[ हृदयनारायण दीक्षित ]: मां सर्वोत्तम अनुभूति है। यह जननी है और स्त्री है। प्रकृति सदा से है। दिव्य भी है। प्रकृति में जहां-जहां दिव्यता है वहां-वहां देवता की अनुभूति है। देवता प्रकृति की दिव्य शक्तियां हैं। हम हिंदू अवतारवाद के विश्वासी हैं। संसार में अवतरित होने के लिए ईश्वर भी एक मां को ही माध्यम बनाता है। हम सब मां का विस्तार हैं। मां न होती तो हम न होते। ऋग्वैदिक पूर्वजों ने पृथ्वी को भी माता जाना था। ज्ञान के प्रथम मुहूर्त से लेकर आधुनिक काल तक भारत में स्त्री सम्मान की परंपरा है बावजूद इसके केरल के शबरीमाला मंदिर में 10 वर्ष से 50 वर्ष की उम्र वाली महिलाओं का प्रवेश वर्जित हैं। सर्वोच्च न्यायपीठ इस मसले पर विचार कर रही है।

प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्र के नेतृत्व वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ के सम्मुख एक बेतुकी दलील भी पेश की गई है। मंदिर की ओर से पैरवी कर रहे वकील कैलाशनाथ पिल्लई ने कहा है कि ‘पुराने रीति रिवाजों में हस्तक्षेप से ‘एक और अयोध्या’ विवाद जैसा तनाव पैदा हो सकता है।’ मंदिर में भगवान अय्यप्पा की अराधना होती है।हिंदू उनके प्रति श्रद्धालु हैं। यहां लाखों श्रद्धालु प्रतिवर्ष आते हैं। अय्यप्पा का दर्शन करते हैं, लेकिन 10 वर्ष से 50 वर्ष के बीच की महिलाएं उपासना के संवैधानिक अधिकार से वंचित हैं।

शबरीमाला मंदिर का आकर्षण रम्य है। 18 पर्वतों से आच्छादित इस मंदिर को सघन हरीतिमा वाले वन और भी सुंदर तीर्थ बनाते हैं। पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर ऐसे दिव्य क्षेत्रों में उपासना केंद्र बनाए थे। परंपरा के अनुसार शबरीमाला यात्रा के पूर्व अनेक ‘वृतम’ यानी व्रत लेने होते हैं। रूद्राक्ष या तुलसी की माला पहनना एक व्रत है। शुद्ध शाकाहार भी व्रत है। क्रोध पर संयम विशेष व्रत है। मंदिर के अधिवक्ता ने सुप्रीम कोर्ट में इस व्रत का पालन नहीं किया। अयोध्या तनाव की दलील संयमहीनता का ही परिणाम जान पड़ती है।

संविधान का अनुच्छेद 25 मौलिक अधिकार है। इस अनुच्छेद में ‘सभी व्यक्तियों को अंत:करण की स्वतंत्रता और धर्म के अबाध रूप में मानने व आचरण करने का समान अधिकार’ है। मंदिर प्रवेश और दर्शन संवैधानिक अधिकार है। परमात्मा/ईश्वर या देवता स्त्री पुरुष में भेद नहीं करते। भगवान अय्यप्पन श्रद्धेय हैं। वे सबके हैं, सब उनके हैं। सृष्टि संबंधी दो मूल विचार हैं। पहला कि सृष्टि ईश्वर ने बनाई। तब सृष्टा अपने ही सृजन के एक बड़े भाग के प्रति विभेदक नहीं हो सकता। सृष्टि प्राकृतिक विकास का परिणाम भी मानी जाती है। सृष्टि विकास की कार्रवाई से स्त्री को अलग रखकर संसार चक्र आगे नहीं चल सकती है। संस्कृत भाषा अनुशासन में ‘देवता’ स्त्रीलिंग हैं।

शबरीमाला में महिलाओं का प्रवेश रोकने का आधार बेतुका है। माना जाता है कि 10 से 50 वर्ष की उम्र की महिलाएं रजस्वला होती हैं और रजस्वला महिलाएं अपवित्र होती हैं। इसलिए इस उम्र की महिलाएं मंदिर प्रवेश नहीं कर सकतीं। यह धारणा किसी व्यक्ति का निजी विचार ही हो सकती है। इस मान्यता का कोई शास्त्रीय आधार नहीं है। वैदिक साहित्य महिलाओं की समान भागीदारी से भरापूरा है। ऋग्वेद के ऋषियों ने जल को ‘आप: मातरम्’ माता रूप विश्व की जननी बताया था। उन्होंने नदियों को भी माता ही कहा था। महिलाएं अपवित्र होती तो माता कहने का प्रश्न ही नहीं था। ऋग्वेद में मंत्र सूक्तों में ऋषियों के नाम हैं।

तमाम सूक्तों की रचनाकार महिलाएं भी हैं। पहले मंडल के सूक्त 126 के 5 मंत्रों की ऋषिका रोमशा हैं। दसवें मंडल के सूक्त 40 की ऋषिका काक्षीवती घोषा भी महिला हैं। लोपामुद्रा भी ऋषिका महिला है। दसवें मंडल के सूक्त 85 में सावित्री सूर्या के मंत्र हैं। यमी वैवस्वती भी मंत्र द्रष्टा है। ऋग्वेद भारतीय संस्कृति का आदि स्नोत है। इसमें महिला ऋषियों की भागीदारी है। वे अपवित्र होतीं तो वैदिक मंत्रों की द्रष्टा कैसे होतीं? रजस्वला होना निजी चयन नहीं है। यह प्राकृतिक कार्रवाई है और प्रकृति अपनी सृजन कार्यवाही में अपवित्र नहीं होती।

हिंदू  धर्म में यज्ञ एक प्राचीन संस्था व कर्तव्य है। यज्ञ पवित्र अनुष्ठान है। शास्त्रों के अनुसार इस कर्मकांड में पत्नी की उपस्थिति अनिवार्य है। ऋग्वेद (8.31.5) में कहते हैं कि ‘पति-पत्नी मिलकर एक मन से देव उपासना करते हैं।’ देवोपासना में पत्नी साथ है। उसकी रजस्वला प्रकृति देव उपासना में बाधक नहीं हैं। ऋग्वेद (1.112.10) के अनुसार विपश्ला का पैर युद्ध में कट गया था। अश्विनी देवों ने कृत्रिम पैर लगाया था। इसी तरह (10.102.2) रथ सवार मुद्रलानी ने युद्ध में संपदा जीती थी। उत्तर वैदिक काल में गार्गी ने दार्शनिक याज्ञवल्क्य से तमाम प्रश्न किए। निरुत्तर याज्ञवल्क्य ने गार्गी पर अति प्रश्न पूछने का आरोप लगाया था। इन्हीं याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी की शंका समाधान करते हुए लोक व्यवहार का आत्मदर्शन दिया था कि ‘इस संसार में सब स्वयं को ही प्यार करते हैं।’ वैदिक काल की विद्वत गोष्ठियों, सभा समितियों या देवोपासना में भी महिलाएं भागीदार थीं। उपासना के अधिकार पर कोई रोक नहीं थी।

भारत में लाखों मंदिर हैं। पुरुषों की तुलना में स्त्रियां मंदिर अधिक जाती हैं। देवोपासना करती हैं। कहीं ऐसी रोक नहीं है, लेकिन शबरीमाला मामले में कुतर्क दिए गए। कहा गया कि ‘न्याय से जुड़ा व्यक्ति होने के कारण भगवान अय्यप्पन को संविधान के अधीन अपने ब्रह्मचारी चरित्र को सुरक्षित रखने का अधिकार है।’ उनकी मानें तो भगवान अय्यप्पन भी महिलाओं का प्रवेश नहीं चाहते।

हिंदू संस्कृति में देवों या ईश्वर का प्रवक्ता बनने की परंपरा नहीं है, लेकिन यहां भगवान अय्यप्पन की निजी इच्छा भी बताई जा रही है। उपनिषदों में सृष्टि रचना के कई रूपक हैं। उपनिषद के अनुसार ‘परमात्मा अकेला था। उसे आनंद नहीं आया-तस्मात् एकाकी न रमते। उसने दूसरे की इच्छा की और स्वयं दो खंडों में विभाजित हो गया। आधा भाग स्त्री हुआ और आधा पुरूष।’ स्त्री परमसत्ता का आधा भाग है, लेकिन जननी होने के कारण वह प्रतिपल श्रद्धेय है और सृष्टि सृजन की आधारभूत धुरी है। उसे किसी भी आधार पर श्रेय कर्म से वंचित करना ईश्वर और प्रकृति की अवमानना है।

शास्त्र और रीति रिवाज देशकाल और परिस्थिति की उपज हैं। देवोपासना से स्त्रियों का रोका जाना शास्त्रीय नहीं है। मान लिया कि किसी परिस्थिति में किसी व्यक्ति ने ऐसी कोई उपधारणा विकसित भी की हो तो भी इक्कीसवीं सदी के विश्व और तर्कशील भारत में ऐसी उपधारणा को महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। संविधान भारत का राजधर्म है। यह वंश, जाति या लिंग जैसे सभी भेदों का निषेध करता है। न्यायमूर्तियों के अद्यतन तर्क संकेत स्वागतयोग्य हैं।

मुख्य न्यायाधीश ने सही कहा है कि ‘न्यायपीठ इस तथ्य को नकार नहीं सकती कि महिलाओं के एक वर्ग को शारीरिक कारणों से मंदिर प्रवेश की अनुमति नहीं दी गई है।’ भारत तमाम रूढ़ियां छोड़ चुका है। सतीप्रथा मर गई है। अस्पृश्यता का अंत हो चुका है। जातियां मरणासन्न हैं। स्त्रियां राष्ट्रजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी हैं। सभी कालवाह्य रीतिरिवाजों का त्याग देशकाल का आह्वान है। प्राचीन इतिहास में स्त्री आदर के जीवंत साक्ष्य हैं। आधुनिक भारत का निर्माण उसी नींव पर होना चाहिए।

[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]