जीवन को सुंदर से सुंदरतम बनाने और ऊंचे से ऊंचा उठाने में लीक से हटना पड़ता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में अपना धैर्य बनाकर रखने में पग-पग पर अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है। समय की आंच में देर तक पकने के बाद अलग प्रकार की चमक आती है। बीच में थक जाने वाले लक्ष्य की ओर नहीं बढ़ पाते। संकट और दुख, नीर-क्षीर विवेक प्रदान करके जूझने का सामर्थ्य प्रदान करते हैं। आशा की एक किरण शेष रहने पर भी हमें निराशा पर विजय मिलती है। संसार में जितने भी महान व्यक्तित्व हुए हैं, अपार कष्ट सहने के बाद ही समाज में प्रतिष्ठित हुए हैं।

पूर्ण तन्मयता से कार्य करने का अवसर तलाशने वाले एक दिन अपने लक्ष्य तक अवश्य पहुंचते हैं। सम्यक अवसर पाए बिना योग्यता और क्षमता का सदुपयोग नहीं हो पाता। सर्वोच्च उपलब्धि प्रदान करने के लिए समय किसी को अत्यंत लघु कार्य में नहीं उलझाता। धैर्य रखने वाले कल्पना से अधिक पाकर समाज में प्रेरणास्नोत बनते हैं। अपना कुछ भी न लुटाने वाले प्रशंसा की माला से सरल व्यक्ति को छलते हैं। उनके पास जो कुछ देने के योग्य रहता है, उसे छिपाकर किसी एक को चुपके से थमाते हैं। केवल प्रशंसा किसी का पेट नहीं भरती और न ही आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। प्रशंसा करने वाले के मुख पर चमक कुछ देने और असीम त्याग से आती है। शब्द की प्रशंसा से बड़ी भूख मिटाने की छटपटाहट होती है। कभी गले न लगाने वाले दूर से ही प्रशंसा की नाव चलाते हैं। खानापूर्ति के लिए की गई प्रशंसा विपरीत प्रभाव डालती है। आशीर्वाद पाने के लिए कलाकार प्रशंसा करते हैं। प्रशंसा करना एक साधना है। प्रशंसा करने में निर्मल हृदय की आवश्यकता होती है। इतिहास रचने वाले भीड़ से अलग रहते हैं। ऊंचाई पर स्थान रिक्त रहता है। मुक्त प्रशंसा करने वालों की वाणी पर सरस्वती का वास रहता है। प्रशंसा और चापलूसी ये दो शब्द हैं जिनके अर्थ भी अलग-अलग हैं। चापलूसी में स्वार्थ का भाव रहता है। किसी दूसरे शख्स से अपनी स्वार्थपूर्ति की कामना रहती है। वहीं प्रशंसा निस्वार्थ होती है। इसलिए हृदय से खुलकर किसी व्यक्ति के नेक कार्यों की प्रशंसा करें। इससे जहां उस व्यक्ति को प्रोत्साहन मिलेगा वहीं स्वयं आपके भीतर एक सकारात्मक नजरिये का विकास होगा।

[ डॉ. हरिप्रसाद दुबे ]