[ ए. सूर्यप्रकाश ]: फ्रेडरिक एंगेल्स ने कहा था कि राज्य नामक संस्था का पराभव सर्वहारा क्रांति का मुख्य परिणाम होगा। अगर 2019 के चुनाव बाद की तस्वीर देखें तो भारत में राज्य बहुत शक्तिशाली बनकर उभरा है। इतना ताकतवर जितना पहले कभी नहीं हुआ जबकि वामपंथी दल रसातल में चले गए। हालांकि लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद अधिकांश विश्लेषण मुख्य रूप से कांग्रेस की करारी हार पर केंद्रित रहे हैं, मगर विलुप्त होते वामपंथी दलों की कहानी भी इसका उतना ही खास पहलू है।

भाकपा का शानदार प्रदर्शन

स्वतंत्रता के बाद शुरुआती तीन दशकों के दौरान देश के तमाम राज्यों में वाम दलों की ठीकठाक मौजूदगी रही। वर्ष 1951-52 के पहले आम चुनाव में अविभाजित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी भाकपा ने 16 सीटें जीती थीं। वर्ष 1962 के चुनाव में उसकी सीटों की संख्या बढ़कर 29 हो गई और उसे नौ प्रतिशत मत हासिल हुए।

पार्टी में हुआ विभाजन, माकपा आई अस्तित्व में

फिर पार्टी में विभाजन हुआ और भाकपा के अलावा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी माकपा अस्तित्व में आई। दोनों ने 1967 में कुल 42 सीटें हासिल कीं, लेकिन उनका मत प्रतिशत नौ फीसद के स्तर पर रहा। तीन दशकों तक यही सिलसिला कायम रहा। उनका सबसे शानदार सम्मिलित प्रदर्शन 2004 में रहा जब दोनों ने मिलकर लोकसभा की 53 सीटें अपने नाम कीं। हालांकि उनका वोट प्रतिशत घटकर सात फीसद रह गया।

वाम दलों के सितारे गर्दिश में

उसके बाद उनके सितारे गर्दिश में जाते रहे। वर्ष 2014 में दोनों पार्टियों ने केवल दस सीटें हासिल कीं और उनका वोट प्रतिशत और छिटककर महज चार फीसद रह गया। इस बार वे खतरे के निशान पर पहुंच गए और केवल पांच सीटें जीत पाए। राष्ट्रीय स्तर पर उनका वोट प्रतिशत भी दो फीसद रह गया।

वामपंथी दलों की दरकती जमीन

इन दोनों वामपंथी दलों और वाम मोर्चे के उनके अन्य साथियों की जमीन उनके मजबूत माने जाने वाले किलों में ही दरकती जा रही है। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा से उनका तंबू उखड़ चुका है। केरल में भी उनकी नैया हिचकोले खा रही है। उनका सबसे बड़ा नुकसान पश्चिम बंगाल में दिखता है जहां 2004 में वाम दलों को 57.70 प्रतिशत मतों के साथ 32 सीटें हासिल हुई थीं जो आंकड़ा 2019 में सिमटकर 6.28 प्रतिशत मतों का रह गया और राज्य में वाम मोर्चे का खाता तक नहीं खुल पाया। जहां दुनिया भर के राजनीतिक दल स्वयं को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए नए तौर-तरीके अपना रहे हैं वहीं भाकपा और माकपा पुरानी सोच-सिद्धांतों और अतीत के नारों से चिपकी हुई हैं।

वामदलों की पुरानी सोच

कामकाजी वर्ग, संगठित श्रम और पूंजीवाद को लेकर उनकी सोच में कोई बदलाव नहीं हुआ जबकि दुनिया बदल रही है। खुद मैंने पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार के दौरान देखा कि माकपा कार्यकर्ता इंकलाब जिंदाबाद का पुराना नारा लगा रहे थे। बाजार अर्थव्यवस्था के चरम वाले दौर में आखिर वे किस तरह की क्रांति का राग अलापते रहते हैं। ये दोनों दल मौजूदा वास्तविकता से किस कदर कटे हुए हैं इसका सबसे बढ़िया उदाहरण उन सरकारी योजनाओं के गरीबों को पहुंचे लाभ को स्वीकार करने से इन्कार में दिखता है।

जरूरतमंदों के जीवन में सार्थक बदलाव

वे यह महसूस नहीं करते कि प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, उज्ज्वला योजना, जन धन और डीबीटी जैसी योजनाएं जरूरतमंदों के जीवन में कितने सार्थक बदलाव ला रही हैं। मुद्रा पीएम मोदी की ऐसी अनूठी योजना है जिसका मकसद समाज के गरीब तबके में उद्यमिता को बढ़ावा देना है जिससे उनके सामाजिक एवं आर्थिक हालात में सुधार हो सके।

मुद्रा योजना

इस योजना के तहत सरकार गरीबों को उद्यम स्थापित करने के लिए कर्ज मुहैया कराती है। इसके पीछे विचार वित्त की पहुंच से दूर संभावित उद्यमियों को वित्त की धारा से जोड़ना है। इसके अंतर्गत 50,000 से दस लाख रुपये तक की राशि का ऋण मिलता है। इससे स्थापित उद्यम भले ही कितना छोटा हो, लेकिन उससे कम से कम पांच-दस लोगों को रोजगार अवश्य मिलता है। देश भर में मुद्रा योजना के लाभार्थी हैं। इस योजना में वंचित वर्ग के लोगों का जीवन सुधारने की भरपूर संभावनाएं हैं। कई राज्यों की यात्राओं के दौरान मैं ऐसे तमाम लाभार्थियों से मिला हूं। मुद्रा योजना के आंकड़े बहुत सुकून पहुंचाने वाले हैं।

महिला उद्यमी लाभान्वित

महिला उद्यमियों को मुद्रा योजना का सबसे अधिक लाभ पहुंचा है। कुल लाभार्थियों में उनकी तादाद 70 प्रतिशत है। साल की शुरुआत में सरकार ने बताया था कि मुद्रा योजना में उसने 7.23 लाख करोड़ रुपये के कर्ज बांटे हैं।

उज्ज्वला योजना से रसोई गैस कनेक्शन मुफ्त

उज्ज्वला योजना के तहत सरकार ने गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों को रसोई गैस कनेक्शन मुफ्त उपलब्ध कराया है। इसके तहत अभी तक सात करोड़ परिवारों को ये कनेक्शन दिए जा चुके हैं। इसी तरह गरीबों के लिए घर और शौचालय बनाने वाली योजनाएं भी दूरगामी प्रभाव वाली साबित हो रही हैं।

जीवन स्तर और स्वास्थ्य में सुधार

हालांकि इनमें से कुछ योजनाओं का खाका पिछली सरकारों ने खींचा था, लेकिन प्रोत्साहन और प्रतिबद्धता के अभाव में उनका क्रियान्वयन बहुत सुस्त था। वर्ष 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इन योजनाओं के काम में तेजी आई और परिणाम सामने हैं। इन योजनाओं के लक्ष्य एकदम स्पष्ट हैं। नारी गरिमा और सम्मान सुनिश्चित करना हो या महिलाओं और बच्चों के जीवन स्तर और स्वास्थ्य में सुधार, ये इन योजनाओं के मूल में हैं।

मोदी की योजनाओं को जनविरोधी बताया

ऐसे कार्यक्रमों को देखकर यही अपेक्षा की जाती है कि सभी वर्गों द्वारा उनकी सराहना की जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दोनों वाम दलों के प्रवक्ता मुद्रा और ऐसी अन्य योजनाओं को लगातार खारिज करते रहे जबकि ये योजनाएं गरीबों के जीवन का कायाकल्प करने वाली साबित हो रही हैं। उनके विरोध की इकलौती वजह यही है कि यह सब पीएम मोदी के दौर में हो रहा है जिन्होंने बेहद कम समय में इसे संभव कर दिखाया। चुनावी नतीजों ने दर्शाया कि इसे लेकर नकारात्मक प्रचार लोगों को रास नहीं आया।

वाम दलों को जनता ने नकारा 

इन दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के अलोकप्रिय होने के और भी तमाम कारण हैं। इसमें सबसे पहले तो सेक्युलरिज्म को लेकर उनके नजरिये की बारी आती है। दोनों दल शाहबानो मामले के दौर से काफी आगे बढ़ चुके हैं जब सोमनाथ चटर्जी, सैफुद्दीन चौधरी और तमाम अन्य नेता मुस्लिम कट्टरपंथियों से भिड़ गए थे। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार मुस्लिम महिला को तलाक के बाद मिलने वाले गुजारा भत्ते के निर्णय के खिलाफ राजीव गांधी सरकार के कानून का विरोध किया। वह 1986 की बात थी।

वामदलों को हिंदू बहुसंख्यक चुभते हैं

बीते तीन दशकों में वामदल छद्म धर्मनिरपेक्षता के ध्वजवाहक बन गए हैं। हिंदू बहुसंख्यक उनकी आंखों में चुभते हैं और उन्हें इस्लामिक चरमपंथ कोई मुद्दा ही नहीं लगता। हिंदू भावनाओं को भड़काने की हालिया मिसाल सबरीमाला मामले में देखने को मिली जहां वाम दलों ने हिंदू मान्यताओं पर प्रहार के लिए लोगों को उकसाया।

वाम दल किस राह जाएंगे वामोन्मुखी या दक्षिणोन्मुखी

वाम दलों की आगे की राह क्या होगी? क्या वह ब्रिटिश लेबर पार्टी की तर्ज पर कुछ करेंगे जिसने कुछ दशक पहले अपनी सोच और कार्यशैली में बदलाव किया था। अगर वे और वामोन्मुखी होते हैं तो फिर उनका अंत निश्चित है। अगर वे कुछ दक्षिणोन्मुखी होते हैं तो अस्तित्व बचने की कुछ संभावना बची रह सकती हैं। वे आखिर किस राह जा रहे हैं? देश यह जानना चाहता है?

( लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

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