[राजीव कुमार] जब 16वीं लोकसभा का अंतिम सत्र संपन्न हुआ तो इस सदन की कार्यवाही देखते हुए मुझे अपार गर्व की अनुभूति हो रही थी। हमारा देश इकलौता तो नहीं, लेकिन उन चुनिंदा देशों में जरूर है जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्वतंत्रता हासिल की और इन सात दशकों के दौरान अपनी लोकतांत्रिक जड़ों को और मजबूत किया। हालांकि कुछ लोग कहेंगे कि भारत को इसकी भारी कीमत भी चुकानी पड़ी है जैसे उसे ऊंची वृद्धि के लिए कई आर्थिक अवसर गंवाने पड़े। भले ही यह कुछ हद तक सही हो, लेकिन भारत में नागरिकों के लिए स्वतंत्रता और मूल अधिकारों की संवैधानिक गारंटी वाले पूर्ण रूप से विकसित संसदीय लोकतंत्र के अलावा और कोई विकल्प भी नहीं था।

मानव इतिहास में ऐसी कम ही मिसालें हैं जहां किसी देश ने अपने नागरिकों के लिए लोकतांत्रिक अधिकार सुनिश्चित करते हुए स्वयं को गरीब अर्थव्यवस्था की स्थिति से बाहर निकालकर तेज वृद्धि के पथ पर अग्रसर किया हो। अब देश में आम चुनाव होने जा रहे हैं। अपनी व्यापकता और स्वरूप को देखते हुए ये चुनाव भी दुनिया के लिए एक मिसाल हैं कि इतना बड़ा आयोजन अपेक्षाकृत कितने शांतिपूर्वक रूप से संपन्न होता है। मुङो महसूस होता है कि अब हम एक बड़ी सफलता के मुहाने पर हैं और इस दौरान हम कई मोर्चो पर कायाकल्प होते देख रहे हैं।

बीते कुछ वर्षो विशेषकर विगत पांच वर्षो के घटनाक्रम से हम देख सकते हैं कि चुनावी सफलता के लिए धीरे-धीरे हमने प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद से सुशासन की ओर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया है। सरकारों का समग्र कामकाज और विशेषकर आर्थिक मोर्चे पर प्रदर्शन ही सत्तारूढ़ दलों की नियति तय कर रहा है। इसी आधार पर उनकी सत्ता में वापसी या विदाई हो रही है। हालांकि चुनाव नतीजों में जातिगत समीकरणों और राजनीतिक दलों के साथ वफादारी जैसे पहलू भी अहम होते हैं, लेकिन सुशासन और आर्थिक प्रदर्शन को जरा भी नकारा नहीं जा सकता। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण बदलाव है।

उम्मीद है कि आने वाले कुछ वर्षो में यह प्रक्रिया तेज होकर अपना प्रभाव और मुखर रूप से दिखाएगी। अब राज्यों में निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए प्रतिस्पर्धा हो रही है। वे अपने इन्फ्रास्ट्रक्चर और सामाजिक ढांचे को सशक्त बनाने के लिए कड़े प्रयास कर रहे हैं। कारोबारी सुगमता की सूची में ऊपर चढ़ने के लिए भी राज्य तत्परता दिखा रहे हैं। साथ ही स्वास्थ्य, पोषण और शैक्षणिक उपलब्धियों में बेहतर परिणाम पाने की आकांक्षा भी उनमें बढ़ी है।

यह प्रतिस्पर्धी संघवाद का भाव है जिसे नीति आयोग द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में दी जाने वाली अंतरराज्यीय रैंकिंग से बड़ा प्रोत्साहन मिला है। हमारी युवा आबादी की बढ़ती आकांक्षाएं भी प्रशासकों को सभी स्तरों पर प्रदर्शन सुधारने और बेहतर नतीजे देने की दिशा में उन्मुख कर रही है। आने वाले वर्षो में जब सुशासन के लिए प्रतिस्पर्धा का रुझान और तेज होगा तब आम भारतीयों को शासन में व्यापक पारदर्शिता, जवाबदेही और सक्षमता का लाभ मिलेगा। सात दशकों तक कमजोर, नरम, साठगांठ और शोषक राज्य वाले स्वरूप से पीड़ित होने के बाद आखिरकार भारत ‘विकास समर्पित राज्य’ का फायदा उठाने जा रहा है।

यह भी महत्वपूर्ण है कि आर्थिक गतिविधियों को संचालित करने वाले कायदे-कानूनों में निर्णायक रूप से बदलाव आया है। बेनामी लेनदेन संशोधन अधिनियम, रियल एस्टेट नियामक अधिनियम यानी रेरा और ऋणशोधन एवं दिवालिया अधिनियम के लागू होने से जालसाजों के लिए फर्जी निवेश के जरिये काला धन और संपत्ति बनाने के रास्ते बंद हो गए हैं। इससे बैंकिंग तंत्र को भी बड़ी राहत मिली है, क्योंकि ऐसे जालसाजों की वजह से बैंकों को अतीत में तगड़ा चूना लगता रहा है। अब निवेशकों को हर किस्म के जोखिमों को साझा करना पड़ता है।

फर्जी कंपनियों पर बड़ी कार्रवाई करते हुए 2.5 लाख से अधिक ऐसी कंपनियों को बंद कर दिया गया है। इससे उन लोगों को कड़ा संदेश गया है जो काले धन को सफेद करते थे या फिर कर चोरी के लिए ऐसी कंपनियों का इस्तेमाल करते थे। इसका फायदा पारदर्शिता से काम करने वालों को मिला है। उनके लिए प्रत्यक्ष करों का ढांचा आसान बनाया जा रहा है और तमाम कंपनियों के लिए कारपोरेट टैक्स की दर को कम किया गया है। लगभग 95 फीसद कंपनियों को इस कटौती का लाभ मिला है।

कारोबारी सुगमता की वैश्विक रैंकिंग में भी भारत बीते चार वर्षो के दौरान अभूतपूर्व छलांग लगाते हुए 142वें स्थान से 77वें स्थान तक पहुंच गया। साथ ही साथ प्रतिस्पर्धा एवं नवाचार सूचकांक में भी ऊपर चढ़ने से भी निवेश के समग्र चक्र में सुधार हुआ है। इसी तरह औद्योगिक नीति एवं संवर्धन विभाग यानी डीआइपीपी द्वारा निवेशकों के नजरिये से तैयार की जा रही कारोबारी सुगमता की राज्य आधारित रैंकिंग से भी आने वाले वक्त में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआइ के मोर्चे पर बड़ा सुधार दिखेगा।

सभी उत्पादन क्षेत्रों के लिए एफडीआइ के प्रावधान सरल और उदार हुए हैं। इनमें रक्षा और रियल एस्टेट जैसे क्षेत्रों में एफडीआइ के लिए सीमा को बहुलांश स्तर तक बढ़ा दिया गया है। अर्थव्यवस्था काफी संगठित एवं औपचारिक हुई है और लाइसेंस एवं कंट्रोल राज अतीत के किस्से बन गए हैं। अब कोई भी ईमानदार निवेशक केंद्र या राज्य में नौकरशाही के स्तर पर अंदरूनी पकड़ के बिना ही निवेश की योजना बना सकता है।

साठगांठ वाले पूंजीवाद और अपने करीबियों के लिए ‘फोन बैंकिंग’ यानी सिफारिशी कर्ज का दस्तूर अब खत्म हो गया है। कुल मिलाकर सतत, तेज एवं समावेशी वृद्धि के लिए अर्थव्यवस्था के बुनियादी पहलू इससे पहले कभी इतने मजबूत नहीं रहे। देश के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया कि पांच वर्षो के दौरान औसतन सात प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई और इस दौरान मुद्रास्फीति भी साढ़े चार प्रतिशत के कम के दायरे में ही रही हो। ऐसा इसलिए संभव हुआ कि सरकार ने आरबीआइ को पूरी छूट दी कि वह मुद्रास्फीति के लक्ष्य को हासिल करने के लिए हरसंभव उपाय करे।

सरकार द्वारा अपनाई गई राजकोषीय ईमानदारी ने भी आर्थिक मोर्चे पर स्थायित्व में अहम भूमिका निभाई है। भविष्य में तेज आर्थिक वृद्धि के लिए यह एकदम सही है और इससे स्थाई रूप से ऊंची, समावेशी और सतत वृद्धि के लिए राह खुलेगी। सार्वजनिक सेवाओं की बेहतर स्थिति और प्रत्यक्ष लाभ अंतरण जैसे सुधारों के दम पर वृद्धि ने समाज के सबसे गरीब लोगों की आमदनी बढ़ाने का काम किया है।

नि:संदेह अभी भी काफी कुछ किया जाना शेष है, लेकिन इन तीन बुनियादी बदलावों से इसमें आगे और तेजी की ही उम्मीद की जा सकती है। अच्छी बात यह है कि भारत में लोकतांत्रिक और जननांकीय, दोनों फायदों के साथ आर्थिक वृद्धि की उम्मीद की जा सकती है। बैंकों से कर्ज की धारा फिर से बहनी शुरू हो गई है। जीडीपी के अनुपात में कर्ज के तकरीबन 50 फीसद के स्तर को देखते हुए नए निवेश की मांग आसानी से पूरी की जा सकती है। भारतीय अर्थव्यवस्था अब ऐसे दौर में दाखिल हो रही है जहां से दो अंकों वाली वृद्धि संभव हो सकती है।

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(लेखक नीति आयोग के उपाध्यक्ष हैं)