नरेन्द्र मोदी सरकार ने तेलंगाना विधानसभा के इस प्रस्ताव को स्वीकार करने का निर्णय लिया है कि पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव की भव्य प्रतिमा लगाई जानी चाहिए। इस फैसले का वे सभी लोग स्वागत करेंगे जो मानते हैं कि देश को आधुनिक भारत के वास्तविक नेताओं और निर्माताओं के कृतित्व का सम्मान जरूर करना चाहिए। करीब पच्चीस साल पहले अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने और देश के चौतरफा आर्थिक विकास की आधारशिला रखने वाले राव के योगदान को उनकी अपनी ही पार्टी कांग्रेस समेत किसी भी दल के नेतृत्व वाली सरकार ने स्वीकार नहीं किया।

आर्थिक सुधारों के प्रणोता होने के अलावा राव के दूरदर्शी नेतृत्व ने पंजाब में अलगाववादी तत्वों को समाप्त करने में भी मदद की और देश की एकता तथा अखंडता को सुरक्षित किया। इन असाधारण उपलब्धियों के बावजूद कांग्रेस ने शायद अपने ही नेताओं की असुरक्षा के मद्देनजर उन्हें देश की चेतना से बाहर करने का प्रयास किया।
राव तब परिदृश्य पर उभरे जब लग रहा था कि सब कुछ नष्ट हो गया है और देश रसातल में जा रहा है। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार जोखिम के स्तर तक गिर गया था और देश बर्बादी की कगार तक पहुंच गया था। उसके पास सिर्फ दो हफ्ते के लिए पेट्रोलियम पदार्थो के भुगतान के लायक डॉलर थे। मुद्रास्फीति की दर 13 फीसद थी और यह जल्द ही 17 फीसद तक पहुंच गई।

औद्योगिक विकास रुक गया था और आठवीं पंचवर्षीय योजना अधर में छोड़ दी गई थी। आर्थिक संकट इतना बड़ा था कि राव के पूर्ववर्ती ने नगण्य 20 करोड़ अमेरिकी डॉलर के एवज में स्वर्ण भंडार को बैंक ऑफ इंग्लैंड में गिरवी रख दिया था। ये ऐसे दिन थे जब कयामत के दिन की भविष्यवाणी करने वालों की बन आई थी, क्योंकि इस महाकाय आर्थिक संकट के अलावा राव को पंजाब समस्या विरासत में मिली थी जहां अलगाववादी तत्व राज्य को भारत से अलग करने पर उतारू थे। अन्य अनंत समस्याएं भी थीं जिनमें प्रमुख थीं सुलगता हुआ सांप्रदायिक संकट और एक अन्य पूर्ववर्ती वीपी सिंह द्वारा झोंकी गई मंडल के बाद की जातिवादी आग। राव को इन सभी समस्याओं से निपटने के लिए बुलाया गया, लेकिन उनके हाथ पीछे बंधे हुए भी थे। लोकसभा में उनके पास संख्या बल नहीं था। कांग्रेस ने सिर्फ 232 सीटें जीती थीं यानी 1991 लोकसभा चुनाव में उसे बहुमत से 41 सीटें कम मिली थीं। ऐसी सच्चाई सामने हो तो एक कुशल और फैसले लेने वाला प्रधानमंत्री ही देश की राजनीतिक और भौगोलिक एकता को सुनिश्चित कर सकता है और अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला सकता है। ये दोनों ही काम उन्होंने पांच साल में कर दिखाए।
राव ने क्षमतावान लोगों को चुना और उन्हें ऐसी नीतियां बनाने की खुली छूट दी जिससे स्थितियों को पलटा जा सके। उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री के रूप में चुना। उन्हें संसद के अंदर और बाहर चौतरफा राजनीतिक आक्रमणों से बचाया और आर्थिक नीतियों की पुनर्रचना करने को कहा। दोनों ने मिलकर घरेलू और विदेशी निवेशकों के लिए अर्थव्यवस्था को खोला और नेहरू काल की समाजवादी नीतियों को तिलांजलि दी जिसने भारतीयों की उद्यमशील कुशलता को एक तरह से मार ही डाला था। इन नीतियों को पं. नेहरू की पुत्री इंदिरा गांधी ने भी आगे बढ़ाया था। इन्हीं नीतियों ने उद्योगपतियों को लाइसेंस और परमिट देने वालों के सुपुर्द कर रखा था जो सत्ता के गलियारों के जरिये रिश्वत की कला से अपना रास्ता तैयार करने में प्रवीण थे। अर्थव्यवस्था पर सरकार का शिकंजा ऐसा था कि कंडोम से लेकर टेलीफोन उपकरण बनाने तक के औद्योगिक क्षेत्र में सरकार का ही एकाधिकार चलता था। यही नहीं, दूरसंचार हो या एयरलाइंस, सभी सेवाएं सरकार के हाथ में थीं और अपनी अक्षमताओं के कारण वह अर्थव्यवस्था को पीछे ही खींच रही थी। राव सरकार का 1991 का पहला बजट ऐतिहासिक घटना थी, क्योंकि इसने जंग लग चुकी नेहरूवादी संरचना को ईंट दर ईंट ढहाने की प्रक्रिया शुरू की। उनका कार्यकाल समाप्त होने तक भारतीय व्यापार और उद्योग का प्रतिष्ठापूर्ण पुनर्जागरण आरंभ हो गया था और आशा के दीप फिर जगमगाने लगे थे। उनकी नीतियों का दूरगामी प्रभावी इस तथ्य से ही समझा जा सकता है कि उनके सत्ता संभालने के समय में देश का जो विदेशी मुद्रा भंडार बिल्कुल खाली हो गया था, दिसंबर 2004 में उनके निधन के वक्त 140 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया था। अभी एक पखवारे पहले यह 345 बिलियन अमेरिकी डॉलर था।
1990 के दशक में भारत के दरवाजे तक पहुंच गए दूसरे दैत्य-पंजाब में अलगाववाद को भी समान कुशलता से निपटाया गया। अलगाववाद का बीज इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में बोया गया था और राजीव गांधी के कार्यकाल में भी यह बेरोकटोक जारी रहा। राज्य वस्तुत: फिसलता जा रहा था, क्योंकि पिछली सरकारें भारत की एकता को खंडित करने वाले तत्वों को कुचलने में विफल रही थीं। लेकिन राव ने पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह और पुलिस प्रमुख केपीएस गिल को समस्या से निपटने में खुली छूट दी और इसका परिणाम भी मिला। उनके निधन के बाद मीडिया में ये रिपोर्टे खूब आईं कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार किस तरह चाहती थी कि उनका अंतिम संस्कार दिल्ली में न हो। यह बात भी चर्चा में रही कि कांग्रेस नेतृत्व ने उनका पार्थिव शरीर अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के मुख्यालय में लाए जाने से रोका। अंतत: राव की अंत्येष्टि हैदराबाद में की गई।
इसलिए नरेंद्र मोदी सरकार पर यह जिम्मेदारी आ गई है कि राव से शुरुआत कर वह पहले की गई इस तरह की अनदेखी को दुरुस्त करे और उन वास्तविक नायकों और नेताओं को खास तौर पर सम्मान दे जिन्हें किसी न किसी तरह भुला दिया गया चाहे वे किसी भी पार्टी के हों। सरकार को नेताजी सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल, दोनों के लिए राजपथ पर जमीन आवंटित करनी चाहिए। राजपथ पर एक तरफ विदेश मंत्रलय वाला जवाहरलाल नेहरू भवन है। दूसरी तरफ इंदिरा गांधी कला केंद्र है। इस मुख्य क्षेत्र में ही 100 मीटर की दूरी पर राजीव गांधी भवन है। लेकिन लौह पुरुष सरदार पटेल के नाम पर क्या है जिनके बिना भारत इस रूप में नहीं होता।

और सुभाष चंद्र बोस को लेकर क्या है जिन्होंने ब्रिटिश सत्ता को हटाने के लिए सेना बनाई और विदेशी शासन से भारत को आजाद कराने के लिए असाधारण साहस और प्रतिबद्धता दिखाई। एक आभारी देश को इतिहास की अपनी किताबों और देश के सबसे प्रमुख स्थान पर ऐसे नेताओं को सम्मानित स्थान देना चाहिए। इससे थोड़ी भी कम चीज कृतघ्नता होगी। मोदी सरकार को इस उत्तरदायित्व को पूरा करना चाहिए। यह जरूरी है, क्योंकि तब ही पहले किए गए अन्याय को दुरुस्त किया जा सकता है और अपनी राष्ट्रीय जनचेतना में जोश भरा जा सकता है।
(लेखक प्रसार भारती के अध्यक्ष हैं)