[ आशुतोष झा ]: अभी-अभी संसद का मानसून सत्र खत्म हुआ है जिसने पिछले लगभग बीस वर्षों का रिकार्ड ध्वस्त कर दिया। कारण क्या है- लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर संसद में बहुत कामकाज हुआ। वह संसद जिसका काम ही है ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा करना और जरूरी कानून बनाना, वहां ऐसा हुआ तो यह हमारे लिए उपलब्धि है..? विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के नाते हम इस पर गर्व करें या अफसोस करें कि यह समझना मुश्किल है। खैर, यह तो समझ में आ गया कि हर एक विवाद का समाधान है। बड़ी गंभीर स्थिति हो या घोर चुनावी माहौल, उसमें भी संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चल सकती है। शर्त इतनी है कि सत्तापक्ष और विपक्ष इसके लिए तैयार हो। मानसून सत्र ने इसकी राह दिखा दी।

यह और बात है कि इस बार भी तैयारी केवल राजनीतिक दांवपेच की थी। इसमें विपक्ष चूक गया और सत्तापक्ष ने ऐन वक्त पर गेंद को लपक लिया। ऐसे में क्या यह भरोसा किया जा सकता है कि भविष्य में भी संसद सत्र उतना ही सफल हो जितना इस बार हुआ? तीन महीने बाद ही चार राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव को तो 2019 के लोकसभा चुनाव के सेमीफाइनल के रूप में देखा जा रहा है। ऐसे में जब सत्र शुरू हुआ था तो विपक्ष और खासकर कांग्रेस महंगाई, लिंचिंग यानी भीड़ र्की ंहसा, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, दलित उत्पीड़न जैसे कई मुद्दों के साथ तैयार थी। जैसा अक्सर होता है यही मुद्दे पूरे सत्र में छाने वाले थे, क्योंकि हर चुनाव इन्हीं विषयों पर लड़े जाने की बात होती है।

आरोप प्रत्यारोप का दौर चलता है और एक दूसरे को आईना दिखाया जाता है, लेकिन कांग्रेस चूक कर गई। रणनीति के स्तर पर भी और नेतृत्व क्षमता के मानक पर भी। पहले ही दिन विपक्ष की ओर से सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया और कुछ चौंकाने वाले अंदाज में सरकार ने न सिर्फ उसे स्वीकार किया, बल्कि दो दिन के अंदर ही उस पर चर्चा कराकर वोटिंग भी करा दी। जाहिर है कि विपक्ष के आधा दर्जन से ज्यादा मुद्दे बारह घंटे में खत्म हो गए। राजनीतिक रूप से यह कांग्रेस की भयंकर भूल थी, क्योंकि सरकार के संख्याबल को देखते हुए उसका जीतना तय ही था, यह विपक्ष को भी पता था।

टीडीपी जैसे क्षेत्रीय दल को जरूर इसका कुछ लाभ मिल जाए, लेकिन कांग्रेस का हाथ न सिर्फ खाली रहा, बल्कि जल भी गया। जिस सत्र को कांग्रेस अपने चुनावी अभियान और विपक्षी महागठबंधन का आधार बनाने वाली थी वहीं से पार्टी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल खड़ा हो गया। एक पखवाड़े में ही दो बार मुंह की खानी पड़ी। राज्यसभा में उपसभापति चुनाव में कांग्रेस का नेतृत्व कठघरे में खड़ा हो गया। दरअसल बार-बार यह साबित हुआ है कि कांग्र्रेस विपक्षी दलों को एक नहीं कर सकती है। अगर आम आदमी पार्टी जैसा छोटा दल और उसमें दूसरी और तीसरी पांत के नेताओं की ओर से कांग्रेस अध्यक्ष पर सीधी उंगली उठाई गई तो समझा जा सकता है कि कांग्रेस किस कदर फिसली।

शायद यही कारण है कि आखिरी एक दो दिनों में खोई हुई सियासी जमीन हासिल करने की कोशिश हुई। जो सत्र सुचारू चल रहा था वह बाधित हुआ। खासकर आखिरी दिन खुद संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी को सामने आना पड़ा। महात्मा गांधी की प्रतिमा के आगे खड़े होकर वह प्रदर्शन का नेतृत्व करती देखी गईं। मुद्दा बना राफेल खरीद जिसे कांग्रेस राजग सरकार के लिए बोफोर्स बनाना चाहती है।

हालांकि यह देखना रोचक होगा कि कांग्रेस के अंदर कितना बड़ा वर्ग इससे सहमत है, क्योंकि पहले दिन से लेकर आखिरी दिन तक कांग्रेस असमंजस में दिखी। पहले तो खुद राहुल गांधी ने इसे भ्रष्टाचार बताया और पूरे देश में राजनीतिक मुद्दा बनाने का संदेश दिया, क्योंकि उन्होंने साफ-साफ कहा कि फ्रांस के राष्ट्रपति से बात हुई है और उन्होंने कहा कि राफेल की सच्चाई पूरे देश को बताओ मुझे कोई एतराज नहीं। लेकिन राहुल ने किसी जांच की बात नहीं की थी। कुछ दिन बाद एक कांग्रेस नेता ने संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी जांच की मांग सामने रखी, लेकिन बाकी कांग्रेसी चुप रहे। बाद में कांग्रेस ने एक सुर से जेपीसी की मांग की। इस बीच दूसरे विपक्षी दलों के लिए राफेल बड़ा मुद्दा नहीं रहा। जाहिर है कि महागठबंधन भी सवालों में रहा।

मानसून सत्र की सफलता का मुख्य कारण यही है। यह कहना बहुत अनुचित नहीं होगा कि मुख्य विपक्ष का मनोबल ध्वस्त हो गया था। ऐसे में जब सरकार की ओर से सामाजिक न्याय से जुड़े व जनोपयोगी विधेयक लाए गए तो विपक्ष के पास समर्थन के अलावा कोई चारा नहीं था। सार्थक बहस एक तरह से मजबूरी थी और इसी दबाव में कांग्रेस को ओबीसी आयोग विधेयक पास करते वक्त अपने ही एक ऐसे संशोधन को रद भी करना पड़ा जिसे राज्यसभा में पार्टी ने पारित किया था। यह दबाव न होता तो मानकर चलिए कि असम में एनआरसी जैसे मुद्दे पर तृमणूल कांग्रेस के शोर-शराबे को और बल मिलता। जो भी हो, यह समझ में आ गया कि संसद को सुचारू चलाना हो तो सभी विवादित मुद्दे शुरुआत के दो तीन दिनों में निपटा दिए जाने चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे राज्यसभा में प्रश्न काल को सुचारू करने के लिए शून्यकाल सबसे पहले लिया जाने लगा है, लेकिन इसके लिए विपक्ष और सत्तापक्ष दोनों को बड़ा दिल दिखाना होगा।

इस बार सरकार ने अविश्वास प्रस्ताव के लिए हामी भर दी थी। रणनीति के तहत ही सही और वह सफल भी हुई तो सत्ताधारी भाजपा अपनी पीठ थपथपाते हुए भी दिखी। वरना कोई भूला नहीं है कि पिछले सत्र के आखिरी दस-बारह दिन अविश्वास प्रस्ताव को लेकर कैसे राजनीति हुई थी। सरकार किसी की भी रही हो और विपक्ष में कोई भी दल किसी भी संख्याबल के साथ हो, ऐसा कोई सत्र नहीं गुजरा जब आधा सत्रकाल भी सुचारू रूप से चला हो। इस बार तो ठीक सामने चुनाव है, फिर भी बीस साल का इतिहास टूटना आशा जगाता है। राजनीतिक दल अगर चाहें तो संसद चुनावी मैदान से अलग ऐसी महान संस्था के रूप में दिख सकती है जहां बात उपलब्धि तक सीमित न रहे, बल्कि मानक स्थापित हो सके।

[ लेखक दैनिक जागरण के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख हैं ]