[ संजय गुप्त ]: विधानसभा चुनाव वाले पांच में से तीन राज्यों के भाजपा शासित होने के कारण उन पर कुछ ज्यादा ही निगाह होना स्वाभाविक है। इन तीन में से एक छत्तीसगढ़ में मतदान हो चुका है और दो अन्य राज्यों-राजस्थान एवं मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार जोरों पर है। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में ध्यान अधिक केंद्रित होने का एक कारण यह भी है कि यहां भाजपा की सीधी टक्कर कांग्रेस से है। तेलंगाना और मिजोरम में स्थिति भिन्न है। चूंकि भाजपा शासित छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान विधानसभा चुनावों के नतीजे अगले आम चुनाव के बारे में भी संकेत देंगे इसीलिए यहां के चुनावों को लोकसभा चुनावों का सेमीफाइनल भी कहा जा रहा है। इन तीनों राज्यों में लोकसभा की 65 सीटें हैैं। पिछले लोकसभा चुनाव में इनमें करीब 60 भाजपा के हिस्से में गई थीं। हालांकि मतदाता विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अलग-अलग ढंग से वोट देते हैं, लेकिन कई बार विधानसभा चुनावों के नतीजे लोकसभा चुनावों पर असर भी डालते हैैं। इन तीनों राज्यों में भाजपा को सत्ता विरोधी रुझान का सामना करना पड़ रहा है तो यह स्वाभाविक है, क्योंकि छत्तीसगढ़ में रमन सिंह और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान अपने चौथे कार्यकाल के लिए चुनाव मैदान में हैैं।

भाजपा को छत्तीसगढ़ की तरह मध्य प्रदेश में भी इसलिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा, क्योंकि तमाम विकास कार्यों के बाद भी आम जनता और खासकर ग्रामीण क्षेत्र की जनता में कुछ मसलों को लेकर असंतोष है। इस असंतोष का मूल कारण सफल मानी जाने वाली भावांतर योजना के बाद भी किसानों की हालात में अपेक्षित सुधार न होना है।

यह ध्यान रहे कि चुनावों में ग्रामीण मतदाता और खासतौर पर किसान ही निर्णायक साबित होते हैैं। वे बदलाव के पक्ष में तब जाते हैं जब या तो गहरे संकट में हों या फिर किसी भावनात्मक मुद्दे से प्रभावित हो गए हों। यह सही है कि शिवराज सिंह के प्रयासों से मध्य प्रदेश कृषि में सबसे बड़ा उत्पादक राज्य बना, परंतु औद्योगिक विकास के नाम पर राज्य में उतना कुछ नहीं हो सका जिसकी अपेक्षा थी। इसी कारण रोजगार के अवसरों में कमी दिखती है। इस सबके बावजूद शिवराज सिंह सामाजिक विकास की अपनी योजनाओं के कारण खासे लोकप्रिय हैं। यह लोकप्रियता ही भाजपा की एक बड़ी ताकत है। यह भी उनके पक्ष में है कि कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद का सुनिश्चित दावेदार नहीं है। बसपा का कांग्रेस से अलग होकर चुनाव लड़ना भी भाजपा के लिए फायदेमंद हो सकता है।

विरोधी दल छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में विकास की कमी को लेकर रमन सिंह और शिवराज सिंह पर चाहे जितना निशाना साधें, लेकिन दोनों राज्यों में कई क्षेत्रों में विकास के उल्लेखनीय काम हुए हैं और वे जमीन पर नजर भी आते हैैं। मुश्किल यह है कि इसके बावजूद न तो छत्तीसगढ़ में विकास एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बन सका और न ही मध्य प्रदेश में बनता दिख रहा है। इसका एक कारण विपक्षी दलों और खासकर कांग्रेस की ओर से किए जाने वाले लोक लुभावन वायदे और विकास से इतर उठाए जाने वाले मसले हैैं। शायद इसका कारण यह है कि कांग्रेस के पास छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में रमन सिंह और शिवराज सिंह सरीखे कद्दावर नेता नहीं हैं। छतीसगढ़ में कांग्रेस के बागी नेता अजीत जोगी ने बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला करके एक तरह से भाजपा के लिए ही स्थिति आसान की। चुनाव नतीजे कुछ भी हों, यह ठीक नहीं कि विकास पर इतना जोर देने के बाद भी भाजपा छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में उसे मुख्य चुनावी मुद्दे में तब्दील नहीं कर सकी। अगर चुनावी राजनीति इस तरह विकास के मुद्दों को हाशिये पर ले जाती रहेगी तो फिर भावनात्मक मसले ही चुनावी मुद्दा बनेंगे।

राजस्थान का मामला छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश से भिन्न है। इस राज्य में हर पांच साल में सत्ता बदलने का सिलसिला कायम है। इसी कारण मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के लिए मुश्किल दिख रही है। उनका मुकाबला कांग्रेस के सचिन पायलट और अशोक गहलोत से है। दोनों ही मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैैं। कांग्रेस नेतृत्व ने जिस तरह दोनों को चुनाव मैदान में उतारने का फैसला किया उससे यही पता चल रहा कि वह किसी एक को मुख्यमंत्री के दावेदार के तौर पर आगे लाने का साहस नहीं जुटा सका। इसके चलते पार्टी में गुटबाजी है और अब तो अशोक गहलोत यहां तक कह रहे हैैं कि कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद के एक नहीं सात दावेदार हैैं। भाजपा इसी गुटबाजी को भुनाने की कोशिश में है। यह बात और है कि गुटबाजी भाजपा में भी है। दोनों दलों को विद्रोहियों का भी सामना करना पड़ रहा है। हालांकि वसुंधरा राजे सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में विकास पर काफी ध्यान दिया है, लेकिन देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले राजस्थान अभी भी पीछे दिखता है। देखना है कि आने वाले दिनों में चुनाव प्रचार विकास पर केंद्रित हो पाता है या फिर मध्य प्रदेश की ही तरह स्थिति बनती है?

हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी चुनावी सभाओं में विकास के मसले पर ही केंद्रित दिख रहे हैैं, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ऐसे मसलों पर जोर देने के बजाय राफेल, नोटबंदी, सीबीआइ आदि से जुड़े मसलों पर भाजपा को घेरने में लगे हुए हैैं। जब एक पक्ष विकास के मुद्दों को प्राथमिकता नहींं देता तो फिर दूसरे पक्ष के लिए भी यह मजबूरी बन जाती है कि वह भी वैसे ही तौर-तरीके अपनाए।

भावनात्मक मसले किस तरह विकास के मुद्दों को पीछे धकेल देते हैैं, इसका एक उदाहरण इन दिनों अयोध्या मसले का यकायक सतह पर आ जाना है। यह मसला इसलिए सतह पर आया, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने इस विवाद की सुनवाई अगले साल के लिए टाल दी। इसके साथ ही आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद और अन्य संगठनों ने अपना असंतोष प्रकट करना शुरू कर दिया। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैैं कि शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे इसीलिए अयोध्या पहुंचे, क्योंकि राम मंदिर मसले को तूल देकर वह भाजपा को मात देना चाहते हैैं।

कहना कठिन है कि वह इसमें कितना सफल होते हैैं, लेकिन इससे अयोध्या मसले का और उभरना तय है। जो अन्य विपक्षी नेता राम मंदिर को लेकर भाजपा पर तंज कस रहे हैैं वे भी कहीं न कहीं अयोध्या मसले को उभारने का ही काम कर रहे हैैं। हालांकि यह स्पष्ट है कि अयोध्या विवाद सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विचाराधीन होने के कारण मोदी सरकार उस पर कुछ करने की स्थिति में नहीं, लेकिन उसके पास इसका भी कोई उपाय नहीं कि इस मुद्दे पर राजनीति न हो सके। इस पर गौर करें कि अब तो कांग्रेसी नेता भी यह कहने लगे हैैं कि राम मंदिर तो कांग्रेसी पीएम ही बनवाएगा। यह बात और है कि नरम हिंदुत्व अपनाने का प्रदर्शन कर रही कांग्रेस के नेता कमलनाथ का वायरल हुआ वीडियो यही कह रहा है कि कांग्रेसी नेता दोहरी नीति पर चल रहे हैैं। राजनीति के ऐसे रंग-ढंग को देखते हुए यह साफ है कि विकास की राजनीति अभी भी एक कठिन काम है।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]