जगमोहन सिंह राजपूत : पिछले छह दशकों में मैंने भारत की राजनीति में विपक्ष और उसके विद्वत-वर्ग सहयोगियों को इतना व्यथित, व्यग्र और उग्र कभी नहीं देखा, जितना आज देख रहा हूं। नरेन्द्र मोदी उन्हें चैन से बैठने नहीं दे रहे हैं। जो लोग बेरोजगारी, महंगाई, किसान, भाईचारे, महिला अत्याचार और चीन इत्यादि पर चर्चा न होने से चिंतित थे, उन्हें मोदी ने एक नई समस्या में उलझा दिया है। वह स्वयं तो जापान, आस्ट्रेलिया और पापुआ न्यू गिनी जैसे स्थानों पर सारे विश्व का आकर्षण-केंद्र बने, लेकिन भारत में उनके विरोधियों की नींद उड़ गई।

मोदी नए संसद भवन का उद्घाटन करने जा रहे हैं, इस बात से उनके विरोधी इतने व्यथित हैं कि वे इस उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने पर तुल गए हैं। करीब 20 विपक्षी दलों के नेता सब कुछ भूलकर इस समारोह में किसी न किसी तरह मोदी के नाम के शिलापट्ट को नहीं देखना चाहते, जबकि पहले के प्रधानमंत्रियों ने संसद सौध का उद्घाटन किया या संसद की लाइब्रेरी की आधारशिला रखी। उसे वे याद भी नहीं करना चाहते। एक चर्चा में एक ‘सेक्युलर’ नेता जी कह गए-वे कुलीन लोग थे, उनकी बात अलग थी। विशेषाधिकारों में अनेक दशकों तक सराबोर रह चुका वर्ग मोदी को आज भी प्रधानमंत्री स्वीकार नहीं कर पाया है। बार-बार की असफलता से जनित उनकी व्यग्रता अब उग्रता में बदल गई है। यह आक्रोश उनकी सोचने की क्षमता को क्षीण करने के साथ उनकी भाषागत शालीनता को हर चुका है।

विपक्ष की ओर से नए संसद भवन के उद्घाटन का जैसा निकृष्ट तरीके से विरोध किया जा रहा है, उससे यदि कुछ साफ होता है तो यही कि भारत की राजनीति को अत्यंत निचले स्तर पर लाया जा चुका है। संवाद की संभावनाएं समाप्त की जा चुकी हैं। यदि ऐसा न होता तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम से लगने वाला शिलापट्ट उनके हृदय को विदीर्ण नहीं कर रहा होता। यदि विपक्ष कुछ पुरानी याद्दाश्त टटोले तो शायद उनकी पीड़ा कुछ कम हो जाएगी।

क्या यह उचित और सांत्वनादायक नहीं होगा कि ये लोग याद करें कि अंडमान-निकोबार की सेलुलर जेल का नाम राजीव गांधी के नाम पर रखने के पीछे कौन सी मानसिकता काम कर रही थी? वहां तो विनायक दामोदर सावरकर और कितने ही अन्य स्वतंत्र सेनानियों ने अमानवीय यातना झेली थी, जो आज भी लोगों के मन-मानस को उद्वेलित करती है। दिल्ली के कनाट प्लेस को राजीव चौक नाम क्यों दिया गया? यह सब काम किस कदर आंख मूंद कर किया जाता था, इसका एक उदाहरण मुझे बार-बार याद आता है। नवोदय विद्यालयों की संकल्पना का श्रेय राजीव गांधी को जाना चाहिए, लेकिन उन्हें जवाहर नवोदय विद्यालय कहा जा जाता है। पंडित नेहरू ने बड़े-बड़े योगदान दिए, लेकिन नवोदय विद्यालयों से उनका कोई जुड़ाव नहीं रहा। देश में जवाहर नवोदय विद्यालय जैसे उदाहरणों की कमी नहीं।

नरेन्द्र मोदी की ओर से नए संसद भवन के उद्घाटन को लेकर जो व्याकुलता विपक्ष में देखी जा रही है, वह हताशा की ही अभिव्यक्ति है। यहां यह याद करना भी उचित होगा कि सत्ताच्युत नेता नए संसद भवन के निर्माण के समय से ही चिंतित हो उठे थे। उनकी ओर से निर्माण रोकने के हरसंभव प्रयास किए गए, जो असफल रहे। वास्तव में नए संसद भवन के शिलापट्ट पर नरेन्द्र मोदी के नाम को लेकर चिंता तो तभी पैदा हो गई थी। अब वह अभिव्यक्ति पा रही है, लेकिन बहुत ही छिछले तरीके से।

विपक्ष का एक उद्घाटन समारोह को लेकर उभरा विघ्नसंतोषी स्वरूप भारत की राजनीति में अपरिपक्वता की पराकाष्ठा ही कही जा सकती है। विपक्ष की चिंता के विस्तार को देखकर लगता है कि उनके अनुसार देश के समक्ष कोई बड़ा संकट पैदा हो गया है। विरोध का स्रोत कांग्रेस पार्टी है, जिसे अनेक दशकों से केवल अपने परिवार के लोगों के नाम ही प्रत्येक स्थान पर देखने की आदत बन गई थी। यह उसी सोच का परिणाम है कि भारत में इस समय राजनीति में सारे विपक्ष का ध्यान सत्तापक्ष को हटाने में नहीं है। वह केवल एक व्यक्ति-नरेन्द्र मोदी को हटाने पर केंद्रित है। इसके लिए विपक्षी नेता किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। उनके प्रयास 21 वर्षों से चल रहे हैं, जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे। इनमें दस वर्षों के दौरान केंद्र सरकार ने नैतिक-अनैतिक के अंतर को भूलकर हर वह प्रयास किया, जिससे मोदी को अपराधी घोषित किया जा सके और वर्ग-विशेष के एकमुश्त वोट बटोरे जा सकें। वे जितना तपाते रहे, मोदी उतना ही निखरते रहे।

स्वार्थवश कुछ नेता लोग भले ही न मानें, व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत और हर भारतीय का सम्मान वैश्विक स्तर पर पिछले आठ-नौ वर्षों में तेजी से बढ़ा है। प्रधानमंत्री ने प्रारंभ में जो विदेश यात्राएं कीं, उनकी आलोचनाओं को याद करिए। इन यात्राओं ने भारत को अप्रत्याशित लाभ दिए। याद करें कि जीरो-बैलेंस खाता खोलने की कैसे हंसी उड़ाई गई। इन खातों में जब किसान सम्मान राशि सीधे जमा होती है, तब कट या कमीशन वालों का दुखी होना स्वाभाविक है।

यदि विपक्ष ने गांधीजी का मनोयोग से अध्ययन किया होता, तो उन्हें मोदी के विरोध का रास्ता नजर आ जाता। वे जन सेवा को अपना सकते थे। गांव-गांव जाकर जन सेवा कर सकते थे। हाशिये पर मौजूद लोगों के साथ रहकर उनके जीवन से तादात्म्य स्थापित कर सकते थे। जनता के हृदय में स्थान वही बना सकता है, जो उसकी पीड़ा को समझता हो। विपक्षी नेता यही दिखा रहे हैं कि उन्हें जनता की पीड़ा से कोई मतलब नहीं और इसीलिए वे सस्ती राजनीति कर रहे हैं।

(लेखक शिक्षा, सामाजिक सद्भाव और पंथक समरसता के क्षेत्र में कार्यरत हैं)