[ एमजे अकबर ]: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव को कितना समय बीता? इस सवाल पर अगर आपका जवाब पांच वर्ष है तब आप संवैधानिक रूप से सही, लेकिन तथ्यात्मक रूप से गलत हैं। वास्तविक रूप से देखें तो किसी प्रधानमंत्री के पांच वर्षों के कार्यकाल में तकरीबन डेढ़ साल तो चुनाव प्रचार अभियान में खर्च हो जाते हैं। यदि चुनाव का कैलेंडर पहले से निर्धारित हो और उसे योजनाबद्ध ढंग से मूर्त रूप दिया जाए तो चुनाव अभियान की यह अवधि तीन से चार महीनों में सिमट सकती है। इससे सामान्य राज-काज के लिए वास्तविक रूप से एक साल का वक्त और मिल जाएगा। इसकी पुष्टि के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल के दौरान के घटनाक्रम का विश्लेषण किया जा सकता है।

पीएम मोदी का लालकिले की प्राचीर से पहला भाषण

2014 में प्रधानमंत्री के रूप में लालकिले की प्राचीर से उन्होंने अपना पहला भाषण बमुश्किल खत्म ही किया होगा कि महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में चुनाव का बिगुल बज गया और उन्हें प्रचार अभियान में अग्रिम मोर्चा संभालना पड़ा। उनके कार्यकाल के अंत तक आते-आते राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनावी रण शुरू हो गया। इसके कुछ महीनों बाद ही आम चुनाव का आगाज हो गया। इस बीच बिहार, बंगाल और कर्नाटक जैसे राज्यों की राजनीतिक जरूरतें भी सामने आती रहीं।

योजनाओं का क्रियान्वयन

सैद्धांतिक रूप से विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनावों पर प्रभाव नहीं डालते। हालांकि राज्यसभा में संख्याबल के लिहाज से इसका अपना नफा-नुकसान होता है, मगर व्यावहारिक रूप में शासन की गति और रूपरेखा पर उसका अहम प्रभाव होता है। सुशासन केवल फाइलों तक सिमटी हुई योजनाओं से नहीं सुनिश्चित होता, बल्कि उन योजनाओं के कुशलतापूर्वक क्रियान्वयन से संभव होता है।

संघीय ढांचा

हमारे संघीय ढांचे के कई दिलचस्प पहलू हैं। उनमें से एक तो यही है कि इस ढांचे के सबसे सशक्त भाग यानी केंद्र सरकार भारत के किसी बड़े भूभाग पर प्रत्यक्ष रूप से शासन नहीं करती। केंद्र का प्रत्यक्ष नियंत्रण उन छिटपुट संघ शासित प्रदेशों तक सीमित है जिन्हें बस भ्रम ही कहा जा सकता है। भारत राज्य सरकारों द्वारा शासित होता है। हालांकि केंद्र अपनी खुद की राष्ट्रव्यापी नीतियों को लेकर पहल कर सकता है, लेकिन उनके व्यापक प्रबंधन का काम राज्य सरकारों के माध्यम से होता है। यह असमान विकास की एक वजह हो सकती है, लेकिन इस सिद्धांत का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। हम एक परिसंघ हैं और इसका स्वरूप इसी प्रकार होना चाहिए।

मोदी समस्याओं से परिचित थे

अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी उन समस्याओं से भलीभांति परिचित थे जिनका सामना उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में किया था। इसके चलते जीएसटी जैसे क्रांतिकारी सुधार में राजस्व को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच अगर कोई उलझन फंसी भी तो उसे कुशलतापूर्वक सुलझा लिया गया। अनुभव यही दर्शाते हैं कि विकास की धारा तभी तेज हुई जब केंद्र और राज्य दोनों में सद्भाव कायम रहा। ऐसा सद्भाव सदैव संभव है।

मोदी ने दलगत राजनीति आड़े आने नहीं दी

तब भी जब केंद्र और राज्य दोनों में अलग-अलग दलों की सरकार हो, लेकिन किसी भी राष्ट्रीय दल के लिए यह स्वाभाविक है कि वह अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री को वरीयता दे, मगर वर्ष 2014 में जबसे नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि शासन-प्रशासन के मामले में दलगत राजनीति कभी आड़े नहीं आ सकती। सहभागिता और गतिशील विकास ही वह पैमाना होना चाहिए जो एक साझा लक्ष्य के लिए सभी चुने हुए नेताओं को जोड़ने वाली कड़ी बने। इसमें जनता और राष्ट्र को प्राथमिकता मिले। हमारे समक्ष चुनौतियों की गंभीरता को देखते हुए कोई भी हार गवारा नहीं कर सकता।

मोदी के निर्णायक कदम

प्रधानमंत्री नए भारत का सपना साकार करना चाहते हैं जिसमें भयावह गरीबी पूरी तरह मिट गई हो और जहां आर्थिक वृद्धि का प्रतिफल सभी तबकों तक पहुंचे। प्रधानमंत्री मोदी से पहले भारत के आर्थिक शासन-प्रशासन में भूखे-गरीबों और नि:शक्तों में से किसी को या फिर दोनों को ही छोड़ दिया जाता था। मगर मोदी के निर्णायक कदमों ने गरीबों को सहभागी विकास का एक और इंजन बना दिया है। इसमें जन धन और मुद्रा योजना के जरिये पूंजीगत मदद से उनकी क्षमताओं में सुधार हो रहा है।

मजबूत नेता की मजबूत सरकार

यह नहीं कहा जा सकता कि पहले सत्ता में रहे नेताओं के इरादे अच्छे नहीं थे, लेकिन उनकी भली मंशा के बावजूद अपेक्षित नतीजे नहीं मिल पाए। तंत्र की सुस्त रफ्तार और निष्प्रभावी तौर-तरीके लोगों की बढ़ती आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर पाए। भारत की सबसे गरीब एक चौथाई आबादी अभी भी अपनी अगली खुराक को लेकर अनिश्चितता से जूझती है। वह अपने अस्तित्व के संकट से जूझने में लगी है। इस साल चुनाव में मतदान करने वालों ने वह महसूस किया जिसे स्वयंभू राजनीतिक पंडित नहीं भांप पाए कि एक मजबूत नेता को मजबूत सरकार के लिए संख्याबल भी चाहिए।

मोदी के दूसरे कार्यकाल का बड़ा प्रशासनिक सुधार

दूसरे कार्यकाल में त्वरित और नए तौर-तरीकों वाली शुरुआत दर्शाती है कि पीएम मोदी मतदाताओं विशेषकर युवाओं द्वारा उनके कंधों पर सौंपी गई जिम्मेदारी को लेकर कितने गंभीर और सचेत हैं। महज एक निर्णय के माध्यम से वह बीते सत्तर वर्षों में कहीं बड़े प्रशासनिक सुधार का सूत्रपात कर चुके हैं। इस निर्णय के तहत केंद्र सरकार में संयुक्त सचिव स्तर के 40 प्रतिशत पदों पर आइएएस सेवा से इतर विषय विशेषज्ञों की नियुक्ति की जाएगी। यह एक ऐसे संस्थान में सराहनीय परिवर्तन है जो स्वयं को किसी भी किस्म के बदलाव से बचाता आया है।

एक साथ चुनाव कराने का विचार नया नहीं

विपक्षी दल अक्सर किसी भी नए विचार का इस कारण विरोध करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि सत्तारूढ़ दल ने अपने हितों को साधने के लिए इसे लागू किया है। मगर सभी चुनावों को एक साथ कराने का विचार नया नहीं है। यह हमारे संविधान में वर्णित सबसे पुराने विचारों में से एक है। वर्ष 1952 से 1967 के बीच यह सामान्य चलन था। यह विसंगति तब आनी शुरू हुई जब कांग्रेस 1967 में पंजाब से लेकर बंगाल तक राज्य विधानसभाओं के चुनाव हार गई। उनकी जगह लेने वाली संयुक्त मोर्चा सरकारें जनादेश का पालन करने में बुरी तरह नाकाम रहीं। इससे चुनावी कैलेंडर की तस्वीर बदल गई।

1971 में समय से पहले चुनाव

कालांतर में यह कार्यक्रम और खंडित होता गया जब इंदिरा गांधी ने 1971 में समय से पहले चुनाव कराने का फैसला किया और बाद में तानाशाही के जरिये अपना कार्यकाल 1977 तक बढ़ा लिया। इस दशक में जो प्रावधान भूल सुधार के लिए बना था वही नया चलन बन गया। हम अभी तक उसके साथ अटके हुए हैं।

चुनावी विसंगति को दूर करने का समय

पीएम मोदी हमारे लोकतंत्र के मूल और व्यावहारिक स्वरूप को बहाल करने की कोशिश में जुटे हैं। हर पांच साल में चार महीने चुनावों के लिए आवंटित किए जा सकते हैं और शेष 56 माह लोकतंत्र के आधार यानी जनता की सेवा को समर्पित किए जा सकते हैं। वक्त आ गया है कि चुनावी विसंगति को संविधान की रूपरेखा और लक्ष्यों के अनुरूप सुसंगत किया जाए।

( लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

लोकसभा चुनाव और क्रिकेट से संबंधित अपडेट पाने के लिए डाउनलोड करें जागरण एप