डॉ. वर्तिका नंदा। भारत में जेलों की हालत क्या है, इसे देखने की फुरसत किसी के पास नहीं है। बंदियों के पास चुनाव में वोट देने का अधिकार होता तो शायद स्थितियां अलग होतीं। चूंकि ऐसा नहीं है, इसलिए जेल की बुरी खबरें ही अक्सर सुर्खियां बनती हैं, जेल की जिंदगियां और उनकी गुजर-बसर नहीं।

पुरुष कैदियों को मिलती हैं सुविधाएं
यह बात बहुत कम ही लोग जानते हैं कि पुरुष कैदियों को जेलों में आउटडोर गेम्स खलने की काफी सुविधाएं मिल जाती हैं। वे बैडमिंटन, वॉलीबॉल, क्रिकेट जैसे खेलों में हिस्सा ले सकते हैं। उनके सामने बड़ा मैदान होता है, जबकि महिला बंदियों को छोटी-छोटी जगहों में बंद कर दिया जाता है। जहां किसी तरह की उनकी न्यूनतम सुविधाएं पूरी हो सकती हैं।

महिला बंदियों को गेम्स खेलने की नहीं मिलती सुविधा
भारतीय जेलें अभी तक इस विचार को स्वीकार ही नहीं कर पाई हैं कि महिलाओं को जेल में अपनी सेहत को ठीक रखने के लिए खेलने की जरूरत भी पड़ सकती है। खेलों के मैदानों के न होने की वजह से महिलाओं की मानसिक और शारीरिक सेहत पर बहुत बुरा असर पड़ता है। पुरुष बंदियों को अक्सर टूर्नामेंट में हिस्सा लेने की सहूलियत भी मिल जाती है। वे कई बार जेल स्टाफ के साथ अलग-अलग खेलों में हिस्सा लेते हैं, जबकि महिला बंदियों के सामने इस तरह के विकल्प तकरीबन न के बराबर होते हैं। उन पर अलग तरह के नियम थोप दिए जाते हैं जो पहले से ही बनी उनकी परिस्थितियों को और भी बदतर बना देते हैं।

जेल प्रशासकों को नहीं दिखती महिलाओं की जरूरतें
महिला बंदियों के लिए मैदान के मौजूद न होने का मतलब यह कतई नहीं है कि उन्हें इनडोर गेम्स खेलने की बेहतर सहूलियतें दी जाती हैं। बंदियों को न तो कारागारों के मैदान में खेलने की कोई सुविधा होती है और न ही बैरक में। जेलों प्रशासकों को उनके लिए ये जरूरतें बहुत ही गैर- जरूरी दिखाई देती हैं। यही वजह है कि जेल के बाहर भी हाशिये पर रहने वाली महिलाएं जब जेल के अंदर आती हैं तो उनके हाशिये और भी सिमट जाते हैं।

महिला बंदियों की स्थिति बेहद खराब
महाराष्ट्र के एक जेल अधिकारी ने मुझे बताया कि उनके राज्य की एक जेल की महिला बंदियों की स्थिति बेहद खराब हो चुकी है। इसकी वजह यह है कि उस जेल में महिलाओं का दायरा बेहद सीमित है और उनके सामने सिर्फ एक सफेद दीवार है। नतीजतन जो महिलाएं लंबे समय से बंदी हैं, उनकी नजर धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही है, क्योंकि उनके सामने अब देखने के लिए सफेद रंग के अलावा और कोई रंग नहीं है।

महिला बंदियों को हो रही शारीरिक समस्या
इस जेल में चलने की जगह का बेहद सीमित होना एक दूसरी दिक्कत है। उसका नतीजा यह हुआ है कि अब इन महिला बंदियों को चलने में भी समस्या होने लगी है। उनके घुटने जवाब देने लगे हैं। जेलों ने यह सोचा ही नहीं कि जो महिलाएं जेल के अंदर आई हैं, उन्हें चलने के लिए कुछ जगह की जरूरत भी हो सकती है।

अलग-अलग परिस्थितियां
जेल के अंदर का रख-रखाव जेल के अंदर बंदी ही करते हैं। बाहर से कोई नहीं आता। जेल में आने वाले बंदियों की आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक, पारिवारिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अलग भी हो सकती है, लेकिन जेलें कैदियों की संख्या और जरूरतों के मुताबिक अपनी बनी-बनाई संरचना में बदलाव पसंद नहीं करतीं। वहां ठहराव ही बना हुआ है। जेल में आने वाले बंदी भी अलग-अलग अपराधों के तहत यहां पहुंचते हैं। इनमें कुछ विचारधीन होते हैं, कुछ सजायाफ्ता। उनकी मानसिक परिस्थितियां भी अलग होती हैं।

भारत की जेलों में लाना होगा बदलाव
इसी तरह जेल अधिकारियों के कामकाज करने के रवैये से भी जेलों की संस्कृति बनती-बिगड़ती है। जेल के बंदी का सबसे अधिक वास्ता जेल के अधिकारी से ही पड़ता है। इसलिए भीड़ से लदी भारत की जेलों को सोचना होगा कि वे कैसे बंदियों के सकारात्मक रुझान बढ़ाएं। जेलें सृजन की दुनिया से परे एक अलग टापू की तरह संचालित होने की अपनी एक आदत बना चुकी हैं। वे बंदियों को परंपरागत तरह के कामकाज तो देती हैं, लेकिन नए बदलावों को आत्मसात करने में कोई जल्दी नहीं दिखातीं।

मानवाधिकार संगठनों का ढीला रवैया
देश की बड़ी संस्थाएं जिन्हें मानवाधिकार का काम सौंपा गया है वे भी न तो तत्परता के साथ आगे बढ़कर काम करने में कोई रुचि दिखती हैं और न ही किसी जेल के अच्छे काम को आगे बढ़ाने में उनका कोई योगदान होता है। एक तरफ भारत का समाज बंदियों को वापस अपने समाज में स्वीकार करने में हिचकता है ओर दूसरी तरफ वह यह भी चाहता है जो जेल में गया है वह पूरी तरह से एक सुधरे हुए इंसान की तरह लौट के आए, लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में समाज अपनी भूमिका निभाने में कतराता है।

अदालत से सजा मिलने की प्रक्रिया के दौरान जेल का काम इन लोगों के घावों पर मरहम लगाना या फिर उन्हें सुधार के रास्ते पर ले जाना होता है, लेकिन अगर जेलें खुद ही नहीं सुधरेंगी तो बंदियों को क्या सुधार पाएंगी? यह एक वाजिब सवाल है, लेकिन इसका कोई जवाब नहीं दिखता।

(लेखिका जेल सुधार के लिए सक्रिय संगठन तिनका-तिनका की संस्थापक हैं)

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