शिवानंद द्विवेदी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ‘आत्मनिर्भर भारत’ के निर्माण की चर्चा शुरू करने के बाद इसके विविध पहलुओं पर व्यापक बहस शुरू हो गई है। इतिहास के संदर्भो से देखें तो प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ वैसा ही कहा है, जिसे भारतीय जनता पार्टी लगातार कहती रही। इतिहास में दर्ज कुछ पन्नों में इसका जिक्र मिलता है। नि:संदेह आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्यों को हासिल करने की नीतियां नरेंद्र मोदी के नेतृत्व और विजन से ही निकलकर सामने आ रही हैं। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए उनका तरीका नया और युगानुकूल भी है। कहा भी गया है कि विजेता कोई नया काम नहीं करता, लेकिन उस काम को नए ढंग से जरूर करता है।

प्रधानमंत्री मोदी भी कई कार्यो को नए ढंग से करने के लिए जाने जाते हैं। प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भर भारत का नारा देकर भाजपा के 35 साल पुराने एक प्रस्ताव कोदोहराया है। दरअसल जुलाई 1985 में आयोजित भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में ‘आत्मनिर्भरता की आवश्यकता को भुला दिया जाना’ शीर्षक से एक आíथक प्रस्ताव पारित किया गया था। उस समय देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। उस प्रस्ताव का एक अंश है, ‘भारतीय जनता पार्टी का यह सुविचारित मत है कि यदि देश को विदेशी कर्जो तथा जानकारी पर अनंत निर्भरता एवं बहुराष्ट्रीय निगमों के शिकंजे से छूटना है तो हमें एक ऐसी उपयुक्त टेक्नोलॉजी का विकास करना होगा जो हमारी आवश्यकताओं और संसाधनों के अनुरूप हो।’

भाजपा के 35 साल पुराने इस प्रस्ताव और मोदी द्वारा आत्मनिर्भर भारत के लिए दिए गए संदेश में काफी हद तक वैचारिक समानता नजर आती है। खासकर देश के सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों के लिहाज से मोदी सरकार ने असरकारक और नीतिगत निर्णय लिए हैं। मसलन 200 करोड़ रुपये तक के सरकारी खरीद में ग्लोबल टेंडर को बाहर रखा गया है। इसका लाभ भारतीय कंपनियों को मिलना निश्चित है। दुनिया के बदलते परिदृश्य के बीच वैश्वीकरण के दौर में आíथक उदारवाद की तरफ चलने का मन उन देशों ने भी बना लिया है, जो वैचारिक रूप से इसके विरोधी माने जाते हैं। इसके बावजूद मोदी सरकार की ओर से आत्मनिर्भर भारत पैकेज की घोषणा में यह कहा गया कि देश के छोटे और मझोले कारोबारों के लिए अवसरों को सुरक्षित रखते हुए सरकार ने 200 करोड़ रुपये तक के सरकारी टेंडर में विदेशी कंपनियों को बाहर रखा है। सरकार के इस निर्णय में भी कहीं न कहीं भारतीय जनता पार्टी की वैचारिक बुनियाद के तत्व नजर आते हैं।

जनवरी 1986 में आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पारित आíथक प्रस्ताव में भाजपा ने आत्मनिर्भरता के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए कुछ इसी प्रकार की नीतियों की हिमायत की थी। प्रस्ताव के एक अंश के अनुसार, ‘अब विदेशी कंपनियों को भारत में किसी भी जगह कोई भी उद्योग लगाने की छूट दे दी गई है और हमारी कंपनियों को उनका मुकाबला करना होगा। इस प्रकार की नीति हमारे आत्मनिर्भरता के सिद्धांतों के खिलाफ है। इसके द्वारा बेचारे गरीब कपास उगाने वाले किसान को शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बराबर कर दिया गया है जिनके कृत्रिम रेशे को सूत में मिलाकर बहुत बड़ी मात्र में कपड़ा तैयार किया जाता है।’

निश्चित ही मोदी सरकार ने ग्रामीण भारत की औद्योगिक क्षमता को नए अवसर देने की कोशिश हालिया बदलावों में की है। यदि हम आत्मनिर्भरता के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए छोटे और मझोले उद्योगों से जुड़ी भारतीय कंपनियों को विशेष अवसर देने की नीति पर चलते हैं तो स्थानीय स्तर के कारोबार को फलने-फूलने में मदद मिलेगी। वहीं कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति देने तथा गांवों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सरकार ने खाद्यान्न, दलहन और तिलहन के साथ आलू और प्याज के उत्पादन और उसकी बिक्री आदि को लेकर आवश्यक वस्तु अधिनियम में बड़े बदलाव करने की दृढ़ मंशा को आकार दिया है।

खाद्यान्नों तथा दलहन, तिलहन सहित आलू और प्याज को वस्तु अधिनियम की सूची से निकालने का सीधा लाभ गांव-देहात के छोटे-बड़े किसानों को होगा। दरअसल ग्रामीण इलाकों में एक बड़ी समस्या यह नजर आती है कि छोटे किसान अपनी उपज को खुले बाजार में बेचने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। निजी मंडियों की बाजार में उपलब्धता नहीं के बराबर है। छोटे स्तर का किसान अपनी उपज को सरकारी खरीद में बेचने के बजाय गांव अथवा आसपास के साहूकार को सरकार द्वारा तय एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर भी बेचने में ज्यादा सहूलियत महसूस करता है। ऐसे में अनेक किसानों से अनाज खरीदकर साहूकार उसे मंडी में ले जाता है, जहां उसे बिचौलियों के माध्यम से बेचना होता है। इससे न तो बेचने वाले किसान को लाभ होता है और न ही खरीदने वाले को ही फायदा होता है। इस पूरी बिक्री और खरीद प्रक्रिया का एक बड़ा हिस्सा बिना कुछ किए बिचौलियों के भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ना तय होता है।

ऐसे में एक तरफ छोटे और मझोले कारोबारों को आत्मनिर्भरता की मजबूती देने की दिशा में मोदी सरकार ने नीतिगत कदम बढ़ाया है, वहीं दूसरी तरफ कृषि उपज को लेकर किसानों के हित में बड़ा निर्णय लिया है। ऐसे निर्णयों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को एक नया आकार हासिल होगा। संभव है कि भविष्य में ग्रामीण क्षेत्र वर्तमान की तुलना में उत्पादन तथा उसकी मांग एवं आपूर्ति के लिहाज से अधिक स्वावलंबी स्थिति को हासिल कर पाएं।

[सीनियर रिसर्च फेलो, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन]