[ सुरेंद्र किशोर ]: वर्ष 1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि ‘अब हर सुबह अखबारों में एक सुंदर चेहरा देखने को मिलेगा।’ कांग्रेस इससे खुश थी कि एक महान पिता की पुत्री होने का उसे चुनावी लाभ मिल जाएगा। चीन के हाथों अपमानजनक पराजय और अन्य कई कारणों से कांग्रेस और उसकी सरकार पस्त थी। सरकार के प्रति असंतोष बढ़ रहा था। जहां-तहां जन आंदोलन हो रहे थे। लाल बहादुर शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। यानी मुश्किल वक्त में कांग्रेस को एक नया चेहरा मिल गया। हालांकि शुरुआत में इंदिरा गांधी चुनाव में कोई खास करिश्मा नहीं दिखा पाईं। कांग्रेस ने 1967 के चुनावी घोषणा पत्र में समृद्धि लाने का वादा किया। गरीब देश के लिए यह बड़ा वादा था। चूंकि ऐसी किसी सरकारी पहल का इंदिरा गांधी सरकार का कोई इतिहास नहीं था इसलिए लोगों ने सिर्फ वचन पर भरोसा नहीं किया।

जो लोग न्यूनतम आय गारंटी के राहुल गांधी के वायदे से उत्साहित हैं उन्हें 1967 का चुनावी इतिहास याद कर लेना चाहिए। 1967 के चुनाव में कांग्रेस को लोकसभा की 283 सीटें मिलीं जबकि 1962 में उसे 361 सीटें मिली थीं। ऐसा तब हुआ जबकि इस दौरान लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ गई थी। यही नहीं, देश के सात राज्यों में भी कांग्रेस चुनाव हार गई। स्मरण रहे कि 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ होते थे।

वर्ष 1967 के आम चुनाव के कुछ ही महीनों के भीतर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में कांग्रेसियों के दल-बदल के कारण पार्टी की चुनी हुई सरकारें भी गिर गईं। इससे उत्तर प्रदेश में चरण सिंह और मध्य प्रदेश में गोविंद नारायण सिंह मुख्यमंत्री बने। ऐसे में 1967 से सबक लेकर 1969 में जब इंदिरा गांधी ने जन कल्याणकारी मुद्दों से पार्टी और खुद की सरकार को जोड़ा तो उन्हें 1971 के चुनाव में भारी सफलता मिली। 1971 में कांग्रेस को लोकसभा की 352 सीटें मिलीं। इसका पूरा श्रेय इंदिरा गांधी को गया। उनके ‘गरीबी हटाओ’ के नारे को बड़ी संख्या में लोगों ने पसंद किया। जो लोग सिर्फ चेहरे के आधार पर प्रियंका गांधी से कुछ उम्मीद कर रहे हैं वे इंदिरा गांधी के इस इतिहास को भी जान लें तो बेहतर।

1969 में कांग्रेस में महा विभाजन हुआ था। कांग्रेस संगठन से जुड़े लगभग सारे बड़े नेता मूल कांग्रेस में रह गए। इंदिरा गांधी ने अपनी कांग्रेस(आई) बना ली। इसके बाद उन्होंने गरीबी हटाओ के नारे को पूरा करने के मकसद से 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। राजा-महाराजाओं को मिलने वाले प्रिवीपर्स भी खत्म कर दिए। गरीबों को लगा कि इंदिरा गांधी हमारी गरीबी हटाने के लिए ही अमीरों के खिलाफ कार्रवाई कर रही हैं। जनता को बाद में भले धोखा मिला हो, लेकिन इंदिरा गांधी ने खुद को जन कल्याणकारी मुद्दों से जोड़ लिया था। वह उनका प्रतीक बन गई थीं।

आगामी चुनाव में प्रियंका गांधी को बताना होगा कि वह और उनकी पार्टी कौन से जन कल्याणकारी मुद्दों की प्रतीक हैं। यदि वह ऐसा कुछ साबित कर सकीं तभी बात बनेगी, अन्यथा वही हश्र होगा जो 1977 के चुनाव में हुआ था। तब आपातकाल के बाद हुए आम चुनाव में सत्ता कांग्रेस के हाथ से निकल गई थी। तब लोगों के जेहन में बस आपातकाल की ज्यादतियां थीं। लोगों को यह भी कुपित कर रहा था कि गरीबी हटाओ का नारा देने वाली इंदिरा गांधी कैसे अपने बेटे संजय गांधी के लिए मारुति कार का कारखाना लगवाने में जुटी हैं।

कांग्रेस सरकार ने 2004 से 2014 तक जो किया उसका नतीजा उसे 2014 में मिल चुका है। उसके बाद कांग्रेस की चर्चा इस बात के लिए अधिक हो रही है कि उसके कितने नेताओं के खिलाफ मुकदमे चल रहे हैं। कितने नेता जमानत पर हैं। इसी क्रम में रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ मामलों की भी चर्चा है। कांग्रेस के पास नया कुछ भी नहीं है। हालांकि इंदिरा गांधी को 1969 में नया मुद्दा पकड़ने में समय नहीं लगा था, क्योंकि उनके पास पहल करने के लिए अपनी सरकार थी। वहीं 1977 में गठित मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार ने भी इंदिरा गांधी को मौका तश्तरी में पेश करके दे दिया। जब सत्तारूढ़ जनता पार्टी के तीन शीर्ष नेता आपस में लड़ने लगे और देश में राजनीतिक अस्थिरता की नौबत आ गई तो लोगों ने एक बार फिर इंदिरा गांधी को याद किया। इंदिरा गांधी 1980 के लोकसभा चुनाव के बाद दोबारा सत्ता में आ गईं तो उनके पास राजनीतिक स्थिरता का नारा था। यह तब बड़ा मुद्दा बन गया था।

आज कांग्रेस के पास कौन सा लोकलुभावन मुद्दा है? हां, विभिन्न गैर राजग दलों से गठजोड़ का रास्ता जरूर है। उसके लिए वह प्रयासरत है। लगता है कि मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को मुद्दे गढ़ना भी नहीं आता। हालांकि उससे जुड़ने का सुबूत जनता को तब मिलेगा जब सत्ता में रहकर उस दिशा में कोई जन कल्याणकारी निर्णय किया जाए।

जवाहरलाल नेहरू तो आजादी की लड़ाई के नायक थे। उनके बारे में लोगों में यह धारणा थी कि सुखमय जीवन छोड़कर उन्होंने संघर्ष का रास्ता चुना था। स्वतंत्रता सेनानियों के पुण्य प्रताप से कांग्रेस को आजादी के बाद के तीन-चार चुनावों में कोई दिक्कत नहीं हुई। मगर जब भ्रष्टाचार बढ़ा और साथ ही लोगों की समस्याएं भी तो कांग्रेस सरकारों की कठिनाइयां बढ़ने लगीं। आज तमाम कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप में चल रहे मुकदमों की चर्चा है। ऐसे में प्रियंका कैसे करिश्मा दिखा पाएंगी? करिश्मा दिखाने का ऐसा अवसर राजीव गांधी को जरूर मिला था। 2004 से 2014 तक जब करिश्मा दिखाने अवसर मिला था तब कांग्रेस के अधिकांश शीर्ष नेता दूसरे ही कामों में लगे थे।

अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआती दौर में राजीव गांधी ने गंभीर मुद्दों से खुद को जोड़ा। खासकर भ्रष्टाचार विरोधी मुद्दों से। यह और बात है कि बाद में वह उस पर कायम नहीं रह सके। राजनीति में सक्रिय होते ही उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की। उन दिनों कांग्रेस के तीन मुख्यमंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे। उन्हें हटा दिया गया तो कहा गया कि राजीव गांधी की पहल पर ऐसा हुआ। 1984 में प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने सत्ता के दलालों के खिलाफ भी आवाज बुलंद की। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने ही पहली बार देश को बताया कि सरकार दिल्ली से जो 100 पैसे भेजती है वे जमीन पर पहुंचते-पहुंचते 15 पैसे ही बचते हैं। इससे सरकारी भ्रष्टाचार से त्रस्त लोगों को लगा कि राजीव भ्रष्टाचार हटाने के प्रति गंभीर हैं, लेकिन बोफोर्स मामले में घोटालेबाजों का बचाव करने से यह मुद्दा भी उनके हाथ से फिसल गया।

आज स्थिति यह है कि प्रियंका गांधी के पास न तो गरीबी हटाओ जैसा नारा है और न ही सत्ता के दलालों के खिलाफ अभियान जैसा कोई मुद्दा। उन्हें विरासत में जो मुद्दे मिल रहे हैं वे काफी विवादास्पद हैं। दलीय गठबंधन का जरूर आसरा है। उस दिशा में भी क्या और कितना हो पाएगा, यह आने वाले कुछ हफ्ते बताएंगे। ठीक ही कहा गया है कि मुद्दों के ईंधन के बिना राजनीति में परिवारवाद की गाड़ी नहीं चल सकती।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )