नई दिल्ली [डॉ. अरुण कुमार]। आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केवल एक नाम भर नहीं हैं, बल्कि एक ब्रांड भी हैं। ब्रांड मोदी के हर क्रियाकलाप का प्रभाव जनता के बड़े हिस्से को प्रभावित करता है व मीडिया के साथसाथ विपक्षी पार्टियां भी बड़े पैमाने पर उसकी चर्चा करती हैं। इसीलिए अचानक बुधवार को जब इंडिया गेट के हुनर हाट पहुंच मोदी ने लिट्टी-चोखा का लुत्फ उठाया तो चहुंओर चर्चा होने लगी।

सोशल मीडिया पर अपने-अपने तरह से लिखने वालों की बाढ़ आ गई। ट्विटर पर भी यह ट्रेंड करने लगा। इसका तत्काल लाभ हुनर हाट के उस दुकान वाले को मिला। उस दुकान पर भीड़ इतनी अधिक बढ़ गई कि लंबी कतार में खड़े होकर लोगों को लिट्टी-चोखा खाना पड़ा।

वैश्वीकरण के इस दौर में हमारी संस्कृति, भाषा और यहां तक कि हमारे खान-पान के तरीकों पर बुरा प्रभाव पड़ा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमारे जीभ के स्वाद को न केवल बदल रही हैं, बल्कि हम क्या खाएं यह भी निर्धारित कर रही हैं। पारंपरिक भारतीय व्यंजन पुरानी फैशन की वस्तु होते जा रहे हैं। इससे सबसे अधिक युवा और बच्चे प्रभावित हुए हैं।

पिज्जा, बर्गर, चाउमीन, मोमोज आदि के सामने देसी व्यंजन अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं। ऐसे में ‘ब्रांड मोदी’का लिट्टी-चोखा खाना उसकी ब्रांडिंग ही है। मोदी युवाओं के भी ब्रांड हैं इसलिए उनके लिट्टी-चोखा खाने से युवाओं में सकारात्मक संदेश जाएगा। 

हालांकि लिट्टी-चोखा बिहार की सीमाओं से पार विदेशों तक पहुंच गया है, लेकिन मोदी के लिट्टी-चोखा खाने से उसकी ब्रांडिंग में ही मदद मिलेगी। कुल मिलाकर फायदा बिहार की संस्कृति से जुड़े लिट्टी-चोखा को ही होगा। लिट्टी-चोखा बिहार और उत्तर प्रदेश के बिहार से सटे इलाकों का एक प्रसिद्ध भोजन है। इसका संबंध रसोईघरों से कम और खेत-खलिहानों, विमर्शों व संघर्षों से ही ज्यादा है।

सामान्यत: लिट्टी-चोखा को घर के बाहर ही बनाने का प्रचलन है। इसका संबंध सामूहिकता से भी है। कुछ लोग इकट्ठा हुए और लिट्टी-चोखा बनाने का कार्यक्रम बन गया। जाड़े के मौसम में अंगीठी तापते हुए उसी अंगीठी की आग में इसे बनाया जाता है।

इसी प्रक्रिया में वाद-विवाद और संवाद की भी प्रक्रिया चलती है। सदियों से बिहार के किसान खेत की पहरेदारी करते हुए लिट्टी बनाकर खाते रहे हैं। लिट्टी का इतिहास : बिहार के मगध के इलाकों में लिट्टी-चोखा का प्रचलन अधिक रहा है और यहीं से पहले शेष बिहार और फिर भारत और पूरी दुनिया में फैला। चंद्रगुप्त मौर्य मगध साम्राज्य के शासक थे जिसकी सीमाओं के भीतर अफगानिस्तान भी आता था। कहते हैं कि चंद्रगुप्त मौर्य के सैनिक अपने लंबे अभियानों में लिट्टी लेकर ही चलते थे।

एक तो इसे बनाना बहुत आसान होता है, दूसरा यह पेट में देर तक टिकता है। साथ ही यह कई दिनों तक खराब नहीं होता और खाने वाला देर तक ऊर्जावान बना रहता है। बिहार के लोकजीवन में यह प्रचलित है कि 1857 के सिपाही भी लिट्टी खाकर ही आगे बढ़े थे। मतलब यह है कि लिट्टी का संबंध संघर्ष से है। बिहार का कोई भी चुनाव संघर्ष से कम नहीं होता, इसलिए ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी विपक्षी पार्टियों को कह रहे हैं कि अब लिट्टी-चोखा खा लीजिए और कुछ बांधकर संघर्ष के लिए तैयार हो जाइए। हम तो अब तैयार हैं।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)