उन्नति की इच्छा सभी में होती है। इसके लिए मनुष्य सारा जीवन, सारी ऊर्जा और बुद्धिमत्ता लगा देता है। फिर भी सफल जीवन को परिभाषित करना कदाचित सबसे कठिन है। जिसे मनवांछित नहीं मिला, वह पाने के लिए आतुर है। जिसे मिल गया वह और अधिक के लिए व्याकुल है। किसी के भी जीवन में स्थिरता नहीं है। यह सिलसिला अंतहीन है। शायद ही किसी ने कहा हो कि बस अब और कुछ नहीं चाहिए। सामान्यत: उन्नति की कामना सुख प्राप्त के लिए की जाती है, किंतु यह स्पष्ट नहीं होता कि कितना और कैसा सुख हो। यह नहीं पता होता कि कहां रुक जाना है। सुख की अस्पष्ट कल्पना ही दुख का कारण बनती है। किसी के लिए रूप, यौवन, किसी के लिए जायकेदार भोजन, किसी के लिए धन, संपत्ति, किसी के लिए पद, प्रतिष्ठा, किसी के लिए विद्वता में सुख है। ये सारे स्रोत लोभ, मोह, अहंकार बढ़ाने वाले हैं। सफलता से प्राप्त पल भर का आनंद कब अहंकार में बदल जाता है मनुष्य को पता ही नहीं चलता। दुखों से पार पाने के लिए जीवन में आगे बढ़ना है। दुख न रहें, यह जीवन की वास्तविक उपलब्धि है। दुख का विकल्प संतोष है, सुख नहीं। जब संतोष आ जाता है तब दुख स्वत: पलायन कर जाते हैं। इसके लिए स्वयं को काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे विकारों की कैद से मुक्त करना होता है।
विकारों से मुक्त होना जीवन में आगे बढ़ना है। संतोष का भाव धारण करना जीवन में आगे बढ़ना है। यह सोच को सही दिशा में लगाने से ही संभव है। संसार में दो तरह के राज्य चल रहे हैं। एक ईश्वर का राज्य है। यह भले ही अदृश्य है, किंतु वास्तविक और सर्वाधिक शक्तिशाली है। दूसरा राज्य मनुष्य द्वारा स्थापित किया हुआ है। मनुष्य का राज्य दृष्टिमान है, किंतु चंचल है। मनुष्य जब ईश्वर के राज्य को स्वीकार कर लेता है तो मन के भटकाव दूर हो जाते हैं। वह ईश्वर के न्याय पर भरोसा करता है और निश्चिंत हो जाता है। इससे संतोष की निर्विकार अवस्था बनने लगती है। संसार ने सदा इस अवस्था को प्राप्त करने वालों का सम्मान किया है। भारत समेत दुनियाभर में जितने भी संत या महापुरुष हुए हैं, वे सभी संतोष की निर्विकार अवस्था का आनंद लेते रहे हैं। भारतीय धर्मग्रंथों में भी कहा गया है कि संतोष ही परम सुख है।
[ डॉ. सत्येंद्र पाल सिंह ]