[ ब्रह्मा चेलानी ]: वैश्विक स्तर पर भारत की छवि एक कोलाहल भरे लोकतंत्र की है। इसके बावजूद भारत को दुनिया भर में इस बात के लिए भी सम्मान दिया जाता है कि वह दुनिया की पहली ऐसी विकासशील अर्थव्यवस्था है जिसने स्वयं को आधुनिक बनाने और निखारने के लिए शुरुआत से ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया का सहारा लिया। हालिया दौर में कुछ स्थितियां जरूर बदली हैं। बेहद विभाजित दलीय-वैचारिक राजनीति ने इस कोलाहल को और कर्कश बना दिया। इससे राष्ट्रीय विमर्श विषैला हो गया है। आंतरिक विभाजन की खाई चौड़ी हो रही है। राष्ट्रीय सुरक्षा परिदृश्य के समक्ष चुनौतियां बढ़ गई हैं। यह भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को प्रभावित कर रहा है। यह सही है कि भारत कोई इकलौता लोकतंत्र नहीं जो ध्रुवीकरण या राजनीतिक विमर्श में कटुता का शिकार हो।

ट्रंप को आरोपों से बरी करने की कवायद दलगत आधार पर हुई

कई पश्चिमी लोकतंत्रों में इस समय दलगत या वैचारिक भावनाएं चरम पर हैं। अमेरिका से बेहतर शायद इसकी कोई और मिसाल नहीं हो सकती। वहां प्रतिनिधि सभा ने राष्ट्रपति ट्रंप के महाभियोग प्रस्ताव पर दलगत भावना के साथ ही मतदान किया। डेमोक्रेटिक पार्टी को अपनी इस कवायद में एक भी रिपब्लिकन सदस्य का साथ नहीं मिला। यहां तक कि सीनेट में ट्रंप को आरोपों से बरी करने की कवायद भी पूरी तरह दलगत आधार पर ही हुई।

भारतीय लोकतंत्र भारी विविधता के बावजूद एकता के भाव को प्रदर्शित करता है

अमेरिका धनी देश है और उसका आस-पड़ोस सुरक्षित है। अमेरिकी संस्थान भी इतने मजबूत हैं जो उसकी अर्थव्यवस्था एवं सुरक्षा को दलगत भावनाओं से कवच प्रदान करते हैं। इसके उलट भारत एक गरीब देश है। उसे पड़ोसी भी बिगड़ैल ही मिले हैं। ऐसी स्थिति में अगर भारत में विभाजन एवं ध्रुवीकरण की खाई और चौड़ी होती है तो यह राष्ट्रीय सुरक्षा एवं आर्थिक बेहतरी के लिए निश्चित रूप से एक खतरा बनेगी। लोकतंत्र शायद भारत की सबसे बड़ी थाती है जो भारी विविधता के बावजूद एकता के भाव को प्रदर्शित करता है, मगर ब्रिटिश शैली वाली संसदीय परिपाटी तमाम अक्षमताओं से भरी है। ऐसे संसदीय तंत्र की सीमाएं भारत में और ज्यादा दिखती हैं जो समूचे यूरोप से आबादी और विविधता में कहीं ज्यादा बड़ा है।

भारत को हमेशा लोकतंत्र की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है

भारत को हमेशा लोकतंत्र की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि भारतीय तंत्र अधिकारों पर तो जोर देता है, लेकिन उनके साथ जिम्मेदारियां-जवाबदेही तय नहीं करता। वैसे भी भारतीय राजनीतिक तंत्र में और तमाम खामियां व्याप्त हो गई हैं। इनमें खानदानी मिल्कियत की तर्ज पर चलने वाले वंशवादी दलों की बढ़ती संख्या भी एक है। इससे भी अशुभ यह है कि सार्थक विचारों के अभाव में मजहब, संप्रदाय और जाति जैसे पहलुओं के अलावा निहित स्वार्थ भी राष्ट्रीय राजनीति में घुस आए हैं। जब ऐसे स्वार्थ हावी हैं तब प्रगतिशील भविष्योन्मुखी राष्ट्रीय एजेंडा को आगे बढ़ाना और ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो गया है।

दलगत-वैचारिक कटुता बढ़ने के कारण भारत महाशक्ति बनने में बाधक है

दलगत-वैचारिक कटुता बढ़ने के कारण चुनौतियों पर राष्ट्रीय सहमति नहीं बन पा रही। इससे कूटनीति, आर्थिक वृद्धि और सुरक्षा के मोर्चे पर आवश्यक सुधार आकार नहीं ले पा रहे। यह हमारी महाशक्ति बनने की आकांक्षाओं पर आघात करने वाला है। दुनिया का हर छठा व्यक्ति भारतीय होने के बावजूद भारत क्यों निरंतर अपनी क्षमताओं से कमतर बना हुआ है?

मोदी और ट्रंप ध्रुवीकरण के एक कारक बने हुए हैं

जो भी हो अमेरिका के साथ यदि कोई तुलना हो सकती है तो वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को लेकर ही संभव है। वह ध्रुवीकरण के एक कारक बने हुए हैं। नौ महीने पहले मोदी की प्रचंड जीत ने इस ध्रुवीकरण को और मजबूत ही बनाया। इसकी एक वजह नई दिल्ली का वह अभिजात्य वर्ग भी रहा जिसने मोदी को कभी स्वीकार ही नहीं किया, बिल्कुल वैसे जैसे वाशिंगटन में एक वर्ग को ट्रंप कभी फूटी आंख नहीं सुहाए। वास्तव में ट्रंप की ही तरह मोदी के आलोचक भी उन्हें एक दबंग तानाशाह बताते हैं। वास्तविकता यही है कि अमेरिकी लोकतंत्र की तरह भारतीय लोकतंत्र में भी ऐसे पर्याप्त प्रावधान हैं कि कोई तानाशाही न पनप सके। सच यही है कि मोदी के खिलाफ अनाप-शनाप बोलकर उनके आलोचक भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मूल्यों को ही रेखांकित करते हैं।

मोदी के आलोचक उन्हें ‘दबंग’ का जो दर्जा देते हैं इससे उनकी छवि ही चमकती है

विकासशील दुनिया में भारत सबसे स्वतंत्र एवं स्थायित्व वाले देशों में से एक बना हुआ है। कुछ आरोपों की बौछार ने भारत की छवि पर चोट पहुंचानी शुरू कर दी है। मोदी के आलोचकों ने एक अलग-थलग भारत का खाका खींचा है। ट्रंप का दौरा ऐसी बदरंग कल्पनाओं की हवा निकालेगा। मोदी के आलोचक उन्हें ‘दबंग’ का जो दर्जा देते हैं वह वास्तव में मोदी की नाकामियों पर पर्दा डालकर उनकी छवि चमकाने का ही काम करता है। इससे भारतीयों को यही लगता है कि भारतीय तंत्र की अंतर्निहित खामियों से निपटने के लिए ऐसे ही किसी निर्णायक नेतृत्व की दरकार है।

मोदी समर्थकों और विरोधियों की लड़ाई से विभाजनकारी राजनीति को बल मिलता है

मोदी समर्थकों और मोदी विरोधियों की वैचारिक लड़ाई से विभाजनकारी राजनीति को ही बल मिल रहा है जो आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौती बनने पर आमादा है। भयादोहन की इसी राजनीति की मिसाल बीते दिनों देश के तमाम शहरों में तब देखने को मिली जब नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में मुस्लिम तबके के विरोध ने हिंसक स्वरूप ले लिया।

आज भारत के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती ध्रुवीकृत राजनीति है

आज भारत के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती विस्तारवादी चीन या शातिर पाकिस्तान की नापाक गतिविधियां नहीं, बल्कि ध्रुवीकृत भारतीय राजनीति है। जब भीतर से ही ऐसा खतरा पैदा हो रहा है तब क्या भारत चीन-पाकिस्तान की गलबहियों से पैदा हो रहे जटिल क्षेत्रीय सामरिक चुनौतियों से निपटने में सक्षम हो सकेगा। ध्रुवीकृत राजनीति की दलदल में फंसा भारत स्वयं को एक चौराहे पर खड़ा पाता है। खेमेबाजी वाली लड़ाइयां ध्रुवीकरण को बढ़ाने के साथ ही भारत के व्यावहारिक सामंजस्य वाली पोषित परंपराओं को नुकसान पहुंचाने के साथ ही देश के लोकतांत्रिक ढांचे पर भी आघात कर रही हैं।

राजनीतिक लड़ाइयां मतदाताओं के मोर्चे पर लड़ी जानी चाहिए न कि सड़कों पर

समाज में गहराती विभाजन और ध्रुवीकरण की खाई को पाटने के लिए तार्किक विश्लेषण एवं सामाजिक विमर्श की ओर लौटना ही होगा। बहस साझा हितों एवं सहभागी दृष्टिकोण के साथ होनी चाहिए कि भारत को कैसे सुरक्षित एवं सशक्त बनाया जाए न कि निजी हमलों एवं आरोप-प्रत्यारोप पर। राजनीतिक लड़ाइयां मतदाताओं के मोर्चे पर लड़ी जानी चाहिए न कि सड़कों पर।

( लेखक सामरिक मामलों के विश्लेषक हैं )