[ डॉ. एके वर्मा ]: देश आज 73वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। इस बार यह अवसर बेहद खास है, क्योंकि ‘एकता और अखंडता’ के संवैधानिक संकल्प को प्राप्त करने के लिए देश ने एक कदम और आगे बढ़ाया है। गत 5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर और भारत के बीच विभाजक-रेखा खींचने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35-ए को मोदी सरकार ने समाप्त कर दिया। तमाम विपक्षी दलों ने भी इसका समर्थन किया। फिर भी कुछ दलों, नेताओं और बुद्धिजीवियों ने इसे ‘लोकतंत्र का सबसे काला दिन’ या ‘लोकतंत्र की हत्या’ करार दिया। कश्मीरी नेताओं को ऐसा लगना लाजिमी था, क्योंकि इससे उनकी तो राजनीतिक जमीन ही खिसक गई। उन्हें सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि ये प्रावधान एक झटके में खत्म हो जाएंगे और जम्मू-कश्मीर का पुनर्गठन कर लद्दाख व जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश बना दिए जाएंगे। कुछ ने इसे अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा प्रतिपादित ‘कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत’ वाली अवधारणा के विरुद्ध बताया। लोकतंत्र की खूबसूरती यही है कि प्रत्येक मुद्दे, निर्णय और तरीके पर सहमति-असहमति बनी रहे और असहमतियों का भी उचित सम्मान किया जाए।

कश्मीर और कश्मीरियों से जोड़ने की पहल

बहरहाल इस कदम से देश को कश्मीर और कश्मीरियों से जोड़ने की अद्भुत पहल हुई है। अनुच्छेद 370 से कश्मीरियों की आजादी अधूरी थी। उनका एक तबका न तो देश से पूरी तरह जुड़ पा रहा था, न ही पाकिस्तान के प्रति अपनी निष्ठा खत्म कर पा रहा था। शेख अब्दुल्ला और मुफ्ती मोहम्मद सईद के परिवारों ने राज्य की जनता के असमंजस को भांपकर उसे भावनात्मक रूप से राजनीतिक बंधक सा बनाकर जम्हूरियत का नाम दे दिया था। इसीलिए दोनों परिवारों के नेताओं ने अनुच्छेद 370 और 35-ए को हटाए जाने पर देश को गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी दी थी।

लाखों कश्मीरी थे वोट डालने से वंचित

पिछले 70 वर्षों से लाखों कश्मीरी ‘स्थायी निवासी’ न होने के कारण विधानसभा और पंचायत चुनावों में न तो वोट डाल पा रहे थे और न ही प्रत्याशी बन पा रहे थे। किसी लोकतंत्र में स्वतंत्रता के प्रति इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है? 1957 में राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री बक्शी गुलाम मुहम्मद के अनुरोध पर पंजाब से जो तीन-चार हजार बाल्मीकि परिवार जम्मू-कश्मीर भेजे गए, उन्हें सफाई के अतिरिक्त किसी और कार्य करने की मनाही थी। यह कौन सी जम्हूरियत है? लद्दाख की बौद्ध-बहुल जनसंख्या की उपेक्षा और घाटी के हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा न देना कैसे सेक्युलरिज्म से मेल खाता है?

कश्मीरियत बनाम ‘इस्लामियत’

और क्या है कश्मीरियत? कुछ बुद्धिजीवी और नेता कश्मीरियत को ‘इस्लामियत’ से भ्रमित करते हैं। वे भारतीय समाज के स्वरूप को तो ‘मेल्टिंग-पॉट’ की जगह ‘सलाद-पॉट’ के रूप में देखना चाहते हैं, लेकिन स्वयं जम्मू-कश्मीर में ‘सलाद-पॉट’ की उपेक्षा पर मूक-दर्शक बने रहते थे। ‘मेल्टिंग-पॉट’ सामाजिक-समरूपता का यूरोपीय सिद्धांत है जो इटली, फ्रांस और जर्मनी जैसे मुल्कों में दिखता है। वहीं ‘सलाद-पॉट’ विविधता में एकता का सिद्धांत है जिसे भारत, कनाडा और बेल्जियम आदि देशों में देखा जा सकता है। ‘सलाद-पॉट’ के हिमायती लोगों ने कभी जम्मू-कश्मीर के दलितों, कश्मीरी पंडितों और लद्दाखी बौद्धों का पक्ष लिया होता तो आज उनकी बात में कुछ वजन होता, लेकिन बीते कुछ वर्षों में जिस कश्मीरियत को अलगाववाद और आतंकवाद का पर्याय बना दिया गया, जनता उसे कैसे स्वीकार करे?

कश्मीर के साथ इंसानियत का व्यवहार

‘इंसानियत’ एक द्विपक्षीय भावना है। ऐसा नहीं हो सकता कि भारत की जनता कश्मीर के प्रति इंसानियत का प्रदर्शन करती रहे और बदले में उसे हिंसा, अपमान, जवानों की शहादत और पाकिस्तान के प्रति निष्ठा देखने को मिले। क्या यही इंसानियत है कि अपनी सेना के जवानों को हम पत्थर मारें? क्या यही इंसानियत है कि असंख्य निरीह लोगों की हत्या करने वाले पाक-प्रायोजित आतंकियों को शरण दें? देश ने कश्मीर के साथ हमेशा इंसानियत का व्यवहार किया, लेकिन बदले में क्या मिला? आतंक और अलगाव की बलवती होती प्रवृत्तियां? मुट्ठी भर लोगों की स्थानीय राजनीति पर पकड़ होने के कारण उनके गलत कार्यों का खामियाजा पूरे राज्य के लोगों को भुगतना पड़ता है।

‘कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत’ के लिए प्रतिबद्ध

कोई नहीं चाहता कि वहां सेना हमेशा बनी रहे, लेकिन इसकी जिम्मेदारी तो जम्मू-कश्मीर की जनता को ही उठानी पड़ेगी। कश्मीर सीमावर्ती राज्य है जहां हमारी सरहद दो शत्रु देशों से लगती है तो फिर अन्य राज्यों की अपेक्षा वहां सेना की मौजूदगी तो रहेगी। नि:संदेह जम्मू-कश्मीर के बहुसंख्यक लोग और भारत की जनता आज भी ‘कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत’ के लिए प्रतिबद्ध हैं। मगर इसके साथ ही भारत की प्रतिरक्षा, एकता व अखंडता, नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा और समेकित विकास सुनिश्चित करना कश्मीरियों सहित देश के सभी नागरिकों और केंद्र एवं जम्मू-कश्मीर सरकारों का संवैधानिक दायित्व भी है।

5 अगस्त का दिन इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित

5 अगस्त, 2019 का दिन इतिहास में स्वर्णाक्षरों में इसलिए भी लिखा जाएगा, क्योंकि अब जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में लोगों को आर्थिक स्वतंत्रता का नया युग देखने को मिलेगा। अभी वहां ‘आतंकवाद की इंडस्ट्री’ ही थी, लेकिन अब देसी-विदेशी निवेशक वहां कई उद्योग लगा सकेंगे जिससे युवाओं को रोजगार मिलेगा। बाहर से योग्य पेशेवर और उद्यमी बिना भेदभाव के आ सकेंगे, क्योंकि अब मौलिक अधिकारों तथा सुविधाओं को प्राप्त करने हेतु ‘स्थायी नागरिकता’ की बंदिश खत्म हो गई है।

कश्मीर को विलग करने वाले कानूनी प्रावधान खत्म

अभी कश्मीर को भारत से विलग करने वाले संवैधानिक-कानूनी प्रावधानों को खत्म किया गया है, पर राज्य की आबादी के एक हिस्से के दिलों में पिछले 70 वर्षों में जो दूरियां आई हैं, उन्हें खत्म होने में वक्त लगेगा। कश्मीर घाटी में स्थिति सामान्य होने और नजरबंद नेताओं की रिहाई के बाद कैसे हालात होंगे? अमेरिका, चीन और संयुक्त राष्ट्र से इस मुद्दे पर अपेक्षित समर्थन न मिलने के बावजूद पाकिस्तान राज्य में आगे किस तरह उपद्रवियों को भड़काएगा, अभी इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता।

‘भस्मासुर’ बन पाक को भस्म कर दिया

मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 को समाप्त नहीं किया है, बल्कि उसे ‘भस्मासुर’ बना उसी के द्वारा उसके प्रभाव को भस्म कर दिया है। अगस्त 1947 में एक स्वतंत्रता की कीमत देश को बंटवारे के रूप में चुकानी पड़ी थी। ऐसे में सभी देशवासी ईश्वर से प्रार्थना करें कि अगस्त 2019 में प्राप्त इस नई स्वतंत्रता की कीमत हमें दिलों के बंटवारे के रूप में न चुकानी पड़े।

( लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं )