[ हृदयनारायण दीक्षित ]: काल अखंड सत्ता है। दिन, रात, घटी, निमिष और मास वर्ष काल के भीतर हैं। अथर्ववेद के ऋषि भृगु ने बताया है कि ‘काल में जीवन है और काल में मृत्यु। काल से वायु है और काल से आयु।’ काल सबको बाहर से घेरे हुए है और भीतर भी सक्रिय है। काल में ही लोक हैं और राष्ट्र, समाज तथा राजनीति भी। काल का जन्म हुआ है। सृष्टि के पूर्व समय नहीं था। ऋग्वेद में जिज्ञासा है कि ‘तब न सत् था और न असत्। न दिक्, न आकाश। तब न रात्रि थी, न दिन। न जीवन, न मृत्यु। तब क्या था? केवल वह था। फिर सृष्टि आई, गति हुई। गति से समय का जन्म हुआ। जब तक गति तब तक काल प्रवाह। वर्ष, मास काल के भीतर हैं। वर्ष की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। फिर भी उसके विवेचन होते हैं।

अंग्रेजी कैलेंडर का 2018 जा रहा है। 2018 का जाना और 2019 का आना काल के भीतर है। गत को नमस्कार, आगत का स्वागत। 2018 में बहुत कुछ घटित हुआ है। भारत की विश्व प्रतिष्ठा बढ़ी है, लेकिन राजनीतिक क्षेत्र में मूल्य बोध घटा है। यह राष्ट्रजीवन का सर्वाधिक सक्रिय क्षेत्र है। यहां तेज रफ्तार गतिशीलता है। ‘पल भर में सदियां जीने’ की तत्परता है। साल 2018 स्वतंत्र सत्ता नहीं था। इसके पास पीछे के वर्षों के संस्कार और अच्छी बुरी आदतों के अनुभव थे। भारत दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र है। हम भारतीय आध्यात्मिक हैैं।

अध्यात्म का मूल अर्थ स्व-भाव बोध है। सो हर साल में खोया-पाया पर विचार भी करते हैं। राष्ट्रजीवन के आदर्श ही हमारा ध्येय बने रहते हैं। राष्ट्र, समाज, संस्थाओं से चलते हैं। समाज की आधारभूत संस्था ‘परिवार और विवाह’ है। 2018 में दोनों संस्थाओं का क्षरण हुआ। पूर्वज विश्व को भी परिवार बता गए थे। हमारे बिखरते परिवारों में 2018 में यह बिखराव और बढ़ा। विवाह संस्था पर ‘लिव इन रिलेशन’ का हमला हुआ। राजनीति में आदर्शहीनता बढ़ी। संसदीय कामकाज उत्पादक नहीं रहा। संसदीय कार्यवाही की गुणवत्ता ने निराश किया। राज्य विधानमंडलों में भी यही हुआ। संसदीय विशेषाधिकारों का अवमान हुआ। बेशक 2018 में अहम कानून भी बने, लेकिन उन पर जरूरी विमर्श नहीं हुआ।

पिछले कुछ वर्षों से राजनीति की दिशा नकारात्मक थी। 2018 में यह नकारात्मकता और बढ़ी। इसने व्यावहारिकता के नाम पर जीवन मूल्य धकियाए। संसदीय जनतंत्र में विपक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। विपक्ष ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही निशाना बनाया। व्यक्तिगत आक्षेपों की बाढ़ आई। दलतंत्र बुनियादी सवालों से भटक गया। 2018 के पूरे साल ‘मोदी हटाओ, भाजपा हटाओ’ का लक्ष्य ही प्रधान रहा। गठबंधन, महागठबंधन, कांग्रेसरहित गठबंधन, कांग्रेस सहित गठबंधन ही राजनीति के मुख्य विषय बने। आर्थिक नीतियों पर सार्थक चर्चा नहीं हुई। रोजी-रोजगार, खेती-किसानी और जनस्वास्थ्य के मुद्दे प्रमुख विषय नहीं बने।

मोदी सरकार ने गरीबों के उपचार के लिए प्रतिवर्ष पांच लाख रुपये की योजना घोषित की। दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना होने के बावजूद इसका स्वागत नहीं हुआ। भारत के प्रत्येक क्षेत्र तक बिजली पहुंच जाने की ऐतिहासिक घोषणा को भी विपक्ष ने नहीं सराहा। 2018 दल तंत्र में विचारहीनता की बढ़त के लिए याद किया जाएगा। 2019 में आम चुनाव हैं। अब नए दलों के प्रजनन, पुरानी सगाई तोड़ने और नया ‘लिव इन रिलेशन’ बनाने की ऋतु है। तमाम नए दल, गठबंधन बन रहे हैैं। चुनावी वर्ष वैसे भी मर्यादा तोड़ने का समय होता है। तब अपशब्द, व्यक्तिगत आरोप आक्षेप ही राजनीति का भाषा विज्ञान गढ़ते हैं। 2018 में इसकी शुरुआत हो चुकी है। आशंका है कि 2019 में इसका रूप भयावह ही होगा।

2019 में प्रवेश हो रहा है, लेकिन नववर्ष का हर्ष नहीं है। नववर्ष को भूतकाल का भार ढोना ही पड़ेगा। 2019 के सामने यक्ष प्रश्नों का पुलिंदा है। यक्ष ने युधिष्ठिर धर्मराज को भी प्रश्नों का उत्तर दिए बिना पानी पीने से रोका था। ऐसे ही कुछ मूलभूत प्रश्न हैं कि क्या दलतंत्र सर्वमान्य रूप में राष्ट्रहित को सर्वोपरि और दलहित को उसके बाद के क्रम में ही रखेगा? क्या दल अपनी विचारधारा को ही आगे रखकर चुनाव अभियान चलाएंगे? क्या जाति, मजहब और क्षेत्रवाद राजनीतिक अभियान से पृथक रहेंगे? क्या राजनीति व्यक्तिगत आरोपों से मुक्त होगी?

क्या 2018 की उपलब्धियां आगे बढ़ाने और गलतियां न दोहराने की शपथ ली जा सकती है? क्या हिंदुत्व और ध्येयसेवी हिंदू संगठनों को सांप्रदायिक कहने की घटिया आदत का दोहराव नहीं होगा? क्या राष्ट्रीय सुरक्षा के मसलों पर सार्वजनिक आक्षेपों से बचा जा सकेगा? क्या लोकतंत्र को सदाचरण से भर देने का प्रयास होगा? इसमें राष्ट्रहित के अन्य बिंदु भी जोड़े जा सकते हैं। राजनीति सोद्देश्य सकारात्मक परिवर्तन लाने का सत्कर्म है। क्या ‘राजनीति में सब कुछ जायज’ के प्रचलित व्यवहार से अलग रहने की महत्वाकांक्षा का विकास संभव है?

प्राचीन भारत में भी जनतंत्र था।

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संविधान सभा के अंतिम भाषण में कहा था कि ‘यहां प्राचीन काल में जनतंत्र था।’ ऋग्वेद में वरुण नाम के देवता हैं। वे शासक हैैं, लेकिन स्वच्छंद नहीं हैं। वे ‘धृतव्रत’ हैं। आचार संहिता से बंधे हैं। ऋग्वेद में स्तुति है ‘राजा स्थिर रहे। उसके आचरण से राष्ट्र का यश कम न हो-मा त्वाद्राष्ट्रमधि म्रशत्। राजा राष्ट्र को स्थिर रूप में धारण करे-राष्ट्रं धारयतां ध्रुवं।’ तब राजनीति तप कर्म और लोकमंगल का अधिष्ठान थी। स्वाधीनता संग्राम के मूल्य यही थे, लेकिन अब राजनीति हेय कर्म है। अब धांधली ही राजनीति का पर्याय है। खेल में बेईमानी तो कहते हैं राजनीति हो गई। पुरस्कार घोषित हुए, घपला दिखाई पड़ा। तात्कालिक प्रतिक्रिया यही होती है कि राजनीति हो गई।

डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि अल्पकालिक धर्म राजनीति है और दीर्घकालिक राजनीति धर्म। आखिरकार राजनीति की कोई आचार संहिता तो होनी ही चाहिए। राजनीति को विचारनिष्ठ बनाना ही होगा। क्या 2019 में ऐसी राजनीति की संभावनाएं हैं कि लोग हरेक अवसर पर मांग करें कि यहां-वहां सर्वत्र राजनीति ही होनी चाहिए।

प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में गणतंत्रीय व्यवस्था के राजनीतिक लोगों को मधुमक्खी कहा था, ‘मेरा आशय उन आलसी फिजूलखर्च लोगों से है, जिनमें दुस्साहसी नेता बन जाते हैं और दब्बू अनुयायी। मधुमक्खियां कुछ डंक वाली, कुछ डंकहीन।’ 2018 की राजनीति ने निराश किया है। हम यही निराशा और मर्यादाहीन आचरण लेकर 2019 में प्रवेश कर रहे हैं। तमाम आशंकाए हैं। भारत के सांस्कृतिक जीवन आदर्श महत्वपूर्ण हैैं। राष्ट्र के मूल्यबोध को सशक्त करना सबका कर्तव्य है।

भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा का मूल-केंद्रक संस्कृति है। आशंकाओं के बावजूद 2019 से तमाम आशाएं हैं। राजनीति की मूल्यहीनता को आदर्श आचार संहिता से जोड़ा जा सकता है। आश्चर्य है कि अपने देश में चुनावी आदर्श आचार संहिता तो है, लेकिन शेष समय अराजकता की छूट है। यहां पूरे समय की ‘राजनीतिक आदर्श आचार संहिता’ नहीं है। दलतंत्र इसे हमेशा के लिए अपना लें तो चुनाव के समय अलग से आचार संहिता की कोई जरूरत नहीं होगी? विचार और आचारशास्त्र के अभाव में ही विश्वास का संकट है। विश्वास है कि 2019 में कुछ नया होगा। 2018 से बेहतर।

( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैैं )