[ संजय गुप्त ]: पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय ने अनेक राज्य सरकारों को इसलिए फटकार लगाई, क्योंकि उनके पास कचरे के निस्तारण की कोई ठोस योजना नहीं थी। कचरा प्रबंधन संबंधी नियमों को लेकर केंद्र सरकार की ओर से जारी एडवाइजरी पर राज्यों द्वारा ध्यान न दिए जाने संबंधी एक याचिका की सुनवाई करते समय सुप्रीम कोर्ट ने बिहार, छत्तीसगढ़, गोवा, हिमाचल, जम्मू एवं कश्मीर, पश्चिम बंगाल, केरल, कर्नाटक, मेघालय, पंजाब आदि राज्यों पर एक-एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया। इन राज्यों ने कहने के बावजूद इस आशय का हलफनामा दाखिल नहीं किया था कि वे कचरे का निस्तारण कैसे करेंगे? इससे यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है तो यही कि साफ-सफाई के मामले में संपन्न माने वाले राज्य भी उतने ही लापरवाह हैैं जितने गरीब समझे जाने वाले राज्य। कुछ समय पहले इसी मामले की सुनवाई करते वक्त सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के आठ सौ पेज के हलफनामे को ही कचरा करार दिया था।

सुप्रीम कोर्ट ने नीति-नियंताओं को कठघरे में खड़ा करते हुए दिल्ली और मुंबई की दयनीय दशा का भी जिक्र किया। उसने कहा कि दिल्ली कूड़े के पहाड़ में दब रही और मुंबई पानी में डूब रही, लेकिन सरकारें कुछ नहीं कर रही हैैं। इसके दो दिन बाद सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के उप राज्यपाल को कूड़े की समस्या का समाधान न कर पाने के लिए फटकारा। यह डांट-फटकार यही बताती है कि स्वच्छ भारत अभियान के इस दौर में भी साफ-सफाई के मामले में वैसी तत्परता नहीं दिखाई जा रही है जैसी अपेक्षित है। सत्ता में आने के बाद से ही मोदी सरकार न केवल स्वच्छ भारत अभियान पर जोर दे रही है, बल्कि शहरों को संवारने के लिए स्मार्ट सिटी योजना को भी आगे बढ़ा रही है।

नि:संदेह स्वच्छ भारत अभियान ने आम लोगों को साफ-सफाई के लिए जागरूक किया है, लेकिन जमीनी हालात बहुत नहीं बदले हैैं। इसी तरह स्मार्ट सिटी योजना भी अपनी छाप नहीं छोड़ पा रही है। यही कारण है कि दिल्ली, मुंबई समेत देश के अन्य बड़े शहरों में स्थान-स्थान पर गंदगी और बेतरतीब विकास की बानगी देखी जा सकती है। इससे खराब बात और कोई नहीं हो सकती कि देश के महानगर भी कचरे के निस्तारण की ठोस व्यवस्था बना पाने में नाकाम हैैं।

समस्या केवल यह नहीं है कि हमारे छोटे-बड़े शहर गंदगी और प्रदूषण से सही तरह नहीं निपट पा रहे हैैं, बल्कि यह भी है कि वे बेतरतीब विकास, अतिक्रमण, अराजक यातायात से भी जूझ रहे हैैं। यह आश्चर्यजनक है कि स्थानीय निकायों के साथ-साथ राज्य सरकारें भी कचरा निस्तारण सरीखे बुनियादी काम को अंजाम नहीं दे पा रही हैैं। इस मामले में जो स्थिति दिल्ली और मुंबई की है वही करीब-करीब अन्य शहरों की भी है। इस पर हैरत नहीं कि हमारे शहर बीमारियों के घर बन रहे हैैं। देश की राजधानी दिल्ली में कूड़े के पहाड़ जगह-जगह देखे जा सकते हैैं। जैसे दिल्ली कचरे की समस्या से नहीं उबर पा रही है वैसे ही देश की वित्तीय राजधानी मुंबई बारिश में होने वाले जानलेवा जलभराव से मुक्त नहीं हो पा रही है। साफ-सफाई के मामले में इन दोनों महानगरों के साथ अन्य शहरों की हालत शहरीकरण की दयनीय दशा की ही सूचक है।

कचरा निस्तारण को लेकर राज्य सरकारों के रवैये पर नाराजगी प्रकट करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि सरकारें कुछ करती नहीं और जब अदालतें हस्तक्षेप करती हैं तो न्यायिक सक्रियता का उल्लेख करते हुए न्यायाधीशों पर निशाना साधा जाता है। यह टिप्पणी एक बड़ी हद तक सही है। अपने देश में तमाम ऐसे मसले सुप्रीम कोर्ट पहुंचते हैैं जो शासन-प्रशासन के अधिकार क्षेत्र में आते हैैं। कचरा निस्तारण ऐसी समस्या नहीं कि सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करने की जरूरत पड़े, लेकिन उसे करना पड़ रहा है। उसे अन्य अनेक ऐसी ही समस्याओं पर हस्तक्षेप करना पड़ता है। प्रदूषण, अतिक्रमण जैसे अनेक मसले सुप्रीम कोर्ट के समक्ष हैैं। कहना कठिन है कि कचरा निस्तारण पर सुप्रीम कोर्ट क्या व्यवस्था देगा, लेकिन यह कोई जरूरी नहीं कि उसके आदेश-निर्देश के बाद हालात सुधर ही जाएं। ऐसे में यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकारें शहरों को संवारने के मामले में अपनी जिम्मेदारी समझें।

शहरों को संवारने का काम इसलिए प्राथमिकता के आधार पर करना होगा, क्योंकि वे ही विकास के वाहक हैैं और यह भी साफ दिख रहा है कि आने वाले समय में गांवों में रहने वाली आबादी का शहरों की ओर पलायन और तेजी से बढ़ेगा। दुनिया भर में ऐसा ही हो रहा है। भारत भी इस चलन से अछूता नहीं रह सकता। गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ने की एक बड़ी वजह यह है कि रोजगार के अवसर नहीं बन रहे हैैं। एक तरह से शहर गरीबी दूर करने का जरिया भी बन गए हैैं। ऐसे में कोशिश यह होनी चाहिए कि शहरीकरण ढंग से हो।

यदि गंदगी, प्रदूषण आदि समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सका तो शहरी जीवन और अधिक कष्टकारी बनेगा। यदि ऐसा होता है तो शहर समस्या भरे जीवन के लिए जाने जाएंगे, न कि सुविधाजनक जीवन के लिए। आज आवश्यकता इस बात की है कि दिल्ली, मुंबई आदि बड़े शहरों को अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के हिसाब से विकसित करने पर विशेष ध्यान दिया जाए। विशेष ध्यान देने का यह काम स्थानीय निकायों और राज्य सरकारों को करना होगा। इस मामले में नेताओं और नौकरशाहों को ईमानदारी से सक्रियता दिखानी होगी। अभी तो वे थोथे दावे करने और समय काटने तक सीमित हैं। यदि देश के प्रमुख शहरों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकसित किया जा सके तो वे दूसरे शहरों के लिए एक नजीर बनेंगे और उनमें खुद को संवारने की प्रतिस्पद्र्धा भी शुरू होगी।

अभी हमारे शहर साफ-सफाई, बुनियादी ढांचे और अन्य अनेक मामलों में दुनिया के अन्य देशों के शहरों से बहुत पीछे हैैं। यदि भारत के कई शहर दुनिया के प्रदूषित शहरों में गिने जा रहे हैं तो इसका मतलब यही है कि हम उनका नियोजन सही तरह से नहीं कर पा रहे हैैं। अगर शहरों को गंदगी एवं प्रदूषण से मुक्त नहीं किया जा सका तो वे शहरी जीवन को असुविधाजनक बनाने के साथ गरीबी दूर करने के लक्ष्य में भी बाधक बनेंगे। कचरे और प्रदूषण से जूझते शहर बीमारियों को निमंत्रित करते हैैं और आम लोगों का वह पैसा इलाज में खर्च होता है जो अन्य किसी काम में उपयोग हो सकता है। नि:संदेह शहरों को संवारने के लिए थोड़ी सख्ती दिखानी होगी और नियम-कानूनों में परिवर्तन भी करना होगा। ऐसा करना समय की मांग है। चूंकि शहरों के नियोजित विकास पर ध्यान देने में पहले ही देर हो चुकी है और उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैैं इसलिए और देरी की तनिक भी गुंजाइश नहीं है।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]