक का सदुपयोग हर परिस्थिति में करने को तैयार रहे। यह किसी आदेश से संभव नहीं हो सकता। इसके लिए एक परिवेश तैयार करना होगा। वसुधैव कुटुंबकम की व्यावहारिकता से हर व्यक्ति को प्रारंभिक जीवन से परिचित करना होगा। भविष्य की अयोध्या इसका केंद्र बन सकती है। नि:संदेह राम मंदिर एक श्रद्धा केंद्र तो बनेगा ही, उसे अध्यात्म और सद्भावना केंद्र के साथ संस्कृति के नव-प्रवाह का उद्गम स्थल बनाने की भी पहल होनी चाहिए। ध्यान रहे हर पंथ को बराबर का सम्मान देते हुए पंथिक असहिष्णुता को समाप्त करने की क्षमता भारतीय संस्कृति में ही है। इसे उन सभी विदेशी विद्वानों ने भी स्वीकार किया है जिन्होंने भारतीय संस्कृति का अध्ययन किया है।

सम्राट अशोक और महात्मा गांधी का अहिंसा का सिद्धांत मानवजाति को बचा सकते हैं

मानव इतिहास के इस सबसे अधिक खतरनाक क्षण में मानवजाति की मुक्ति का यदि कोई रास्ता है तो वह भारतीय है। सम्राट अशोक और महात्मा गांधी का अहिंसा का सिद्धांत और श्री रामकृष्ण परमहंस के धार्मिक सहिष्णुता के उपदेश ही मानवजाति को बचा सकते हैं। यहां हमारे पास एक ऐसी मनोवृत्ति और भावना है जो मानवजाति को एक परिवार के रूप में विकसित होने में सहायक हो सकती है। अपनी विश्व प्रसिद्ध रचना ‘स्टोरी ऑफ सिविलाइजेशन’ में इतिहासकार विल दुरां ने लिखा था कि आज के हर विद्यार्थी के लिए यह शर्म की बात यही होनी चाहिए कि वह भारत से पूरी तरह परिचित नहीं है। दुर्भाग्य यह है कि भारत में ही ऐसी कोई नियमित व्यवस्था नहीं है।

हमें ऐसी पीढ़ियां तैयार करनी होंगी जो अपनी संस्कृति को समझें

हमें ऐसी पीढ़ियां तैयार करनी होंगी जो अपनी संस्कृति को समझें और उसका सम्मान करने के साथ ही अन्य सभी का आदर करना भी सीखें। आज विश्व की कितनी ही समस्याएं पंथिक धर्मांधता से जुड़ी हैं। कितने लोग इसी कारण हिंसा और युद्ध में जीवन खो रहे हैं। इसका सामना नाभिकीय हथियारों से नहीं हो सकेगा। इसके लिए अध्यात्म के तत्व को हर बच्चे और युवक तक ले जाना होगा।

नकारात्मक तत्वों का मिलकर प्रतिकार किया जाना चाहिए

आज के विश्व में मेरा पंथ ही सर्वोत्तम है और सभी को उसी में आना है, जैसी धारणाएं केवल अज्ञान और रूढ़िवादिता की निरंतरता ही मानी जाएंगी। इससे विश्व को बचाना होगा। इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए असीम आत्मबल और साहस चाहिए। यह किसी सत्ता-केंद्र से नहीं आएगा। यह अध्यात्म-केंद्र से प्रारंभ होकर स्वीकार्यता तक पहुंचेगा। इसके बिना विश्व शांति का सपना पूरा होने की कोई संभावना बनेगी ही नहीं। इस संभावना को पुष्ट करने के लिए यह भी आवश्यक है कि उन नकारात्मक तत्वों का मिलकर प्रतिकार किया जाए जो प्रगतिशीलता की आड़ में दुराग्रह का परिचय देते हुए माहौल को दूषित कर रहे हैं।

( लेखक शिक्षा एवं सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं )