[ साकेत सूर्येश ]:  अहो मित्र, कैसा समय आया है। अहो मित्र, चहुंओर चुनावोपरांत लोकतंत्र की धज जगमगा रही है। नवनिर्वाचित नेतागण संस्कारी दुल्हन की भांति जालिम जनता की भेदती निगाहों से दूर पहुंच गए हैं। महीने महीने ईंट-कुत्ते का बैर निभाने के बाद विपक्षी दलों के लोग एक दूसरे को प्रेम, सहिष्णुता और सद्भाव भरी दृष्टि से तक रहे हैं। पक्ष-विपक्ष का भेद मिटा जा रहा है। जो विपक्ष मे थे, पक्ष में आ रहे हैं। जो नहीं आए हैं, वे आने वाले हैं। अंतरात्मा का कॉल सेंटर फुल कैपेसिटी पर चल रहा है। बेंच से उठ-उठकर अंतरात्मा विपक्षी नेताओं को फोन लगा रही है और भावुक नेता दिनबदिन भाव विह्वल होकर विपक्ष से पक्ष की ओर बढ़ रहे हैं। हर खुदरा व्यापारी का स्वप्न थोक व्यापारी बनना होता है।

भाजपा उतरी होलसेल मार्केट में

कर्नाटक में भाजपा खुदरा व्यापार के प्रयास में तत्कालीन थोक विक्रेता कांग्रेस से मुंह की खाने के बाद अब होलसेल मार्केट में उतर आई है। चुनाव के बाद जब भाजपा वाले एक पाव भिंडी छांट रहे थे, कांग्रेस टोकरी उठा कर चल दी थी। समझदार वही है जो इतिहास से सीख ले, सो इस बार सौदा थोक में होगा, गोवा में भी और कर्नाटक में भी। इसे मॉल में मिलने वाली उस पेशकश की तरह देखा जा सकता है जहां एक किलो के साथ दो सौ ग्राम सामान मुफ्त में दिया जाता है।

अध्यक्षहीन कांग्रेस

तीसरी सदी में रोम में देवी एथेना के मंदिर से उठा पार्किंग विवाद, मीर बकी के दौर से गुजरता हुआ नए भारत की पुरानी दिल्ली तक पहुंच गया है। जिस प्रकार फुटबॉल के खेल में हाफटाइम के बाद टीमें पाले बदल लेती हैं, धर्मनिरपेक्ष अतिवादी पाले में आ बैठे हैं और अतिवादी धर्मनिरपेक्षता वाले पाले में खेल रहे हैं। टीमों के पाला बदलने से दर्शक दीर्घा में निराशा का माहौल है। राजनीति एक अध्यात्मिक प्रश्न हो गई है जहां जो है वह नहीं है, जो नहीं है वही सही है। अभिव्यक्ति की आजादी के प्रश्न पर भाजपा कांग्रेस के पाले में खड़ी है और अध्यक्षहीन कांग्रेस कहीं नहीं है।

नेहरू आज होते तो भाजपा में भर्ती हो जाते

कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि नेहरू आज होते तो भाजपा में भर्ती हो जाते और श्यामा प्रसाद मुखर्जी झोला उठाकर देशाटन पर चले जाते। केवल कांग्रेस के अध्यक्ष का सवाल ही सतह पर नहीं है। सवाल यह भी सतह पर है कि कर्नाटक के विधानसभा अध्यक्ष कितनी लंबी बहस करा सकते हैैं? इंतजार शक्ति परीक्षण का नहीं, इसका हो रहा है कि बहस कितनी लंबी खींची जा सकती है। देखना है कि कोई रिकार्ड बनता है या नहीं?

चुनावी वादों की तरह मंडराते बादल

मानसून आ चुका है, लेकिन कही-कहीं नहीं भी आया है। देश के कई हिस्सों में आसमान पर बादल मंडराते भी हैं तो वे चुनावी वादों की तरह खोखले ही साबित हो रहे हैं। ऐसे दौर में मौसम विभाग नई-नई तारीखें बता रहा है। देश के कुछ हिस्सों मेंं आसमान भले ही बारिश से सूखा है, लेकिन कांग्रेस में इस्तीफों की झड़ी लगी हुई है। जो दे रहा है उसे न देने को मनाया जा रहा है, जो नहीं दे रहा है उसे त्यागपत्र देने को उकसाया जा रहा है। जिन्हें त्यागपत्र देना चाहिए उनसे मांगा नहीं जा रहा है। खबर निकालने वाले कांग्रेस से निराश होकर शादी के फूफाजी, हमने तो पहले ही कहा था, वाली मुद्रा में हाथ बांधे खड़े हैं।

सोशल मीडिया

चुनाव बाद से टोपी पहनाने-उतारने का नैरेटिव बार-बार फिसलता जा रहा है। इससे खबरनवीसों में हताशा का माहौल है। इस माहौल में भी कुछ खुशी के मौके तलाशते रहते हैैं। वे हर सुबह या दूसरी सुबह इसके या उसके उत्पीड़न की खबर सोशल मीडिया पर डालते हैं। ऐसी तथाकथित खबरें शाम तक झूठी खबर निकल जाती हैं।

सच्ची खबरों का अभाव

सच्ची खबरों के अभाव मे बुद्धिजीवियों का यह वर्ग स्वत: खबरें बनाने को विवश है। जिस समाज में बुद्धिजीवी आक्रोशित न हो, कुर्ता-पाजामा और सूती साड़ी न पहने और सिगरेट-शराब न पी सके, यह अपने आप में समाज के लिए स्वयं ही शर्म का विषय है। बुद्धिजीवी वर्ग को आक्रोश लायक समाचारों से वंचित रखने के लिए देश के लिए लज्जित होने का अवसर है।

राजनीतिक माहौल मानसून की तरह

कुल मिलाकर राजनीतिक माहौल मानसून में मुंबई की सड़क सा हो गया है। कौन कहां है और जहां है वहीं रहेगा, कुछ पता नहीं चलता। कौन कहां जाएगा, यह भी पता नहीं चल रहा है। ठीक वैसे ही जैसे बारिश और बाढ़ में यह पता नहीं चलता कि कहां नाला है, कहां सड़क? कब तक कौन किधर चलेगा और कब किसी नाले में निकल लेगा, पता ही नहीं लगता। सब गड्ड-मड्ड हो गया है।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]