[ कैप्टन आर विक्रम सिंह ]: दिल्ली दंगा ऐसा योजनाबद्ध दंगा था, जिसकी राजनीतिक पटकथा पहले ही लिखकर प्रभावों का आकलन कर लिया गया था। इसका नियंत्रण भी इस तरह हुआ कि जिसमें भारत विरोधी सांप्रदायिक और विदेशी शक्तियां अधिकतम लाभ की स्थिति में आ सकें। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के स्वागत की तैयारी भारत सरकार के साथ-साथ भारत विरोधी शक्तियों ने भी कर रखी थी। यह स्पष्ट है कि इन दंगों के लिए पहले से ही पेट्रोल बम, पत्थर, अवैध हथियारों का जखीरा जुटाया गया था। इसके बाद पश्चिमी मीडिया के लिए दिल्ली दंगा ट्रंप की यात्रा से बड़ा समाचार बनना ही था।

कट्टरपंथियों में निराशा का भाव था

दरअसल सांप्रदायिक राजनीति के आधार बने मुद्दों के समाप्त होते जाने से कट्टरपंथियों में निराशा का भाव था। तीन तलाक, 370, राम मंदिर पर निर्णय आदि को सामान्य मुस्लिम समाज बिना किसी विशेष प्रतिक्रिया के स्वीकार भी कर रहा था। उन्हें मुख्यधारा में समाहित करती एक राष्ट्रीय विमर्श की दिशा प्रकट होने लगी थी, लेकिन यह कट्टरपंथी एजेंडे के विपरीत था। सामान्य मुस्लिम मानस कहीं इस नए विकसित हो रहे राष्ट्रीय विमर्श के साथ न चला जाए इसलिए उसे रोकने के इंतजाम करने जरूरी थे। तीन तलाक दुनिया के अधिकांश मुस्लिम देशों में अवैध है, पर भारत में यह पहल कट्टरपंथियों को नागवार लगी।

भटकाव का बड़ा अभियान मुस्लिम समाज पर पड़ा

अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी किया जाना पाकिस्तान और कश्मीर के पाकपरस्तों को हतोत्साहित करने वाला तो था, लेकिन जहां तक शेष भारत के मुसलमानों का सवाल है उन्हें तो कश्मीर के भारत से बढ़ रहे जुड़ाव का स्वागत करना चाहिए था, पर मुस्लिम नेतृत्व की अस्वाभाविक प्रतिक्रिया सोचने पर मजबूर करती है। यहां से आगे कभी जेएनयू में लगाया गया आजादी का नारा नए-नए कलेवरों के साथ शाहीन बाग जैसी सभाओं में मजबूती से प्रकट होने लगा। यह भटकाव का एक बड़ा अभियान छिड़ गया। इस सबका जबर्दस्त प्रभाव शिक्षित-अर्धशिक्षित मुस्लिम समाज पर पड़ना अवश्यंभावी था।

बड़े पैमाने पर जातीय वोटों की खेती

बड़े पैमाने पर जातीय वोटों की खेती करने वालों और सांप्रदायिक-अलगाववादी शक्तियों ने हाथ मिला लिया है। राम मंदिर के पक्ष में न्यायालय के निर्णय को आम मुस्लिम मानस ने यह मानकर स्वीकार कर लिया था कि चलो विवाद सुलट गया, पर कट्टरपंथियों की ओर से इसे षड्यंत्र और दबाव का फैसला बताया जाने लगा। पर्दे के पीछे की शक्तियों का प्रयास यह था कि सांप्रदायिक विभाजन बढ़कर उस स्तर पर पहुंचे जहां से भारतीय मुख्यधारा में मुस्लिम समाज की वापसी असंभव हो जाए। यह जिन्ना के प्रयोग को दोहराने की कोशिश जैसा था। कट्टरवादी शक्तियों का लक्ष्य यह है कि भारतीय मुस्लिम वर्ग में असुरक्षा का भाव बढ़े और वह एक कट्टर सांप्रदायिक इकाई के समान व्यवहार करने लगे।

सीएए की खिलाफत करता मुस्लिम समाज

नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए भारत में शरण लिए पाक-बांग्लादेशी एवं अफगान शरणार्थियों को नागरिकता देने का कानून है। इसे लेकर मुस्लिम समाज में प्रारंभ में तो कोई विरोध नहीं था, लेकिन जैसे कहीं से इशारा मिला हो, इसे मुस्लिम विरोधी प्रचारित करते हुए विमर्श गढ़े गए। कट्टरपंथियों ने अचानक संविधान भी पढ़ लिया। कहा गया कि यह कानून संविधान के खिलाफ है, जबकि यह कानून देश के धार्मिक विभाजन का ही परिणाम है। पाकिस्तान में धार्मिक उत्पीड़न न होता तो इस कानून की आवश्यकता ही नहीं थी। धर्म इस अधिनियम में मात्र धार्मिक पीड़ितों को चिन्हित करने के लिए ही उपस्थित है, लेकिन एक प्रायोजित विमर्श को बार-बार दोहराकर देश में सांप्रदायिक वातावरण बना दिया गया। इसी दौरान देश ने शर्जील इमाम और पीएफआइ की गतिविधियों के बारे में जाना। इससे कट्टरपंथियों की सोच का निहितार्थ और भी स्पष्ट हो गया।

 राष्ट्रीय स्तर पर सीएए की विरोधी शक्तियों को एक मंच पर ले आया गया

जब हम सीएए के बाद के घटनाक्रम की कड़ियों को जोड़ते हुए समीक्षा करते हैं तो स्पष्ट होता है कि किस तरह सीएए का मुस्लिम विरोधी विमर्श तैयार हुआ। फिर राष्ट्रीय स्तर पर समस्त विरोधी शक्तियों को एक मंच पर ले आया गया। वित्तीय संसाधन जुटाए गए। अफवाह को आकार दिया गया। वाम-सांप्रदायिक बुद्धिजीवियों ने नैरेटिव तैयार किए। विश्वविद्यालयों में वाम-सांप्रदायिकता के सिपाही सक्रिय किए गए। भारत विरोधी विमर्श को मुस्लिम देशों एवं पश्चिम तक फैलाने में सोशल मीडिया का उपयोग किया गया।

सीएए से लाखों मुसलमानों के ‘राष्ट्रविहीन’ हो जाने का खतरा पैदा हो गया- गुटेरस

इस प्रायोजित विमर्श के असर का अंदाजा इसी से लगता है कि संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने अपनी पाकिस्तान यात्रा में भारत विरोधी बयान देते हुए कहा कि इस भारतीय कानून से लाखों मुसलमानों के ‘राष्ट्रविहीन’ हो जाने का खतरा पैदा हो गया है। सांप्रदायिकता के भारत विरोधी सिपाही अपने अभियान में इतनी शिद्दत से लगे थे कि कोई जान ही नहीं सका।

दिल्ली दंगों पर वोट बैंक की राजनीति

इसमें संदेह नहीं कि दिल्ली दंगे की जांच-पड़ताल अपनी स्वाभाविक परिणति तक पहुंचेगी ही, लेकिन हमारी राजनीति को लेकर जो जरूरी सवाल खड़े हो गए हैं वे इस जांच के दायरे से बाहर हैं। सवाल वोटों की उस फसल का है जो हमारी सत्ता की राजनीति इन 72 वर्षोें से काटती रही है। हमारी राजनीति ने ही जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंक खड़े किए हैं। सांप्रदायिकता सत्ता की सीढ़ी न बने, यह यक्ष प्रश्न है।

जब तक सांप्रदायिक वोटों की फसल कट रही है, दंगों को रोक पाना संभव नहीं

जब तक सांप्रदायिक वोटों की फसल कट रही है, दंगों को रोक पाना संभव नहीं है। वोट बैंक की राजनीति को हतोत्साहित करने के लिए शायद आज राज्यों को पुनर्गठित करने, उनकी प्रशासनिक व्यवस्थाओं के पुनरावलोकन की आवश्यकता है। हमने कतिपय राज्यों में भीड़ के दबाव में सांप्रदायिक विभाजनकारी राजनीति करने वाले नेताओं के व्यवहार देखे हैं। शांति-व्यवस्था के विषय को संयुक्त सूची में डालने का समय आ गया है। वह सब कुछ किया जाना चाहिए जिससे राष्ट्र विरोधी सांप्रदायिक शक्तियां राजनीतिक तंत्र को बंधुआ न बना सकें।

( लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं )