नई दिल्ली [ क्षमा शर्मा ]। तेईस साल का अंकित पेशे से फोटोग्राफर था। वह अपने कामों से दुनिया में नाम कमाना चाहता था। उसे नाम तो मिला, मगर मौत के तोहफे के साथ। वह अपने घर का इकलौता कमाने वाला था, उसके पिता दिल के रोगी हैं और मां मधुमेह से ग्रस्त। अंकित के जाते ही घर का आर्थिक सहारा चला गया, लेकिन मारने वालों को इससे क्या? उन्हें तो अंकित से इस बात का बदला लेना था कि उनकी लड़की अंकित से अपनी मर्जी से शादी करने की बात कह चुकी थी। अंकित लड़की के 18 साल का होने का इंतजार कर रहा था और हाल में लड़की 18 साल की हो गई थी। जब लड़की के घर वाले उसका रिश्ता कहीं और करने लगे तो लड़की अंकित से मिलने के लिए यह कहकर ही निकली थी कि वह उससे शादी करने जा रही है। उसके घर वाले अंकित को सबक सिखाने पहुंचे और दुर्भाग्य से वह उन्हें मिल भी गया। ठीक उसी समय अंकित के घर वाले भी वहां आ गए। वे उसे छोड़ देने की अपील करने लगे, मगर पहले तो अंकित पर लड़की के भाइयों ने हमला बोला और जब वह उन पर भारी पड़ा तो लड़की के पिता ने कहा कि उसे पकड़ लो। फिर लड़की की मां ने अंदर से लाकर पिता को चाकू पकड़ाया और पिता ने अंकित का बेरहमी से गला काट दिया। बाद में लड़की ने बयान दिया कि उसके घर वालों ने अंकित को मार डाला। वे दोनों शादी करना चाहते थे।

मुस्लिम लड़की की जिद की कीमत अंकित ने जान देकर चुकाई

अब हो सकता है कि कल अपने घर वालों के दबाव में वह लड़की अपना बयान भी बदल दे, क्योंकि अब अंकित तो है नहीं। अब लड़की का सहारा उसके घर वालों के अलावा और कौन होगा? आप कहेंगे इसमें खास बात क्या है। अपने देश में माता-पिता और लड़कियों के घर वालों के हाथों लड़के-लड़कियां इस तरह तो जान गंवाते ही रहते हैं। इसमें खास बात यह है कि अंकित हिंदू था और लड़की मुसलमान। दोनों तीन साल से एक-दूसरे को जानते थे और शादी करना चाहते थे। लड़की के माता-पिता इस रिश्ते के खिलाफ थे और वे उसकी दूसरी जगह शादी करना चाहते थे, मगर लड़की नहीं मान रही थी। लड़की की जिद की कीमत उन्होंने अंकित की जान लेकर चुकाई, लेकिन अंकित की मौत में न तो किसी को सांप्रदायिकता नजर आई, न ही इस मौत से देश की गंगा-जमुनी संस्कृति आदि पर खतरा बताने वाले बयान ही सुनाई दिए। न ही किसी ने यह कहा कि ऐसी मौत पर देखो दुनिया हम पर हंस रही है। न सेक्युलर ब्रिगेड को अंकित की मौत मौत लगी। जस्टिस फॉर अंकित का शोर भी नहीं सुनाई दिया। अगर अखलाक, जुनैद और पहलू खान की हत्या गलत है तो अंकित की हत्या गलत क्यों नहीं है? उसकी हत्या भी तो इसीलिए हुई कि वह एक दूसरे धर्म की लड़की से शादी करना चाहता था।

बढ़ती सांप्रदायिक हिंसा की चिंता

अक्सर ऐसी हत्याओं पर तो इन दिनों संयुक्त राष्ट्र भी बोलता है। दुनियाभर को हमारे देश में बढ़ती सांप्रदायिक हिंसा की चिंता हो जाती है, मगर लगता है कि अंकित की मौत की खबर से वहां भी आंखें चुरा ली गईं। क्या मौत का कुअवसर भी ऐसा होता है कि देखा जाए कि मरने वाला कौन था। किस धर्म का था। वह हिंदू था या मुसलमान। अगर हिंदू था तो चुप रहो। कोई और था तो जमीन-आसमान एक कर दो। इसके अलावा महिला हितों के पैरोकारों को भी उस लड़की की च्वाइस याद नहीं आई। महिला अधिकारों पर होने वाले हमलों के प्रति दुख जताने वाले बयान भी कहीं नहीं सुनाई दिए। और तो और तमाम विपक्षी दल जो सुदूर दक्षिण में किसी मौत पर दिल्ली जाम कर देते हैं उन्होंने अंकित के दरवाजे की शक्ल देखना नहीं चाहा। ऐसी घटनाओं पर अक्सर आने वाले सोनिया गांधी और राहुल गांधी के दुखभरे हृदय विदारक बयान भी कहीं नहीं सुनाई दिए। न ही किसी ने अंकित की मौत पर भारी भरकम मुआवजा देने की बात कही। मुआवजा देने की राजनीतिक दलों की होड़ भी पता नहीं चली। यहां तक कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी चार दिन बाद इसकी याद आई। वह भी तब जब सोशल मीडिया पर उनकी बहुत आलोचना हुई।

बेटे की मौत को सांप्रदायिक रंग नहीं देना चाहिए

दरअसल इन दिनों कोई मौत भी इवेंट मैनेजमेंट है। लाभ-हानि का गणित है। जिस बात पर ज्यादा चर्चा हो मीडिया भी उसे ही उठाता है और मीडिया के उठाते ही राजनीतिक दल भी उसमें कूद पड़ते हैं। एनजीओ भी आ पहुंचते हैं। अंकित की मौत पर आंसू बहाने से शायद ज्यादा चर्चा न मिलती इसलिए औरों के साथ-साथ राजनीतिक दलों ने भी मौन रहना ही उचित समझा, लेकिन जरा अंकित के घर वालों की समझदारी देखिए। उन्होंने कहा कि वे अपने मोहल्ले को कासगंज नहीं बनाना चाहते। उनके बेटे की मौत को सांप्रदायिक रंग नहीं देना चाहिए। हां, अपराधियों को जरूर सजा मिले। यह कितना समझदारी भरा बयान है। अपने बेटे को गंवा चुकने के बावजूद वे कोई फसाद नहीं चाहते। सजा किसी को मिले या न मिले, एक लड़के ने प्यार करने की कीमत अपनी जान देकर चुकाई। हम भले ही कहते रहें कि प्रेम में ईश्वर का रूप दिखता है। इन दिनों तो प्रेम में ईश्वर नहीं घृणा और नफरत दिखती है। अगर नफरत का राग न होता तो शायद अंकित आज जिंदा होता।

[ लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार हैं ]