जगमोहन सिंह राजपूत। यूनेस्को के अनुसार, कोरोना महामारी के चरम पर 160 करोड़ बच्चे घरों में बैठने को मजबूर थे। इनके अतिरिक्त 10 करोड़ अध्यापक और शिक्षा से जुड़े अन्य लोग भी प्रभावित हुए थे। कोरोना महामारी ने मानव जीवन के हर क्षेत्र में न केवल प्रगति में बाधा डाली है, वरन अनेक नई समस्याएं भी पैदा की हैं। इस समय आर्थिक क्षेत्र और रोजगार के अवसरों को लेकर सबसे अधिक चर्चा हो रही है यद्यपि अत्यंत चिंताजनक स्थिति तो शिक्षा के क्षेत्र में उत्पन्न हुई है, जिसके दीर्घकालिक परिणाम होंगे। देश के 24 करोड़ से अधिक बच्चों ने घरों में बंधक रहने, खेलों, मित्रों तथा स्कूलों से अलग रहने का दंश ङोला है। इससे उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित हुआ है। इनमें अधिकांश की शिक्षा प्रभावित हुई है।

हालांकि, स्थिति से निपटने के लिए आनलाइन शिक्षा के प्रबंध किए गए। अध्यापकों ने अत्यंत उत्साहजनक उदाहरण प्रस्तुत किए। उन्होंने स्वयं गैजेट्स का उपयोग करना सीखा, आनलाइन के लिए सामग्री बनाना सीखा और बच्चों से हरसंभव ढंग से संपर्क कर उनका उत्साह बढ़ाया। बहुत कुछ ऐसा भी था, जिसकी आवश्यकता तो थी, परंतु पूर्ति संभव नहीं थी। देश के अधिकांश बच्चों को उन गैजेट्स की समुचित उपलब्धता नहीं थी, जो आनलाइन शिक्षा की पहली आवश्यकता थी। देश में निर्बाध इंटरनेट की उपलब्धता भी अभी सीमित ही है।

कुछ त्वरित सर्वेक्षण बताते हैं कि आनलाइन शिक्षा का सामान रूप से उपयोग नहीं हो सका है। कुछ आंकड़े चौंकाने वाले हैं। सर्वे में सरकारी तथा गैर सरकारी स्कूलों के कक्षा तीन के केवल 9.8 प्रतिशत विद्यार्थी ही पुस्तक का पाठ पढ़ सके, जो प्रतिशत 2014 में 18.3 था। इसका स्पष्ट मंतव्य यही है कि स्कूलों में शिक्षा की पहले से ही चिंताजनक बनी स्थिति अब और भी खराब हो गई है। दूसरी ओर बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम 2020-21 सत्र के लिए जिन परिस्थितियों में बिना परीक्षा लिए निकालने पड़े, उससे अंकों और सफल छात्रों की संख्या में अप्रत्याशित उछाल आई है। इसके भी अनेक व्यावहारिक तथा मनोवैज्ञानिक प्रभाव व्यवस्था और विद्याíथयों पर पड़ रहे हैं। ये सभी सकारात्मक नहीं हैं।

सीबीएसई की कक्षा बारह की परीक्षा में 95 प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या 2021 में 70,000 के ऊपर पहुंच गई है। ये अंक कैसे भी आए हों, यह तो सभी माता-पिता चाहेंगे कि उनके बच्चे की प्रतिभा और निखरे। अमूमन शिक्षा में दो-वर्गो के बीच की जिस खाई की चर्चा अकसर होती रहती है, स्कूलों के बंद रहने, आनलाइन विधा पर निर्भरता बढ़ने तथा परिस्थितिजन्य कारणों से परीक्षा परिणाम घोषित करने के ढंग से वह और बढ़ी है। इसे रोकना आवश्यक है। मैंने गांवों में बड़े-बुजुर्गो को बहुधा यह कहते हुए सुना था कि पढ़ने तो जा रहे हैं, मगर सीख नहीं रहे हैं। अब तो स्कूल जाना भी बंद है, अत: कुछ न सीखने वालों या पढ़ न सकने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। यह अनुमान भी लगाया जा रहा है कि जितने बच्चे स्कूलों के बाहर हैं, उससे अधिक बच्चे स्कूलों में नामांकित होकर भी कुछ सीख नहीं पा रहे हैं।

सरकारें, अध्यापक और व्यवस्था इन सारे तथ्यों से परिचित हैं। सभी इसमें सुधार के लिए प्रयासरत भी हैं। प्रयास के परिणाम सदा ही परिस्थितियों की समझ और उन पर नियंत्रण पाने की क्षमता पर निर्भर करते हैं। कोरोना को लेकर अनिश्चय की स्थिति अभी भी बनी हुई है। अत: कोई सर्वेक्षण भले ही यह कहे कि 90 प्रतिशत से अधिक माता-पिता चाहते हैं कि स्कूल खोल दिए जाएं, लेकिन यदि किसी परिवार में जाकर पूछा जाए तो उनकी आशंकाएं और असमंजस उभरकर सामने आते हैं। जो डाक्टर कह रहे हैं कि कक्षा एक से पांच तक के स्कूल खोल दिए जाएं वे भी साथ में यह जोड़ देते हैं कि कोरोना प्रोटोकाल का पालन पूरी तरह किया जाए। निश्चित ही कुछ प्रतिशत स्कूलों में यह संभव हो सकेगा, मगर देश के अधिकांश स्कूलों में यह पालन नहीं हो सकेगा।

यह समय बच्चों के स्कूल आने के पहले की तैयारी का है। निश्चित ही सरकारें और स्कूल बोर्डस दिशानिर्देश जारी कर चुके हैं या करेंगे। उनके अनुपालन की जिम्मेदारी स्कूल प्रशासन की होगी। यहां बहुत बड़े परिवर्तन की आवश्यकता होगी, क्योंकि सामान्य तौर पर ऐसे दिशानिर्देशों के परिपालन में बहुधा शिथिलता से ही साबका पड़ता है। हर बच्चे की वर्तमान स्थिति की पूरी जानकारी अध्यापकों के स्तर पर इकट्ठी करनी होगी। नामांकन घटा है तो कारणों का पता लगाना होगा। यदि बढ़ा है तब कारणों को जानना और भी आवश्यक होगा कि बच्चों का पुराना स्कूल क्यों छुड़वाया गया। बच्चों ने घर पर वक्त कैसे बिताया? उन्हें क्या-क्या कठिनाइयां हुईं? इस पर अध्यापक के साथ एक आत्मीय चर्चा उनके मनोबल को पुन: स्थापित कर सकती है। उन्हें अवसाद और निराशा से निकाल सकती है। हर बच्चे की आनलाइन अधिग्रहण क्षमता की जानकारी उसी के साथ लंबी बात करके समझनी होगी। जो भी कमियां आएं, उन्हें दूर करने का ‘कार्यक्रम’ हर बच्चे की आवश्यकता के अनुसार बनाना होगा।

इस सभी का केंद्र बिंदु तो अध्यापक को ही बनाना होगा। सरकारें और प्रबंधन इस समय अध्यापकों की मन:स्थिति में बदलाव के लिए और प्रयासरत करें। उन्हें हर प्रकार के संसाधन प्रदान किए जाएं। अध्यापकों को भी आनलाइन और आफलाइन के समन्वय के लिए तैयार करने के लिए विशेष प्रयास करने होंगे। नई तकनीक और गैजेट्स से सघन परिचय के लिए उन्हें अवसर और प्रशिक्षण चाहिए। अध्यापकों को बच्चों के साथ-साथ अपने स्वास्थ्य का भी लगातार ध्यान रखना होगा। टीकाकरण तेजी से हो रहा है। जितनी तेजी से यह बढ़ेगा, उतनी ही जल्दी बच्चों को बचपन में पुन: लौटने की स्थिति बनेगी। इससे माता-पिता का विश्वास बढ़ेगा तो स्कूल फिर से पूरी तरह जीवंत हो उठेंगे।

 

(लेखक शिक्षा और सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं)