नई दिल्ली [ संजय गुप्त ]। फेसबुक पर सक्रिय लोगों की निजी जानकारी का विवरण चोरी करके उसका इस्तेमाल चुनाव को प्रभावित करने के लिए किए जाने की खबर ने दुनिया भर में हलचल पैदा की है। राजनीतिक दलों को सलाह देने वाली ब्रिटिश कंपनी कैंब्रिज एनालिटिका पर आरोप है कि उसने फेसबुक के पांच करोड़ उपभोक्ताओं का डाटा चोरी कर अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान छल-छद्म से डोनाल्ड ट्रंप की मदद की। माना जाता है कि उसने ऐसा ही काम ब्रिटेन के यूरोपीय समुदाय से अलग होने को लेकर कराए गए जनमत संग्रह-ब्रेक्जिट के दौरान भी किया और कुछ और देशों के चुनावों के समय भी। संदेह यह भी है कि इस कंपनी की सहयोगी फर्म ने भारत में भी ऐसा ही किया। इसे लेकर भाजपा और कांग्रेस में आरोप-प्रत्यारोप जारी है, लेकिन अभी वस्तुस्थिति सामने आना शेष है।

फेसबुक का व्यावसायिक इस्तेमाल

आज सोशल मीडिया कंपनियों में फेसबुक का नाम सबसे आगे है। दुनिया भर में इसके 220 करोड़ से ज्यादा यूजर्स हैैं। भारत में इसके यूजर्स की संख्या 25 करोड़ पहुंच चुकी है और वह तेजी के साथ ही बढ़ती जा रही है। आज फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और ऐसे ही अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म दुनिया भर में प्रचलित हैैं। जहां ऐसे प्लेटफॉर्म प्रचलित नहीं जैसे कि चीन में वहां उसकी अपनी सोशल मीडिया कंपनियां हैैं। सोशल मीडिया पर लोग एक-दूसरे से संवाद ही नहीं करते, विभिन्न मसलों पर अपने विचार भी व्यक्त करते हैैं और निजी जानकारियां भी साझा करते हैैं। सोशल मीडिया यूजर्स यह मानकर चलते हैैं कि खाने-पीने, घूमने-फिरने अथवा राजनीतिक-सामाजिक मसलों पर अपनी पसंद-नापसंद के बारे में वे जो कुछ भी लिखते हैैं वह उनके मित्रों-परिचितों या फिर एक निश्चित दायरे तक ही सीमित रहता है, लेकिन सच यह है कि इस सबके बारे में संबंधित सोशल मीडिया कंपनियों को पूरी जानकारी होती है। वे यह भरोसा तो दिलाती हैैं कि इस जानकारी का अन्यत्र इस्तेमाल नहीं होगा, लेकिन प्रभावी नियम-कानूनों के अभाव में उसका व्यावसायिक इस्तेमाल हो रहा है। लोगों की पसंद-नापसंद देखकर उन्हें प्रभावित करने के मकसद से उनके समक्ष एक खास तरह की विज्ञापन सामग्री और यहां तक कि झूठी और अधकचरी खबरें एवं फर्जी वीडियो आदि प्रेषित किए जाते हैैं।

सोशल मीडिया का इस्तेमाल चुनावों को प्रभावित करता है

फेसबुक डाटा चोरी का मामला यह बता रहा है कि अब सोशल मीडिया उपभोक्ताओं की निजी जानकारी का इस्तेमाल चुनावों को प्रभावित करने के लिए भी किया जाने लगा है। कुछ लोग इसे लेकर भ्रमित हो सकते हैैं कि आखिर ऐसा कैसे हो सकता है, लेकिन सच यही है कि सूचना तकनीक के सहारे लोगों की मनोदशा को इस तरह प्रभावित किया जा सकता है कि उन्हें इसका भान भी नहीं हो पाए। फेसबुक समेत अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के ऐसे साफ्टवेयर से लैस रहते हैैं जो यह भांपने में समर्थ होते हैैं कि भिन्न-भिन्न मामलों में किसी की रुचि-अरुचि क्या है? वे राजनीतिक-सामाजिक मसलों पर लोगों के रुझान की भी थाह ले सकते हैैं। यदि कोई किसी दल के बारे में तीखी टिप्पणियां कर रहा है या फिर किसी की सराहना कर रहा है तो यह भांपना कठिन नहीं कि वह किस दल का समर्थक अथवा विरोधी है? एक बार इसका आकलन हो जाए तो फिर राजनीतिक दलों के लिए काम करने वाली कंपनियों के लिए लोगों के विचारों को प्रभावित करना आसान हो जाता है।

फेसबुक उपभोक्ताओं का डाटा चुराकर उसका राजनीतिक इस्तेमाल

यह किसी से छिपा नहीं कि सोशल मीडिया के जरिये किस तरह किसी के पक्ष या विरोध में माहौल बनाने की कोशिश की जाती है। यह काम केवल चुनावों के दौरान ही नहीं, बल्कि अन्य अवसरों पर भी होता है। बहुत दिन नहीं हुए जब एक ओर जहां म्यांमार में र्रोंहग्या मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा था तो दूसरी ओर कुछ अन्य देशों में उन पर अत्याचार की फर्जी खबरें सोशल मीडिया पर फैलाई जा रही थीं। फेसबुक उपभोक्ताओं का डाटा चुराकर उसका राजनीतिक इस्तेमाल किए जाने के बाद भले ही फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग ने माफी मांग ली हो, लेकिन उसका कोई महत्व नहीं है, क्योंकि जो क्षति होनी थी वह हो चुकी है। यह मामला कितना गंभीर है, इसका पता इससे चलता है कि कैंब्रिज एनालिटिका को अपने सीईओ को बर्खास्त करना पड़ा है और फेसबुक की सहायक कंपनी वाट्सएप के सहयोगी संस्थापक रहे ब्रायन एक्टर ने लोगों से कहा है कि फेसबुक एकाउंट डिलीट कर दें। कई बड़ी कंपनियों ने ऐसा करना शुरू भी कर दिया है।

राजनीतिक दल सेफोलॉजी विशेषज्ञों की सेवाएं लेते हैैं

राजनीतिक दल एक अर्से से मतदाताओं के मूड को भांपने और उन्हें प्रभावित करने के लिए शोध-सर्वेक्षण का सहारा लेते आ रहे हैैं। इस तरह की रिसर्च को सेफोलॉजी कहा जाता है। अब करीब-करीब सभी दल सेफोलॉजी विशेषज्ञों की सेवाएं लेते हैैं ताकि वे मतदाताओं के मिजाज को जानकर अपनी रीति-नीति में बदलाव कर सकें या फिर चुनावी प्रचार सामग्री तैयार कर सकें। सेफोलॉजिस्ट लोगों के बीच जाकर उनके मूड का विश्लेषण करते हैैं, लेकिन कुछ हजार या लाख मतदाताओं के बीच जाकर उनके राजनीतिक रुझान को लेकर की जाने वाली रिसर्च के मुकाबले सोशल मीडिया एकाउंट के जरिये करोड़ों लोगों की पसंद-नापसंद के आधार पर किया जाने वाली रिसर्च कहीं ज्यादा सटीक और प्रभावी होती है। इसी कारण आज इस तरह का डाटा राजनीतिक दलों के लिए काम करने वाली कंपनियों के साथ-साथ अन्य तमाम कंपनियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गया है और उसकी खरीद-फरोख्त भी होने लगी है।

फेसबुक यूजर्स की निजी जानकारी की चोरी राजनेताओं की मदद के लिए हो रहा है

लोग सोशल मीडिया पर अपनी निजी जानकारी इस भरोसे दर्ज करते हैैं कि उसका इस्तेमाल उनकी सहमति से नहीं किया जाएगा, लेकिन कैंब्रिज एनालिटिका ने करीब पांच करोड़ फेसबुक यूजर्स की निजी जानकारी चुराकर उसका इस्तेमाल राजनेताओं की मदद के लिए किया। इसका खुलासा होने के बाद जहां अमेरिका, यूरोप के साथ अन्य देश फेसबुक के खिलाफ कार्रवाई करने की तैयार कर रहे हैैं वहीं भारत सरकार ने भी सक्रियता दिखाई है और उसने फेसबुक को चेताने के साथ कैंब्रिज एनालिटिका को नोटिस भेजकर जवाब तलब किया है, लेकिन कोई भी समझ सकता है कि केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है। सरकार को जल्द से जल्द ऐसे कठोर कानून बनाने होंगे ताकि सोशल मीडिया कंपनियां अथवा अन्य कोई लोगों की निजी जानकारियों का उनकी जानकारी के बगैर इस्तेमाल न कर सकें। अभी तो ऐसा लगता है कि यह काम बेरोक-टोक हो रहा है और इस संदर्भ में जो नियम-कानून हैं भी उनका सोशल मीडिया कंपनियां परवाह नहीं कर रही हैैं।

निजता के समक्ष नया खतराक ऐसे समय जब आधार कार्ड की जानकारी के जरिये लोगों की निजता प्रभावित होने को लेकर घमासान मचा हुआ है और मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष है तब आम जनता को यह भरोसा दिलाना आवश्यक है कि उसकी निजता की रक्षा होगी। नि:संदेह नई तकनीक का सहारा लेकर सोशल मीडिया कंपनियों ने लोगों को अपनी बात कहने और एक-दूसरे से संपर्क-संवाद का सहज-सरल माध्यम उपलब्ध कराया है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे लोगों की निजता में सेंध लगाने के साथ किसी देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को छल-छद्म से प्रभावित करने का काम करें। यदि सोशल मीडिया कंपनियों पर सही से लगाम नहीं लगी और उनके उपभोक्ताओं की निजी जानकारी का राजनीतिक इस्तेमाल रोका नहीं जा सका तो लोकतंत्र के समक्ष एक नया खतरा खड़ा हो सकता है।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]