[ डॉ. पुष्कर मिश्र ]: इन दिनों विश्व का सबसे बड़ा चुनाव भारत में चल रहा है। मानव इतिहास का यह सबसे बड़ा और महंगा चुनाव होने जा रहा है। माना जा रहा है कि 2016 के अमेरिकी चुनावों की तुलना में 2019 के भारतीय चुनाव डेढ़ गुने अधिक महंगे होने जा रहे हैं, जबकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था भारतीय अर्थव्यवस्था की तुलना में छह गुनी से अधिक बड़ी है। एक अनुमान के तहत 2019 के लोकसभा चुनावों का कुल खर्च लगभग 70 हजार करोड़ रुपये होने जा रहा है। कुल 543 सांसद चुने जाने हैं और इस हिसाब से प्रति सांसद चुनने का खर्च लगभग 129 करोड़ बैठ रहा है। एक अध्ययन के अनुसार संसद में 80 प्रतिशत प्रतिनिधि करोड़पति हैं। भारत में कुल करोड़पतियों की संख्या 81 हजार है। साफ है कि शेष भारत के प्रतिनिधित्व से संसद अछूती है। धनबल के अभाव में राजनीति की संभावना समाप्त होती जा रही है।

धन का जिस मात्रा में उपयोग हो रहा है उससे जनतंत्र के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है। छल, प्रपंच, धन का अधिक से अधिक उपयोग, छलबल और बाहुबल का उपयोग, वंशवाद, राजनीति का अपराधीकरण, भ्रष्टाचार आदि के प्रदूषण से वर्तमान भारतीय राजनीति त्रस्त है। अधिकांश नेताओं के लिए राजनीति व्यवसाय बन गई है। व्यवसायीकरण इस हद तक बढ़ गया है कि कई दल अपना टिकट तक बेच रहे हैं। राजनीति बाजार एवं पूंजी के हाथ की कठपुतली बन गई है। पैसे का खेल ग्रामसभा से लेकर लोकसभा चुनावों तक चल रहा है। सत्ताबल, धनबल और बाहुबल से प्रदूषित राजनीति अपना वर्चस्व लोक पर थोपे हुए है।

अधिकतर दलों के घोषणापत्र जनता के सामने आ चुके हैं, लेकिन विडंबना यह है कि अधिकांश चुनावी घोषणापत्र भ्रष्टाचार, कालाधन एवं चुनाव सुधारों पर मौन हैं। भ्रष्ट राजनीति न तो लोक को दिशा दे सकती है और न ही लोक में सम्मान अर्जित कर सकती है। स्वच्छ राजनीति के बिना स्वस्थ जनतंत्र का स्वप्न मृग मरीचिका है।

राजनीतिक आंदोलन के युग से गुजर रहे मानव इतिहास को अपनी सभ्यता के विकास क्रम में राजनीति को स्वच्छ करने की दिशा में गंभीर होना होगा। जीवन का प्रत्येक आचरण विशेषकर आर्थिक आचरण पूर्णतया पारदर्शी और मितव्ययी होना ही स्वच्छ राजनीति है। नैतिक बल से स्वच्छ राजनीतिक संस्कृति का अधिष्ठान रखते हुए राजनीति को उसके प्रदूषण से मुक्त करना होगा। स्वच्छ राजनीतिक संस्कृति पारदर्शिता, मितव्ययता, प्रश्न करने की क्षमता एवं मर्यादित आचरण से ही रूप लेती है।

पारदर्शिता से पाखंड दूर होता है। जनतंत्र में सत्ता से प्रश्न करने का अधिकार प्रत्येक जन को है। भारत में प्रश्नोपनिषद् की रचना हुई। अष्टावक्र की परंपरा में कटु प्रश्न करने का साहस और क्षमता स्वच्छ राजनीति का प्रतीक है। बदलते लोक की बदलती राजनीति में बदलाव के दो केंद्र हैैं-व्यक्ति परिवर्तन और व्यवस्था परिवर्तन। अधिकतर अकादमिक प्रयास व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में हैं। व्यक्ति परिवर्तन की दिशा में कार्य कर रही संस्थाओं पर ध्यान कम है। भारतीय सभ्यता का विमर्श व्यक्ति परिवर्तन से व्यवस्था परिवर्तन है। व्यक्ति परिवर्तन पीढ़ियों का निर्माण करता है इसलिए व्यक्ति परिवर्तन की परंपराओं का सुदृढ़ीकरण आने वाले परिवर्तन की आधारशिला है।

भारतीय सभ्यता ने अनादिकाल से स्वयं स्फूर्त व्यक्ति के आचरण में परिवर्तन लाने की परंपराओं को जन्म दिया है। पूर्व में यह ऋषि-परंपरा से और वर्तमान में संप्रदाय और पंथों की परंपरा से हो रहा है। ये परंपराएं राज्य पर कभी आश्रित नहीं रहीं। लोक में इनकी भूमिका राज्य से अधिक शक्तिशाली रही है। निवृत्ति मार्ग पर चलने वाली ये परंपराएं अपने नैतिक बल से लोक को दिशा देती रही हैं। वर्तमान युग में राज्य हर संस्था पर अपना वर्चस्व बना रहा है जो स्वस्थ नहीं है। सत्यनिष्ठा, कर्मठता, प्रामाणिकता, समता, न्याय के प्रति आग्रह एवं आचरण की शुद्धता आदि वे शाश्वत मूल्य हैैं जिनसे विरत होकर मानवता आगे नहीं बढ़ सकती। मूल्यों पर आधारित आचरण से ही नैतिक बल और आत्मबल का निर्माण होता है। व्यवस्था परिवर्तन का आग्रह करने वाला व्यक्ति यदि सत्यनिष्ठ, कर्मठ, सम दृष्टि युक्त, प्रामाणिक एवं न्याय परक न हो तो व्यवस्था चल नहीं सकती।

आज लोकसभा के कामकाज को देखें तो वह एक शोर सभा से अधिक कुछ भी नहीं नजर आती। नीति पर विमर्श में उसका कितना योगदान है, यह जगजाहिर है। चिंता की बात यह भी है कि विभिन्न संवैधानिक संस्थाएं अपना मूल्य खो रही हैं। नैतिक बल ही इनके सम्मान को स्थापित कर सकता है और वे लोक उन्नयन में अपनी महती भूमिका निभा सकती हैं। धनबल-बाहुबल के वर्चस्व से जनबल एकत्र करना अलग बात है और नैतिक बल एवं आत्मबल के अधिष्ठान से जनबल एकत्र करना अलग बात। पहला राजनीतिक प्रदूषण की ओर ले जाता है, दूसरा राजनीतिक स्वच्छता की ओर।

जनतंत्र में राजनीति को पूंजी केंद्रित नहीं जन केंद्रित होना है। जब तक चुनावी राजनीति धनबल से मितव्ययता की ओर नहीं बढ़ेगी तब तक वह स्वच्छता नहीं प्राप्त कर सकती। इसी तरह जब तक राजनीति को व्यवसाय बनाने वाले नेताओं से राजनीति मुक्त नहीं होती तब तक वह स्वच्छ नहीं होगी और जब तक राजनीति स्वच्छ नहीं होगी तब तक राजनीति का लोक पर नैतिक बल क्षीण रहेगा। वह लोक को सही दिशा देने का सामथ्र्य प्राप्त नहीं कर सकती। निर्वाचन आयोग को अपने संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए और कठोर होना होगा। राजनीतिक व्यय विशेषकर चुनावी व्यय के स्नोतों को पूर्णत: पारदर्शी बनाना होगा। राजनीतिक दलों को अपने टिकट बेचने बंद करने होंगे।

यह आश्चर्यजनक है कि अभी तक किसी भी दल ने ऐसे संकल्प नहीं लिए हैं। धनबल और बाहुबल पर आत्मबल और नैतिक बल अधिक भारी होता है। आवश्यकता इस पर भरोसा करने की है। निश्चित तौर पर सबसे अधिक आवश्यकता राजनीतिक क्षेत्र में है। जन-जन इस दिशा में आस लगाए बैठा है कि बदलाव होगा, राजनीति बदलेगी। सत्ता प्राप्ति ही राजनीति का साध्य नहीं है। सत्ता साध्य नहीं साधन है। राजनीति प्रगतिशील एवं विकासोन्मुखी हो, जन-जन के जीवन में परिष्कार आए और लोक को सही दिशा मिले, यही राजनीति का अभिप्राय है। नए भारत का निर्माण इसकी गौरवशाली सभ्यता में निहित है। भारतीय सभ्यता मानव जीवन में परिष्कार को बल देती है। जीवन में परिष्कार ही संस्कार है। यह बात महात्मा गांधी और पं. दीनदयाल उपाध्याय के जीवन से स्पष्ट है। नैतिक बल और स्वच्छ राजनीति के योग का उद्घोष ही मानव इतिहास को नई दिशा देगा और नए भारत का निर्माण करेगा।

( लेखक राजनीतिक मामलों के विश्लेषक हैं )