प्रदीप सिंह 

दीपावली लक्ष्मीपूजन का पर्व है। इस अवसर पर लोग मां लक्ष्मी से इसकी प्रार्थना करते हैं कि घर में सुख-समृद्धि आए। जिनके घर में सुख-समृद्धि आ जाती है वे यह मानते हैं कि उनकी पूजा-अर्चना स्वीकार हो गई। जो वंचित रह जाते हैं वे ईश्वर के बजाय अपने में ही दोष खोजते हैं कि शायद हमारी पूजा में ही कोई कमी रह गई। जनतांत्रिक व्यवस्था में भी एक त्योहार आता है जो अमूमन हर पांच साल पर आता है। इस त्योहार को चुनाव कहते हैं। चुनाव के समय भी मतदाता जिन्हें वोट देकर जिताता है उनसे अपेक्षा करता है कि वे उसके जीवन में खुशहाली लाएंगे, पर मतदाता जिन्हें वोट देता है उन्हें भगवान नहीं मानता। इसलिए पांच साल बाद जब वे फिर वोट मांगने आते हैं तो वह अपने में नहीं, खुद के द्वारा चुनी हुई सरकार में खोट निकालता है।

पांच साल के काम-काज की समीक्षा के बाद वह तय करता है कि उसे एक और मौका दे या यह जिम्मेदारी किसी और को देना चाहिए। तो गुजरात और हिमाचल में यह त्योहार आने वाला है। हिमाचल के मुकाबले गुजरात का क्षेत्रीय के साथ साथ राष्ट्रीय आयाम भी है। पश्चिम भारत का यह राज्य भाजपा का अभेद्य दुर्ग बन चुका है। एक ही राज्य है जहां दो पार्टियां होने के बावजूद भाजपा को पचास फीस से ज्यादा वोट मिल चुके हैं। कांग्रेस 27 साल से गुजरात में सत्ता से बाहर है। पूरी एक पीढ़ी तैयार हो चुकी है जिसने कांग्रेस को सत्ता में नहीं देखा। लंबे समय तक सत्ता में रहने के फायदे और नुकसान, दोनों ही होते हैं। फायदा यह कि आपका काम अच्छा है तो मतदाता बार-बार मौका देता है और आपको काम करने का ज्यादा मौका मिलता है। नुकसान यह कि एक समय के बाद लोग ऊबने लगते हैं और उन्हें लगता है कि बदलाव होना चाहिए। इसके लिए जरूरी नहीं है कि वर्तमान सरकार का काम खराब हो। जैसा कि ओडिशा में होने की उम्मीद/आशंका नजर आ रही है।

गुजरात विधानसभा चुनाव कांग्रेस और भाजपा, दोनों के लिए राजनीतिक प्रतिष्ठा का सवाल है। भाजपा यहां जीतती है तो उसके विरोधियों के हौसले पस्त होंगे और नोटबंदी एवं जीएसटी लागू करने से उपजी नाराजगी का विमर्श थमेगा। 2019 लोकसभा चुनाव की तैयारी में उसकी राह की मुश्किलें कम होंगी। यहां जीत से यह भी स्थापित होगा कि मो गुजरात छोड़कर भले दिल्ली चले गए हों, लेकिन गुजरात के लोगों ने उन्हें नहीं छोड़ा है। अपने गृह राज्य पर ऐसे मजबूत जनाधार वाला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बाद पहली बार आया है। राजीव गांधी का नाम इसमें इसलिए शामिल नहीं है कि वह 1984 में एक विशेष परिस्थिति में जीते थे और 1989 में वह दमखम नहीं दिखा सके थे। मोदी के गुजरात से दिल्ली जाने के बाद राज्य में दो मुख्यमंत्री आ चुके हैं और हार्दिक पटेल पाटीदारों का बड़ा आंदोलन चला चुके हैं। पाटीदारों की नाराजगी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। जिग्नेश मेवानी को दलितों के नेता के तौर पेश किया जा रहा है तो अल्पेश ठाकोर पिछड़ों के नेता बताए जा रहे हैं।

अभी तक इनमें से किसी ने अपने समर्थन को वोट में बदलने की क्षमता नहीं दिखाई है या कहें कि इन्हें इसका मौका नहीं मिला है। इन सबकी कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाने की बात हो रही है। इतना ही नहीं आदिवासी नेता छोटू भाई वसावा भी इनके साथ हैं। 2001 के बाद यह पहला चुनाव होगा जब मोदी प्रदेश के मुख्यमंत्री नहीं हैं। नोटबंदी और जीएसटी लागू होने से व्यापारियों में नाराजगी है। गुजरात की आबादी में व्यवसाय करने वालों का प्रतिशत देश के किसी और राज्य से ज्यादा है। इन सबके ऊपर भाजपा की 22 साल की एंटी इनकैंबेंसी। भाजपा के लिए मुश्किलें ही मुश्किलें नजर आ रही हैं और कांग्रेस के लिए अवसर ही अवसर। इन तथ्यों के मद्देनजर गुजरात में कांग्रेस के चुनाव प्रचार पर नजर डालें तो पार्टी में वह आत्मविश्वास नजर नहीं आता, वरना क्या कारण है कि कांग्रेस राज्य में विकास को मुद्दा बनाने के बजाय विकास का मजाक उड़ा रही है।

विकास को मुद्दा बनाने के बजाय उसका मजाक उड़ाया जाना राजनीति के पतन का एक और प्रमाण ही है। गुजरात में कांग्रेस का नारा ही है विकास पागल हो गया है। उसका दूसरा नारा है विकास बद्तमीज हो गया है। विकास तो अच्छा या बुरा हो सकता है। पागल और बद्तमीज कैसे हो सकता है? इसके बरक्स 22 साल से प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा कांग्रेस को चुनौती दे रही है कि वह विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़े। कांग्रेस विकास का मजाक तो उड़ा रही है, पर यह नहीं बता रही कि मतदाता ने उसे सत्ता सौंपी तो उसका विकास का एजेंडा क्या होगा? क्या वह कर्नाटक का मॉडल होगा या हिमाचल का? केरल का या महाराष्ट्र का या फिर संप्रग (जब कांग्रेस सत्ता में थी) का? पांच दशक से ज्यादा समय तक केंद्र और राज्यों में सत्ता में रही कांग्रेस आखिर विकास का अपना कोई वैकल्पिक मॉडल मतदाताओं के सामने क्यों पेश नहीं कर रही? मान लिया कि गुजरात का विकास का भाजपाई मॉडल खराब है, लेकिन आखिर उससे बेहतर मॉडल कौन सा है? किसी के काम में गलती निकालना आसान है पर उससे बेहतर करके दिखाना कठिन।

गुजरात में कांग्रेस का सारा प्रचार भाजपा शासन के विकास के मजाक पर आधारित है। राहुल गांधी के भाषण स्टैंड-अप कॉमेडी शो की तरह रहे हैं। ऐसे शो दर्शकों को थोड़ी देर हंसाने से ज्यादा प्रभाव नहीं छोड़ते। गुजरात में कांग्रेस की जीत राहुल के लिए 2019 लोकसभा चुनाव में संभावना के द्वार खोल सकती है। ऐसे गंभीर और चुनौतीपूर्ण अवसर को कोई राष्ट्रीय दल इस तरह कैसे गंवा सकता है? अपने भाषणों में राहुल जीएसटी का जिस तरह मजाक उड़ा रहे हैं और विरोध कर रहे हैं वह उन्हें एक गंभीर राष्ट्रीय नेता के रूप में पेश नहीं करता। जीएसटी आजाद भारत का ऐसा आर्थिक सुधार है जिसमें देश के करीब-करीब हर राजनीतिक दल और राज्य की न केवल भागीदारी है, बल्कि पूर्ण सहमति भी है। जीएसटी काउंसिल की अभी तक जितनी भी बैठकें हुई हैं उनमें से किसी में किसी भी मुद्दे पर मतदान की नौबत नहीं आई। यह इतना बड़ा सुधार है कि केंद्र सरकार और राज्यों ने अपने वित्तीय अधिकार जीएसटी काउंसिल को सौंप दिए हैं, जिसमें केंद्र सरकार अल्पमत में है।

जीएसटी लागू करने में दिक्कतों पर सरकार की आलोचना तो फिर भी समझ में आ सकती है, पर जीएसटी का मजाक उड़ाने का साहस तो राहुल गांधी ही कर सकते हैं।  राहुल जल्दी ही पार्टी का अध्यक्ष पद संभालने वाले हैं। क्या वह इतनी बड़ी जिम्मेदारी संभालते ही चुनाव में हार का तोहफा पार्टी कार्यकर्ताओं को देना चाहेंगे? ‘विकास पागल हो गया है’ के नारे का हश्र ‘मौत के सौदागर’ का न हो जाए। ऐसे नारों को अपने पक्ष में पलट देने में मोदी माहिर हैं। गांधीनगर में पार्टी कार्यकर्ताओं की सभा में वह इसका संकेत दे चुके हैं। राहुल गांधी को साबित करना है कि कम से कम अनुकूल परिस्थिति में वोट दिलाने की क्षमता उनमें है।

[लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं]