अभिषेक कुमार सिंहमानसून एक बार फिर देश के एजेंडे में है। एक ओर भारतीय मौसम विभाग और प्राइवेट मौसम एजेंसी स्काईमेट ने मानसून के आगमन में देरी के अंदाजे पेश किए हैं तो दूसरी ओर पता चला है कि फसल के लिए महत्वपूर्ण मानसून से पहले (प्री-मानसून) की बारिश में इस साल करीब 22 फीसद की कमी दर्ज की गई है। ये हालात अमूमन सूखे के संकेत देते हैं। इससे फसलों की बुआई में देरी होगी जिससे अनाज उत्पादन पर असर पड़ सकता है। जाहिर है आगामी सरकार को फौरन मानसून में देरी और कमी से निपटने के उपाय पर विचार करना होगा। खेती प्रधान अर्थव्यवस्था में निश्चय ही ऐसी आशंकाएं चिंता पैदा करती हैं, पर सवाल है कि क्या मानसून से देश की अर्थव्यवस्था का रिश्ता अभी भी पहले जितना मजबूत बना हुआ है कि इसकी चाल में जरा सी ऊंच-नीच हमारी अर्थव्यवस्था के पसीने छुड़ा दे?

जहां तक आशंकाओं की बात है तो पहली समस्या मानसून के आगमन में विलंब की है। इस बार में भारतीय मौसम विभाग का आकलन है कि मानसून केरल में 6 जून को, यानी पांच दिन की देरी से पहुंचेगा। स्काईमेट भी मानसून में देरी का अनुमान जता चुकी है। ध्यान रहे कि आमतौर पर मानसून केरल के रास्ते पहली जून को दस्तक दे देता है। पिछले साल यह 29 मई को ही आ गया था और जून से सितंबर की चार महीने की अवधि में सामान्य वर्षा हुई थी। लेकिन स्काईमेट का दावा है कि इस साल औसत से कम और करीब 93 फीसद मानसूनी बारिश होगी। उधर मौसम विभाग का कहना है कि मानसून के दौरान 96 प्रतिशत बारिश हो सकती है। स्काईमेट के आकलन पर जाएं तो महाराष्ट्र के मराठवाड़ा और उत्तरी कर्नाटक में सूखे के हालात बन सकते हैं, क्योंकि मध्य भारत में मानसूनी बारिश का दीर्घकालिक औसत 91 प्रतिशत रह सकता है। इसका मतलब यह निकलता है कि इन इलाकों में सूखे से निपटने के आपात उपाय अपनाने की जरूरत है।

इसमें प्री-मानसून बारिश के आकलन ने आग में घी डालने का काम किया है। बताया गया कि फसल के लिए महत्वपूर्ण प्री-मानसून बारिश में इस साल करीब 22 फीसद की कमी रही। यह आकलन भारतीय मौसम विभाग (आइएमडी) का है, जिसके मुताबिक देशभर में 1 मार्च से 15 मई तक 75.9 मिलीमीटर वर्षा हुई। आमतौर पर इस अवधि में 96.8 मिलीमीटर बारिश होती है। मौसम विभाग ने देश को जिन चार हिस्सों में बांट रखा है, उनमें से दक्षिण भारत के सभी राज्यों वाले दक्षिणी प्रायद्वीप में मानसून पूर्व की बारिश में 46 फीसद की कमी दर्ज की गई है। यह इलाका देश में सबसे कम वर्षा वाला दर्ज किया गया है। इसके बाद दक्षिण पश्चिमी क्षेत्र, जिसमें उत्तर भारत के सभी राज्य आते हैं, में 36 फीसद कम बारिश हुई है।

वहीं पूर्वी और पूवरेत्तर भारत झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा सहित बाकी राज्यों में सात फीसद की कमी हुई। कहा जाता है कि जितना महत्व मानसून की बारिश का है, प्री-मानसून बारिश की उपयोगिता उससे रत्ती भर भी कम नहीं है। बारिश न हो और भीषण गर्मी पड़े तो महाराष्ट्र के मराठवाड़ा इलाके के बांधों का जल संचय शून्य स्तर तक पहुंच जाता है, जैसा इस बार हुआ है। इसी तरह मध्य भारत में गन्ना, कपास जैसी फसलों को बचाए रखने के लिए प्री-मानसून बारिश काफी अहम है। उधर हिमालयी क्षेत्रों में सेब जैसे फलों के लिए भी यह बारिश जरूरी है। प्री-मानसूनी बारिश से पैदा होने वाली नमी के कारण जंगल में आग लगने की घटनाओं में कमी आती है।

हालांकि अभी भी देश की खेती के 40 फीसद हिस्से को मानसून पर निर्भर बताया जाता है, पर सच्चाई यह है कि अनाज पैदा करने वाले ज्यादातर उत्तर भारतीय राज्यों, पंजाब, यूपी, हरियाणा, बिहार आदि में सिंचाई के दूसरे विकल्प मौजूद हैं, जिससे मानसूनी वर्षा पर उनकी निर्भरता घटी है। पहले खेतों की सिंचाई बादलों से होने वाली वर्षा और उन नहरों पर टिकी थी जो सूखे की स्थिति में खुद भी सूख जाती थीं। लेकिन 1960 के बाद से ट्यूबवेल के जरिये खेतों को सींचा जाने लगा जिन पर मानसून प्राय: कोई असर नहीं डालता। बेशक समस्या अब केवल उन्हीं इलाकों में है जहां सिंचाई के लिए ट्यूबवेल जैसे साधनों का उपयोग नहीं किया रहा है और जहां किसान पूरी तरह से नहरों एवं मानसून पर आश्रित हैं। हालांकि ट्यूबवेल से सिंचाई का एक पक्ष यह है कि धीरे-धीरे कई इलाकों में भूजल स्तर गिरता जा रहा है, जो मानसून में कमी के चलते और संकटपूर्ण स्थिति में पहुंच जाएगा। इसलिए सिंचाई के गैर-परंपरागत विकल्पों पर और काम करने की जरूरत है, जैसे नदीजोड़ योजनाओं को अमल में लाया जाए, ताकि देश का कोई खेत सिंचाई के अभाव में सूखने न पाए। जरूरत ऐसी योजनाओं की है, जिससे देश के किसी एक इलाके में आई बाढ़ से जमा हुए पानी को उन इलाकों में पहुंचाया जाए जहां उसकी जरूरत है।

आज हम इस नतीजे पर भले ही एक झटके में न पहुंचें कि मानसून अब देश का भाग्यविधाता नहीं रह गया है, लेकिन यह एक सच है कि मानसून में अब पहले की तरह आशंकित करने वाले तत्व नहीं रहे। इसका अहसास हमारी जीडीपी (आर्थिक वृद्धि दर) में खेती के हिस्से (शेयर) को देखकर होता है, जो पहले के मुकाबले काफी कम हो गया है। आज से 68 साल पहले 1950 में जीडीपी में खेती का हिस्सा 52 फीसद था जो 1990 में घटकर 29.5 प्रतिशत रह गया था। फिलहाल यह प्रतिशत और गिरकर 13-14 फीसद तक रह गया है। ऐसे में यदि किसी वर्ष सूखे के कारण अनाज उत्पादन में कुछ गिरावट आती भी है तो भी जीडीपी पर उसका प्रभाव एक फीसद से कम ही रहेगा। जीडीपी के कृषि से बेअसर रहने का बड़ा कारण यह है कि देश के उद्योग-धंधों और सेवा क्षेत्र (सर्विस सेक्टर) का जीडीपी में हिस्सा नाटकीय ढंग से काफी ज्यादा बढ़ा है।

विश्लेषक इस सवाल का जवाब भी देते हैं कि अगर किसी साल मानसूनी बारिश में कमी रहने से अनाज पैदावार में कमी आई तो देश अकाल और भुखमरी से कैसे निपटेगा? इसका जवाब दो-तीन कारकों में निहित है। पहला तो यह सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) और मनरेगा जैसी योजनाओं के संचालन के कारण अब अनाज गरीबों तक पहुंच पा रहा है और वे जीवन-यापन के लिए अनाज खरीदने की हैसियत में हैं। देश के कुछ इलाकों में भुखमरी अब भी कायम है, पर अब वह 1960 जैसी भयावह दौर में नहीं है। जहां तक अनाज के उत्पादन में कमी रह जाने की आशंका का सवाल है तो इससे निपटने का आसान तरीका यह है कि अब देश दुनिया में कहीं से भी अपनी जरूरत के मुताबिक अनाज खरीद सकता है। हालांकि अभी ऐसा करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि हमारे गोदामों में पर्याप्त अनाज मौजूद हैं जहां समस्या उसे सड़ने से बचाने की है।

हमें यह मानने से इन्कार नहीं होना चाहिए कि मानसून की थोड़ी-बहुत बिगड़ी चाल हमारे देश की किस्मत पर कोई बड़ा नकारात्मक असर नहीं डाल पाएगी, लेकिन फिर भी यह ध्यान में रखना होगा कि पानी की कमी ङोलने वाले मध्य और पश्चिमी भारत में कमजोर मानसून कोई बड़ी समस्या अवश्य पैदा कर सकती है। बेशक मानसून में कमी से फसल उत्पादन घटने पर देश बाहर से अनाज खरीदकर उसकी भरपाई कर सकता है, लेकिन भूलें नहीं कि मानसून के उलटफेर खाद्य पदार्थो की कीमतों पर असर डालते ही हैं। इसी तरह खाने-पीने की चीजें महंगी होने से वे लोग भी प्रभावित होते हैं, जिनकी आजीविका सीधे खेती से नहीं जुड़ी है। इसलिए यदि सरकारें मानसून में कमी की स्थिति में सजग रहकर राहत के फौरी उपाय कर लेती हैं तो यह देश के लिए कोई बड़ा सिरदर्द पैदा करने की स्थिति में नहीं रहेगी।

(लेखक एफआइएस ग्लोबल संस्था से संबद्ध हैं)

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