संजय गुप्त

आखिरकार राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बनने जा रहे हैैं। अध्यक्ष पद के चुनाव की कोरी औपचारिकता में केवल उन्होंने ही नामांकन किया और अब 11 दिसंबर को उनके निर्वाचन की घोषणा भर होनी है। कांग्रेस के कार्यकर्ता अपने उपाध्यक्ष की प्रोन्नति से उत्साहित हो सकते हैं, लेकिन इसके आसार कम ही हैं कि वह कांग्रेस की दशा-दिशा में कोई बड़ा परिवर्तन ला सकेंगे। सच तो यह है कि पिछले दो-तीन साल से सोनिया गांधी की अस्वस्थता के चलते राहुल ही एक तरह से पार्टी की कमान संभाल रहे थे और यह किसी से छिपा नहीं कि इस दौरान पार्टी की राजनीतिक गिरावट का सिलसिला तेज हुआ। तथ्य यह भी है कि राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा दिए जाने का एक और उदाहरण है। कांग्रेस नेता शहजाद पूनावाला ने राहुल के निर्वाचन की प्रक्रिया पर खुलकर सवाल उठाए, लेकिन परिवारवाद और चाटुकारिता में घिरी कांग्रेस ने उनकी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया। कांग्रेस के नेता भले ही राहुल की इस प्रोन्नति का विरोध न करें, लेकिन उनमें से अनेक अंदर ही अंदर इस पर चिंतित हो सकते हैं कि वह अध्यक्ष के रूप में क्या कर सकेंगे? चूंकि कांग्रेस का इतिहास आजादी के आंदोलन से जुड़ा रहा और उसने लंबे समय तक केंद्र और राज्यों की सत्ता पर राज भी किया इसलिए उसकी एक राजनीतिक अहमियत है, लेकिन यह भी साफ है कि सत्ता में लंबे समय तक रहने के बाद भी वह जनता की तमाम उम्मीदों को पूरी नहीं कर सकी। नि:संदेह पहले प्रधानमंत्री के रूप में जवाहर लाल नेहरू ने देश को कई ऐसी संस्थाएं दीं जो एक स्वतंत्र-संप्रभु और लोकतांत्रिक देश के लिए आवश्यक थीं, लेकिन उन्होंने ही इंदिरा को राजनीति में आगे बढ़ाने का काम किया। इसका समर्थन चाटुकारिता संस्कृति वाले कांग्रेसियों ने भी किया। इसी के साथ कांग्रेस में परिवारवाद की नींव पड़ी। नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री अवश्य बने, लेकिन उनके निधन के बाद जब प्रधानमंत्री के चयन की बारी आई तो इंदिरा को मोरारजी देसाई समेत अन्य वरिष्ठ नेताओं पर तरजीह दी गई। बाद में इंदिरा गांधी ने धीरे-धीरे कामराज समेत उन नेताओं को किनारे करना शुरू कर दिया जो पार्टी में बिखराव के समय उनके साथ खड़े हुए थे।


इंदिरा गांधी एक शक्तिशाली नेता के तौर पर अवश्य उभरीं, लेकिन उनके नेतृत्व में देश के आर्थिक ढांचे को मजबूती नहीं मिल सकी, क्योंकि उनकी नीतियां समाजवाद से ग्रस्त थीं। उन्होंने लाइसेंस-इंस्पेक्टर राज को ही बढ़ावा दिया, जिसके चलते आर्थिक विकास की दर को उपहास स्वरूप हिंदू विकास दर कहा जाने लगा था। उन्होंने देश को काले आपातकाल में धकेलने का काम कर भारत के लोकतांत्रिक अध्याय में एक काला धब्बा लगाया। आपातकाल के बाद 1977 में जनता पार्टी सत्ता में आई तो वह कुछ खास इसलिए भी नहीं कर सकी, क्योंकि उसे आर्थिक एवं प्रशासनिक रूप से एक कमजोर विरासत मिली थी। 1980 में इंदिरा को सत्ता में वापसी करने का मौका मिला तो वह पहले संजय गांधी को आगे बढ़ाने में जुटीं और फिर उनके निधन के बाद बड़े बेटे राजीव गांधी को। 1984 में उनकी हत्या के बाद राजीव गांधी जिस तरह प्रधानमंत्री बने वह भी परिवारवाद का प्रमाण ही बना। राजीव गांधी को न तो राजनीति का अनुभव था और न ही प्रशासन का। वह न तो जमीन से जुड़े थे और न ही राजनीति में आने के इच्छुक थे। बावजूद इसके कांग्रेस के चाटुकार उन्हें एक महान नेता बताने लगे। अनुभवहीनता के चलते वह खुद को मिले प्रचंड बहुमत के साथ न्याय नहीं कर सके। उन्होंने सुधार के छिटपुट प्रयास अवश्य किए, लेकिन जल्द ही गंभीर आरोपों से ऐसा घिरे कि सत्ता से बाहर हो गए। इसके बाद अल्पकालिक सरकारों ने देश को दीवालिया होने की कगार तक पहुंचा दिया। ऐसे कठिन हालात में 1991 में नरसिंह राव के नेतृत्व में बनी सरकार की ओर से किए गए बुनियादी आर्थिक बदलाव न केवल निर्णायक, बल्कि देश की दिशा बदलने वाले साबित हुए।
नरसिंह राव का कार्यकाल एक तरह से कांग्रेसी सत्ता का स्वर्णिम काल था। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि यह स्वर्णिम काल तब आया जब कांग्रेस गांधी परिवार के प्रभाव से मुक्त थी। अल्पमत की सरकार चलाने के बाद भी नरसिंह राव ने नौकरशाह रहे मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री के तौर पर साथ लेकर देश के भविष्य की नई इबारत लिखी। नरसिंह राव के नेतृत्व में लड़े गए आम चुनाव में कांग्रेस को हार मिली तो कांग्रेस में चाटुकारिता संस्कृति वाले नेता उनके खिलाफ सक्रिय हो गए और वह सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाने की पैरवी करने लगे, जबकि वह राजनीति में आने की इच्छुक नहीं थीं। कुछ समय बाद वह अध्यक्ष पद पर आसीन भी हो गईं। विडंबना यह रही कि जिन नरसिंह राव ने देश का भविष्य संवारा उनके निधन पर कांग्रेस ने उन्हें यथोचित सम्मान देने से भी इन्कार किया। कांग्रेस के बाहरी समर्थन से चलने वाली देवेगौड़ा और गुजराल सरकार के असफल रहने पर भाजपा सत्ता में आई और उसने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में देश को एक नई दिशा एक तरह से उन्हीं नीतियों पर चलकर दी जिनका सूत्रपात नरसिंह राव ने किया था। 2004 में भाजपा की चौंकाने वाली हार के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में जब संप्रग की सरकार बनी तो सोनिया ने प्रणब मुखर्जी के बजाय मनमोहन सिंह को इसीलिए प्रधानमंत्री बनाया ताकि सब कुछ उनके हिसाब से हो सके। राव के नेतृत्व में मनमोहन सिंह ने वित्तमंत्री के रूप में जितनी सफलता हासिल की थी वह सब सोनिया के नेतृत्व में नाकामी में बदल गई। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने सोनिया के रबर स्टैंप बनना पसंद किया। हालांकि राजीव गांधी की तरह राहुल भी अनमने से होकर राजनीति में सक्रिय हुए थे, लेकिन कांग्रेसी नेताओं का एक गुट जल्द ही उन्हें करिश्माई बताने के काम में लग गया। नतीजा यह हुआ कि वह पहले महासचिव बनाए गए और फिर उपाध्यक्ष।
बीते तीन-चार सालों की राहुल की नीतियां यह बताती हैैं कि उनकी कोई स्पष्ट सोच नहीं है। उन्होंने कभी लालू यादव के विरोध में उन्हें बचाने वाले अध्यादेश की प्रति फाड़ी और कभी उनके साथ खड़े होना पसंद किया। वह उत्तर प्रदेश में सपा को सत्ता से बाहर करने निकले थे, लेकिन जल्द ही उसी से हाथ मिलाकर चुनाव लड़ते दिखे। इन दिनों वह खुद को हिंदुओं के पैरोकार दिखने के लिए मंदिर-मंदिर घूम रहे हैैं। कांग्रेस को बढ़त तब मिलेगी जब राहुल गांधी स्पष्ट सोच और ठोस एवं वैकल्पिक नीतियों से लैस होंगे। वैकल्पिक विचार के नाम पर राहुल लोकलुभावन तौर-तरीकों से लैस हैैं। मुक्त अर्थव्यवस्था के इस दौर में इन तौर-तरीकों के लिए कोई जगह नहीं। देश को एक मजबूत विपक्ष की आवश्यकता है, क्योंकि तभी लोकतांत्रिक तौर-तरीकों को मजबूती मिलेगी। यह अजीब है कि जब राहुल को लोकतांत्रिक तौर-तरीकों को बल देना चाहिए तब वह दिखावटी तरीके से कांग्रेस अध्यक्ष बन रहे हैैं। ऐसे में यही लगता है कि यदि कभी कांग्रेस राहुल के नेतृत्व में सफल होगी तो उसका कारण भाजपा की गलतियां ही अधिक होंगी।

[ लेखक संजय गुप्त दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]