नई दिल्ली [राजनाथ सिंह सूर्य]। ऐसा लगता है कि अब भाजपा को कांग्रेस मुक्त अभियान चलाने की आवश्यकता नहीं रह गई है, क्योंकि सोनिया गांधी और राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने स्वत: भारत को कांग्रेस मुक्त करने की दिशा पकड़ ली है। वह शायद अंतिम पड़ाव पर भी पहुंच चुकी है। संवैधानिक संस्थाओं की अवमानना करते-करते कांग्रेस सर्वोच्च न्यायालय तक भी पहुंच गई। निर्वाचन आयोग को पक्षपाती करार देने और संसद को हुल्लड़बाजी का अखाड़ा बनाने के बाद जज लोया की स्वाभाविक मौत को हत्या बताकर उसे जिस सीमा तक विस्तार दिया गया उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है।

इस मामले में जब मनमाफिक फैसला नहीं मिला तो मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव ले आया गया। यह काम जिस आनन-फानन तरीके से किया गया उससे यही लगता है कि कैंब्रिज एनालिटिका ने चुनाव जीतने के लिए भारत में अनास्था का बवंडर खड़ा करने का जो उपाय सुझाया था उस पर अमल किया जा रहा है। सत्ताधारी दल कितनी भी सावधानी बरते, शासन संचालन में कुछ न कुछ कमी तो रह ही जाती है। उन कमियों को उजागर करने के बजाय काल्पनिक मुद्दों को झूठ के सहारे आगे बढ़ाने से क्षणिक भ्रम भले ही पैदा हो, कोई दूरगामी परिणाम नहीं मिलता।

उलटे वह ऐसा करने वालों के खिलाफ ही जाता है। महाभियोग मामले में ऐसा ही हुआ। महाभियोग प्रस्ताव राज्यसभा सभापति की टेबल से आगे भी नहीं जा पाया और कांग्रेस को खरी-खोटी अलग से सुननी पड़ी। इसके पहले कांग्रेस ने निर्वाचन आयोग को लांछित करने की कोशिश की थी, लेकिन गुजरात चुनाव के बाद झूठ पर टिका यह मसला उसके हाथ से निकल गया।

सत्ता में रहकर कांग्रेस ने भगवा आतंकवाद का जो मसला खड़ा किया था उसी का परिणाम 2014 के चुनाव में देखने को मिला था। अस्सी प्रतिशत आबादी को संदेह के कठघरे में खड़ा करने के परिणामों की अनदेखी कर कांग्रेस ने न केवल अपने को जनमान्यता में सबसे नीचे पायदान पर पहुंचा दिया, बल्कि देश के माहौल को भी विषाक्त बना दिया। एक अर्से से वह इस पर व्यस्त है कि अगर कहीं चींटी भी दबकर मर जाए तो उसके लिए नरेंद्र मोदी को दोषी बताना है। इस आदत ने कांग्रेस की नीयत और नीति, दोनों को बेनकाब किया है।

जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी यह कहते हैं कि मोदी उनके सामने 15 मिनट भी खड़े नहीं रह सकते तो उनकी इस बात पर हंसी भी नहीं आती। जहां मोदी बिना पर्ची के सहारे किसी विषय पर घंटे भर से भी अधिक वक्तव्य देते हुए बार-बार देखे गए हैं वहीं राहुल गांधी बिना पर्ची के सहारे 15 मिनट तक भी बोलते नहीं दिखाई पड़ते और यह स्पष्ट ही है कि पढ़कर दिया जाने वाला भाषण किसी को प्रभावित नहीं करता। इस पर यकीन करना कठिन है कि सगे-संबंधियों सहित घोटाले में फंसा कांग्रेस नेतृत्व संवैधानिक संस्थाओं की अवमानना की राह पर आगे बढ़ता हुआ मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव तक चला गया और वह भी बिना किसी ठोस आधार के।

कांग्रेस एक बार फिर 1975 के समान न्यायालय की अवमानना करती दिखी। कांग्रेस को पता होना चाहिए था कि उसके इस कदम की सर्वत्र भर्त्सना होगी। फली नरीमन और सोली सोराबजी जैसे विधि विशेषज्ञों ने जिस स्वर में इस कदम की भत्र्सना की वह उसकी आंख खोलने के लिए काफी होना चाहिए। कहीं महाभियोग प्रस्ताव का मकसद मुख्य न्यायाधीश को भयभीत करना तो नहीं था ताकि जो मामले उनके समक्ष विचाराधीन हैं उनके बारे में वह किसी नतीजे पर पहुंचने से डर जाएं। ध्यान रहे कि विचाराधीन मामलों में अयोध्या मसला भी है। इस मामले की सुनवाई शुरू होते ही बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और पर्सनल लॉ बोर्ड के वकील की हैसियत से कांग्रेसी सांसद एवं वकील कपिल सिब्बल ने जो दलील दी थी उसी में सारा रहस्य छिपा है। उन्होंने न्यायालय में जोर देकर कहा था कि इस मामले की सुनवाई 2019 के आम चुनाव तक टाल दी जाए।

इसके पक्ष में वह कोई सार्थक तर्क नहीं दे सके। अक्टूबर में अवकाश प्राप्त कर रहे मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में गठित पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही है। यदि यह पीठ फैसला कर देती है तो उसका लाभ भाजपा को मिल सकता है, भले ही फैसला कुछ भी हो। इससे एक बात और साफ है कि अयोध्या मामले

में साक्ष्यों के आधार पर जिस प्रकार का फैसला आने की उम्मीद है उससे कुछ लोगों को अपनी राजनीतिक दुकानें बंद होने की चिंता सता रही है। इसी चिंता में ही वे अयोध्या मामले को लटकाए रखना चाहते हैं। कांग्रेस भी इसी में अपना राजनीतिक हित देख रही है। ऐसे लोगों ने ही तीन तलाक संबंधी विधेयक को राज्यसभा से पारित नहीं होने दिया। इतना ही नहीं, इन्हीं लोगों ने बैंकों से लोन लेकर विदेश भाग जाने वालों की संपत्ति जब्त करने संबंधी विधेयक में भी अड़ंगा लगाया।

अनुसूचित जाति-जनजाति उत्पीड़न कानून पर भी सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को जातीय-वर्गीय तनाव बढ़ाने के लिए उपयोग किया गया। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का दोष भी मोदी सरकार पर मढ़ने की कोशिश हुई। ऐसा लगता है कि कांग्रेस इस साम्यवादी सिद्धांत का शिकार हो गई है कि अतीत के सामाजिक शिष्टाचार और राजनीतिक आचारविचार को नष्ट किए बिना नया समाज नहीं खड़ा किया जा सकता। शायद इसीलिए निर्वाचन आयोग, संसद, सर्वोच्च न्यायालय को संदिग्ध साबित करने और उनकी साख मिट्टी में मिलाने का अभियान चल रहा है।

कभी-कभी तो लगता है कि कांग्रेस माक्र्सवादी चुनावी रणनीति का एक मोहरा भर बनकर रह गई है। कांग्रेस उन वकीलों को भी मोहरे की तरह इस्तेमाल करती दिख रही है जो बात-बात पर जनहित याचिका दायर करते रहते हैं। ये वे वकील हैं जो वैचारिक तौर पर अंध मोदी विरोध से ग्रस्त हैं। वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे को संदेह है कि ये वकील अदालत का सहारा लेकर मोदी सरकार को अस्थिर करने की हद तक जा सकते हैं। राजनीतिक संस्था के रूप में कांग्रेस अपनी मान्यता खो रही है। वह छीना-झपटी करने वालों के समान असावधान लोगों पर हाथ साफ करने में लगी है। इसका आभास इससे भी मिल है कि कई कांग्रेसी नेताओं ने भी महाभियोग प्रस्ताव को अनुचित बताया। सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश को घेरने की कोशिश के तमाम पहलू हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण पहलू है अयोध्या मामला, जिसे कांग्रेस हल होते नहीं देखना चाहती। एक ओर वह इस मसले के हल में अडंगा भी डाल रही है और दूसरी ओर रामजन्मभूमि मंदिर का ताला खुलवाने का श्रेय भी लेती है।

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं स्तंभकार हैं)