[ डॉ. एके वर्मा ]: जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं वैसे-वैसे कांग्रेस की बेचैनी बढ़ती जा रही है। एक बेचैनी इस बात को लेकर है कि क्या वह प्रमुख राष्ट्रीय विपक्षी पार्टी का वज़ूद बचा पाएगी और दूसरी यह कि विपक्षी दलों के संभावित महागठबंधन में क्या राहुल गांधी को राष्ट्रीय नेतृत्व हासिल हो सकेगा? इन बेचैनियों के बीच मूल प्रश्न यह है कि क्या कांग्रेस पार्टी मोदी सरकार और भाजपा के विरुद्ध कोई ऐसा राष्ट्रीय विमर्श गढ़ पाएगी जो देश की जनता को स्वीकार्य हो और जिससे उनको विस्थापित कर कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो सके? कुछ समय से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी राफेल सौदे को राष्ट्रीय विमर्श बनाने में पूरे मनोयोग से जुटे हैं। लड़ाकू विमान खरीद के इस मामले पर अब सर्वोच्च न्यायालय भी विचार कर रहा है। राहुल गांधी और कांग्रेस को लगता है कि इस मामले का वे वैसा ही प्रयोग कर सकते हैं जैसा राजीव गांधी के विरुद्ध विपक्ष ने बोफोर्स तोप सौदे में किया था जिससे कांग्रेस 1989 में लोकसभा का चुनाव हार गई थी और जनता दल की सरकार बनी थी।

यदि विमर्शों के इतिहास पर नजर डालें तो 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण और कांग्रेस के विभाजन से जूझ रहीं इंदिरा गांधी ने मार्च 1971 लोकसभा चुनाव में बांग्लादेश स्वतंत्रता में भारत की भूमिका को राष्ट्रीय विमर्श बनाया था। मार्च 1971 में ही बांग्लादेश ने पाकिस्तान से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की थी और जिस प्रकार भारतीय सेनाओं ने बांग्लादेश की मुक्ति वाहिनी की मदद की उससे पाकिस्तानी सेनाओं को दिसंबर 1971 में भारतीय सेनाओं के समक्ष दुनिया का सबसे बड़ा ‘सरेंडर’ करना पड़ा था। इस विमर्श का स्वरूप राष्ट्रीय था जिससे कांग्रेस को लोकसभा में 352 सीटें और 43.68 प्रतिशत वोट मिले। उसके बाद 1977 का चुनाव विपक्ष द्वारा आपातकाल को विमर्श बनाकर लड़ा गया। कांग्रेस हारी और जनता पार्टी की सरकार बनी। जनता पार्टी उत्तर भारत में तो आपातकाल को चुनावी विमर्श बनाने में सफल रही, मगर दक्षिण भारत में नहीं। इसी कारण आपातकाल के बावजूद दक्षिण भारत में कांग्रेस को आंध्र प्रदेश में 41, कर्नाटक में 26, केरल में 11 और तमिलनाडु में 14 सीटों सहित कुल मिलाकर 129 में 92 सीटें हासिल हुई थीं।

इसका कारण यह था कि आपातकाल में अनुशासन, सौंदर्यीकरण जैसे कार्यक्रम भी थे, लेकिन उत्तर भारत में परिवार नियोजन में बर्बरता और राजनीतिक विरोधियों के घोर उत्पीड़न के चलते कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी। 1980 में जनता पार्टी की आंतरिक कलह और फूट से कांग्रेस फिर जीती और 1984 के चुनावों में इंदिरा गांधी की हत्या के विरुद्ध कांग्रेस के पक्ष में सहानुभूति ज्यादा थी और विमर्श कम। राजीव गांधी कांग्रेस के नए नेता के रूप में लाए गए। उसके बाद भारतीय चुनावों में बोफोर्स का बोलबाला रहा जिसने 1989 में कांग्रेस को पुन: विपक्ष में पहुंचा दिया और वीपी सिंह देश के नए प्रधानमंत्री बने। वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी ने विकास को राष्ट्रीय विमर्श का मुद्दा बनाया और भाजपा को उनके नेतृत्व में उम्मीद से अधिक सफलता मिली।

लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय विमर्श का गंभीर और जनकल्याण का मुद्दा तो होना ही चाहिए। कौन उस मुद्दे को गढ़ता है, यह और बात है। सत्तापक्ष या विपक्ष की चतुराई इसी में है कि वह मुद्दा गढ़ने की पहल करे, लेकिन एहतियात इस बात की बरतनी चाहिए कि मुद्दे का स्वरूप राष्ट्रीय हो और वह ‘कुलीन’ के रूप में सीमित न होकर सामान्य जन का विमर्श बने। तो क्या राफेल सौदा सामान्य जन के विमर्श का मुद्दा बन सकेगा? शायद राहुल गांधी और कांग्रेस को भी पता होगा कि इसका उत्तर नकारात्मक है।

राफेल सौदे के मामले में निशाना मोदी पर है। शायद राहुल यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि जिन मोदी के बारे में देश में ज्यादातर लोग मानते हैं कि वह मेहनती, गरीब हितैषी और ईमानदार हैं उनकी उसी छवि पर प्रहार किया जाए और ऐसा करते हुए यह साबित किया जाए कि उनकी सरकार भी अन्य सरकारों की तरह भ्रष्ट है। एक बार जनता के मन में प्रधानमंत्री मोदी की छवि धूमिल हो गई तो चुनाव में भाजपा खुद-ब-खुद हार जाएगी, क्योंकि पार्टी में मोदी की वही स्थिति हो गई है जो कभी कांग्रेस में इंदिरा गांधी की हुआ करती थी। यानी मोदी ही भाजपा हैं। इसके पहले भी राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी को कुछ अमीर उद्योगपतियों का मित्र बताकर उनको गरीबों से अलग करने की नाकाम कोशिश कर चुके हैं।

अब राहुल ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ की भी बात नहीं करते जिसे वे राष्ट्रीय विमर्श का मुद्दा बना सकते थे। आखिर उन्होंने उसे राष्ट्रीय विमर्श का मुद्दा क्यों नहीं बनाया? वैचारिक विभिन्नताओं का देश होने के कारण भारत में किसी भी ‘आइडिया’ पर एकमत होना कठिन होता है और इसलिए यदि राहुल ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ को ‘नैरेटिव’ या विमर्श बनाने की कोशिश करते तो संभवत: एक या अनेक ‘काउंटर-नैरेटिव’ मैदान में आ सकते थे और तब जनमानस और जनसमर्थन दोनों ही विभाजित हो जाते जो कांग्र्रेस और संभावित महागठबंधन के लिए और नुकसानदेह हो सकते थे।

इस समय कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव चल रहे हैं। एक-दो राज्यों से राहुल के लिए अच्छी खबर आ सकती है और यदि वह चतुराई और गंभीरता से कोई राष्ट्रीय विमर्श विकसित करें तो संभवत: आगामी लोकसभा चुनावों में उसका लाभ कांग्रेस को मिल सकता है, लेकिन मोदी और भाजपा ने भी तो इसकी कोई काट सोची ही होगी। जिस प्रकार, 2017 के विधानसभा चुनावों में उज्ज्वला, जनधन, स्वच्छता, प्रधानमंत्री आवास योजना और बेटी-बचाओ जैसी योजनाओं को पार्टी ने जन विमर्श बनाकर उसका लाभ लिया उसी प्रकार लोकसभा चुनावों में अपनी कर्मठ और साफ-सुथरी छवि के साथ-साथ 10 करोड़ गरीब परिवारों को स्वास्थ्य बीमा योजना-आयुष्मान भारत एवं विकास-पुरुष की अपनी छवि को राष्ट्रीय विमर्श का मुद्दा बनाकर मोदी राहुल के राफेल को ध्वस्त करने की योजना बना रहे होंगे। इन दोनों के विमर्श में प्रभावी विमर्श कौन होगा, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन कहीं ऐसा न हो कि मोदी और राहुल के विमर्श ‘जन-विमर्श’ बनाम ‘अभिजन-विमर्श’ में बंट जाए। इस बारे में दोनों दलों के रणनीतिकारों को सोचना होगा।

राजनीतिक कद में राहुल गांधी अभी मोदी के सामने हल्के जरूर हैं, लेकिन विमर्श के मुद्दे में वह ताकत होती है जो ऐसी शख्सियत को वजनदार बना देती है। इसलिए 2019 के लिए प्रभावी विमर्श का चयन राहुल के लिए बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है, पर उनकी समस्या यह है कि उनके विमर्श का मुद्दा जन केंद्रित न होकर व्यक्ति केंद्रित और सकारात्मक न होकर नकारात्मक होता है। यह एक रणनीतिक विषय है। इससे आप संघर्ष शुरू होने से पहले ही उसमें हार सकते हैं। विचारधारा का मुद्दा पार्टी जनों के लिए होगा, जनता के लिए विकास और लोक कल्याण ही विचारधारा है, वही सरकार बनाने का औचित्य है। जब तक राजनीतिक पार्टियां इस संक्षिप्त राजनीतिक मर्म को नहीं समझेंगी तब तक राजनीतिक विमर्श गढ़ने में उनको सही दृष्टि और दिशा नहीं मिल सकेगी।

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं ]