प्रदीप सिंह। आखिरकार प्रियंका गांधी राजनीति में आ ही गईं। उन्हें कांग्रेस महासचिव बनाने के साथ ही पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया गया है। क्या यह कांग्रेस का तुरुप का पत्ता है या हताशा में उठाया गया कदम? जो भी हो, प्रियंका अपने साथ अच्छा और बुरा दोनों लेकर आई हैं। उनके रूप में कांग्रेस को एक नया स्टार प्रचारक मिल गया है, लेकिन रॉबर्ट वाड्रा और वंशवाद का बैगेज भी लेकर आई हैं। प्रियंका के आने से कांग्रेस कार्यकर्ताओं में नया जोश आएगा। लोकसभा चुनाव की सबसे बड़ी लड़ाई उत्तर प्रदेश में लड़ी जानी है। उत्तर प्रदेश में अब तिकोना संघर्ष तय है। भाजपा को कांग्रेस पर हमला करने का एक और मुद्दा मिल गया है। प्रियंका के आने से एक बात फिर से स्थापित हो गई है कि कांग्रेस परिवार की पार्टी थी, है और रहेगी।

लोकसभा चुनाव के कुछ महीने पहले प्रियंका का सक्रिय राजनीति में आने के दो प्रमुख मकसद नजर आते हैं। एक, राहुल गांधी को कवर देने के लिए। अमेठी में राहुल गांधी की जमीन खिसक रही थी। ऐसी भी अटकलें हैं कि राहुल गांधी शायद अमेठी से चुनाव न लड़ें, क्योंकि स्मृति ईरानी अमेठी में राहुल पर भारी पड़ती दिख रही थीं। दूसरा उत्तर प्रदेश में और खासतौर से पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को घेरा जा सके। कांग्रेस के नजरिये से यह रणनीति तो अच्छी है, लेकिन यह अभी साबित नहीं हुआ है कि प्रियंका चुनाव नतीजे को प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं। अभी दो साल पहले अमेठी और रायबरेली में विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने डेढ़ दो महीने प्रचार किया, पर नतीजा सिफर ही रहा। इसके बावजूद यह मानना कि प्रियंका के आने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, गलत होगा।

प्रियंका और ज्योतिरादित्य सिंधिया को उत्तर प्रदेश में प्रभारी के रूप में उतारकर कांग्रेस ने देश के सबसे बड़े राज्य में लड़ाई को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश की है। इस घटनाक्रम से सबसे ज्यादा धक्का सपा-बसपा गठबंधन को लगेगा, क्योंकि ये दोनों दल जिस लड़ाई को दो ध्रुवीय बनाकर जो लाभ लेना चाहते थे वह अब शायद संभव नहीं होगा। हालांकि राहुल गांधी ने सपा-बसपा के लिए अपना दरवाजा अभी बंद नहीं किया है। सबसे बड़ी समस्या अब मुस्लिम मतदाता के सामने होगी। उसे सपा-बसपा और कांग्रेस में से किसी एक को चुनना पड़ेगा। मुस्लिम मत के इसी बंटवारे का लाभ भाजपा को 2014 और 2017 में मिला था। 

कांग्रेस ने प्रियंका गांधी के जरिये सपा-बसपा को जवाब और धमकी दोनों दी है। अब इसकी प्रबल संभावना है कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सभी अस्सी सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इससे सपा-बसपा के बागियों को एक नया मंच मिल जाएगा और कांग्रेस को मजबूत उम्मीदवार, लेकिन उत्तर प्रदेश पूरा देश नहीं है। कांग्रेस के सामने बाकी राज्यों में जो समस्या है वह प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने से खत्म नहीं होने वाली। प्रियंका और ज्योतिरादित्य को उत्तर प्रदेश में उतारने के बाद मीडिया से बात करते हुए राहुल गांधी ने जो कहा उससे लगता है कि उन्होंने दो कदम बढ़ाए तो हैं, लेकिन एक कदम पीछे आने को भी तैयार हैं। उन्होंने एक तरह से भाजपा से पहले सपा-बसपा को चेतावनी दी है कि हमें कम मत आंको। इसके साथ ही यह भी संकेत दिया है कि वह सपा-बसपा से हाथ मिलाने के लिए अब भी तैयार हैं। संदेश सीधा है कि हमें छोड़ा तो आप भी कहीं के नहीं रहेंगे। अब गेंद मायावती और अखिलेश यादव के पाले में है। कहना कठिन है कि वे राहुल गांधी की इस चेतावनी से डरेंगे या अपने रुख पर कायम रहेंगे।

सवाल है कि इस उत्तर प्रदेश के बाहर कांग्रेस कहां है? कोलकाता में ममता बनर्जी के मंच पर राहुल गांधी नहीं थे और बिहार में राजद खेमे में कांग्रेस के बिना गठबंधन के विकल्प पर भी विचार हो रहा है। यह भी देखें कि कांग्रेस जहां है वहां कोई और विपक्षी दल नहीं है। जी हां, कांग्रेस लंदन में है जहां इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) को हैक किए जाने का फर्जी दावा अमेरिका से किया जा रहा था। ऐसा लगता है कांग्रेस खुद नहीं समझ पा रही है कि उसे कहां होना चाहिए और कहां नहीं? किसानों की कर्ज माफी पर उसने पूरे देश में हल्ला मचाया। जब मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की जनता ने उसे सत्ता सौंप दी तो वह कर्ज माफी के जाल में उलझ गई है। उसने राफेल के मुद्दे को दूसरा बोफोर्स बनाने की कोशिश की, पर वह दिल्ली के लेफ्ट-लिबरल्स की बिरादरी के बाहर चल नहीं पाया। 

सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने पार्टी की उम्मीदों पर और पानी फेर दिया। इसके बाद अब कांग्रेस ने एक और पिटा हुआ मुद्दा उठाया है-ईवीएम मशीनों का। इसके लिए अमेरिका से एक नकाबपोश की लंदन में होने वाली प्रेस कांफ्रेंस में कांग्रेस के नेता कपिल सिब्बल पहुंच गए। वहां से भारत के निर्वाचन आयोग पर हमला किया गया। इस नकाबपोश के सारे दावे फर्जी निकले, फिर भी सिब्बल साहब कह रहे हैं जांच होनी चाहिए। 

अक्षय कुमार की एक फिल्म आई थी ‘बेबी’। इसमें भारत की खुफिया एजेंसी का मुखिया मंत्री से बार-बार कहता है कि विदेशी ऑपरेशन में यदि कोई गड़बड़ होती होती है तो हम कह देंगे कि यह (अक्षय कुमार, जो भारत के खुफिया एजेंट बने हैं) हमारा आदमी था ही नहीं। कांग्रेस पार्टी वैसा ही कुछ आजकल कपिल सिब्बल के साथ कर रही है। वह बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की ओर से सुप्रीम कोर्ट में कुछ बोलते हैं तो कांग्रेस कहती है, हमसे इसका कोई लेना-देना नहीं। लंदन में कपिल सिब्बल की मौजूदगी पर भी कांग्रेस का यही जवाब है।

मोदी के खिलाफ बनने वाले गठबंधन में कांग्रेस कहां है, समझना जरा कठिन है। क्या पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी कांग्रेस से सीटों का तालमेल करेंगी? बिहार में कांग्रेस 16 सीटें मांग रही है। वह 12 से कम पर मानने को तैयार नहीं। उसकी मांग उसके गठबंधन से बाहर जाने का सबब बन सकती है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बहुजन समाज पार्टी से किसी तरह के तालमेल की स्थिति नजर नहीं आती। क्या कांग्रेस जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस से हाथ मिलाएगी? 

सवाल यह भी है कि कांग्रेस के नए मित्र अरविंद केजरीवाल क्या पंजाब और दिल्ली में साथ नजर आएंगे? कर्नाटक में लोकसभा चुनाव में तालमेल का मुद्दा तय करने से पहले पार्टी के अंदर का असंतोष संभालना कठिन होता जा रहा है। महाराष्ट्र और तमिलनाडु के अलावा अभी तक कहीं गठबंधन की तस्वीर साफ नजर नहीं आती। ऐसा लगता है मुद्दों के मोर्चे पर कोई खास कामयाबी न मिलने पर कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को सक्रिय करने का दांव खेला है। सवाल है कि क्या प्रियंका के आने भर से यह सब बदल जाएगा? क्या दूसरे विपक्षी दलों का कांग्रेस के प्रति नजरिया बदल जाएगा? चूंकि प्रियंका के साथ रॉबर्ट वाड्रा परिदृश्य में अपने आप आ जाते हैं इसलिए कांग्रेस के लिए भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाना संभव नहीं होगा। कुछ भी हो, इतना तय है कि 2019 का चुनाव किसी भी पक्ष के लिए आसान नहीं होने वाला।

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(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)