नई दिल्ली [ ए. सूर्यप्रकाश ]। भले ही भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, लेकिन जब राजनीतिक दलों के नियमन और राजनीतिक दलों के चंदे तथा चुनावी खर्चे में पारदर्शिता की बात आती है तो यह अन्य लोकतांत्रिक देशों से कहीं पीछे खड़ा नजर आता है। परिणामस्वरूप एक तरफ जहां हम देश में ग्राम से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक लोकतंत्र को फलते-फूलते देखते हैं वहीं दूसरी तरफ राजनीतिक पार्टियों और चुनावी प्रणाली में कालेधन के चलन तथा उसके दुष्प्रभावों को भी देख सकते हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म (एडीआर) ने अनुमान लगाया था कि पार्टियों को मिलने वाला 70 प्रतिशत चंदा नकदी और बेनामी होता है। अर्थात उसका स्रोत अज्ञात होता है। 1974 तक चुनाव आयोग द्वारा बड़े राज्यों में लोकसभा क्षेत्र में चुनावी अभियान के लिए खर्च की सीमा 1.5 लाख रुपये तय की गई थी, बाद में यह सीमा बढ़कर 4.5 लाख रुपये हो गई। हालांकि विश्लेषक मानते थे कि सभी प्रमुख उम्मीदवार अपने चुनावी अभियान पर 20 लाख रुपये तक खर्च करते थे। वर्तमान में बड़े राज्यों में लोकसभा क्षेत्र में इस खर्च की वैध सीमा 70 लाख रुपये है।

चुनावी खर्च नियंत्रण से बाहर, चुनाव लड़ना सामान्य जन की बात नहीं

माना जाता है कि इतने पैसे में कोई उम्मीदवार कहीं अच्छी तरह से अपना चुनावी अभियान चला सकता है, लेकिन सफल सांसद बताते हैं कि उनका चुनावी खर्च पांच से दस करोड़ रुपये आता है। दूसरे शब्दों में कहें तो चुनावी खर्च आज नियंत्रण से बाहर हो गया है। इस तरह आज चुनाव लड़ना सामान्य जन के बस की बात नहीं रह गई है। यह कहना गलत नहीं होगा कि जब तक चुनावी चंदे में पारदर्शिता नहीं आएगी और राजनीतिक पार्टियां साफ-सुथरे उम्मीदवारों का चयन कर उन्हें वित्तीय मदद मुहैया नहीं कराएंगी तब तक पूरी व्यवस्था भ्रष्ट तत्वों के हाथों की कठपुतली बनी रहेगा और सुशासन एक सपना बना रहेगा।

मोदी सरकार ने उठाए राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता के लिए कुछ कदम
राजनीतिक दलों के कामकाज और चंदे में पारदर्शिता और जवाबदेही के अभाव पर न्यायपालिका सहित विभिन्न संस्थाओं ने टिप्पणी की है, लेकिन किसी ने भी इन मुद्दों पर विचार नहीं किया है और सुधार के उपाय नहीं सुझाए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुछ समय से चुनाव सुधार पर बल दे रहे हैं कि कैसे चुनावी खर्च को कम किया जाए। इसके लिए उन्होंने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का सुझाव दिया है। इस संबंध में उनकी सरकार ने राजनीतिक पार्टियों को चंदे के लिए चुनावी बांड पेश कर एक अन्य छोटा, लेकिन महत्वपूर्ण कदम उठाया है। चुनावी बांड स्कीम राजनीतिक और चुनावी प्रणाली में समाई सारी बुराइयों का भले ही इलाज न करे, लेकिन यह एक अच्छी शुरुआत है। जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर के महीनों में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की चुनिंदा शाखाओं से दस दिनों के लिए ब्याज मुक्त चुनावी बांड खरीदे जा सकते हैं। ये दस लाख रुपये और एक करोड़ रुपये सहित विभिन्न मूल्यवर्गों में उपलब्ध हैं। दानदाता इन बांडों को खरीदकर पंजीकृत दलों को दे सकता है। पार्टियां अपने नामित बैंक खातों में इन्हें भुना सकती हैं और इस प्रक्रिया में दानकर्ता की पहचान गुप्त रहेगी। इसके साथ-साथ सरकार ने राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता के लिए कुछ अन्य कदम भी उठाए हैं। इसने दो हजार रुपये से ज्यादा नकदी में चंदे को प्रतिबंधित कर दिया है। पहले यह सीमा बीस हजार रुपये थी और राजनीति में कालेधन की मुख्य जड़ थी। इसके अलावा कंपनियों को अब यह बताना जरूरी नहीं होगा कि उन्होंने किस पार्टी को चंदा दिया है।

राजनीतिक चंदे को स्वच्छ बनाने के लिए सरकार और कड़े कदम उठाएगी
सभी बांड राजनीतिक दलों के नामित बैंक खातों में भुनाए जा सकते हैं और सभी दलों को बांड के जरिये मिलने वाले चंदे की राशि के बारे में बताना जरूरी होगा। मौजूदा नकदी चंदे की अपारदर्शी व्यवस्था में जहां दानदाता, दान लेने वाला, दान की मात्रा और खर्च की प्रकृति सब कुछ गुप्त या अव्यक्त होते हैं उसमें अब कुछ हद तक पारदर्शिता आएगी। क्योंकि दानदाता जितने मूल्य के बांड खरीदेंगे वह और राजनीतिक पार्टियों को चुनावी बांड के रूप में जितना चंदा मिलेगा वह, सब लोगों के सामने आएगा। हालांकि दानदाताओं के नाम गुप्त रखने के प्रावधान के समर्थन में वित्त मंत्री का तर्क है कि बांड स्कीम को आकर्षित बनाने के लिए यह प्रावधान किया गया है। पुराने अनुभव भी इसके समर्थन में हैं। उनका मानना है कि मौजूदा नकदी चंदे की व्यवस्था, जिसमें कालाधन बड़ी मात्रा में होता है, की तुलना में बांड स्कीम ज्यादा उपयुक्त है। उन्होंने वादा किया है कि देश में राजनीतिक चंदे को स्वच्छ बनाने के लिए सरकार और कड़े कदम उठाएगी।

राजनीतिक दल अपने बैंक खातों का लेखा-जोखा कराएं, टैक्स रिटर्न फाइल करें
दरअसल भारत में राजनीतिक दल कई दशकों तक अपने खातों का लेखा-जोखा तक नहीं रखते थे, न ही कभी आयकर रिटर्न फाइल करते। उनमें जवाबदेहिता और पारदर्शिता का यह अभाव तब तक बना रहा जब तक न्यायपालिका ने हस्तक्षेप नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने सबसे पहले प्रयास में चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह सुनिश्चित करे कि संसद और विधानसभाओं के लिए चुनाव लड़ने वाले सभी उम्मीदवार अपनी शैक्षणिक योग्यता, अपने खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों और अपनी संपत्तियों तथा देनदारियों की जानकारी दें और इस संबंध में शपथपत्र दायर करें। इसी तरह उसने राजनीतिक दलों पर इस बात के लिए भी दबाव डाला कि वे अपने बैंक खातों का लेखा-जोखा कराएं, टैक्स रिटर्न फाइल करें और अपनी संपत्तियों तथा देनदारियों से चुनाव आयोग को अवगत कराएं। सुप्रीम कोर्ट तब स्तब्ध रह गया था जब उसने देखा कि तत्कालीन सरकार राजनीतिक पार्टियों के संदर्भ में आयकर कानून को लागू नहीं कर रही है। फिर न्यायालय ने चुनाव आयोग और आयकर विभाग को निर्देश दिया कि वे टैक्स रिटर्न फाइल करने में विफल रहने वाले दलों के खिलाफ कार्रवाई करें।

चुनाव में कालेधन के इस्तेमाल पर रोक लगनी चाहिए
हालांकि भारतीय लोकतंत्र पर गर्व करने की कई वजहें भी हैं। 1951 में जहां मतदाताओं की संख्या 17.3 करोड़ थी वहीं 2014 में यह बढ़कर 81.5 करोड़ हो गई। न्यायपालिका का हस्तक्षेप और चुनाव आयोग की कड़ी निगरानी का धन्यवाद कि आज मतदाताओं को प्रत्येक उम्मीदवार की शैक्षणिक योग्यता, आपराधिक रिकॉर्ड और संपत्ति के बारे में घर बैठे जानकारी हासिल होने लगी है। आयोग ने बैलेट पेपर की जगह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से चुनाव कराकर एक और शानदार काम किया है। उसने ईवीएम में वीवीपैट जोड़ कर उसके आलोचकों को करारा जवाब देने का काम किया है। इसके अलावा उसके पर्यवेक्षकों द्वारा चुनावों की निगरानी की जाती रही है। बावजूद इसके चुनाव में कालेधन के इस्तेमाल पर रोक नहीं लग पाई है। इस समस्या को जल्द से जल्द दूर किया जाना चाहिए, क्योंकि मात्रा ही काफी नहीं होता, गुणवत्ता भी जरूरी होती है। हमें न सिर्फ बड़ा, बल्कि दुनिया का सबसे अच्छा लोकतंत्र बनने की दिशा में बढ़ना चाहिए।


[ लेखक प्रसार भारती के अध्यक्ष और स्तंभकार हैं ]