संदीप घोष। लोकसभा चुनाव अब अपने अंतिम पड़ाव पर आ गए हैं। नतीजे तो चार जून को आएंगे, लेकिन व्यापक रूप से अनुमान लगाया जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी तीसरी बार देश की सत्ता संभालने जा रहे हैं। ऐसे में चुनावी कोलाहल से इतर हम उनके तीसरे कार्यकाल को लेकर क्या अपेक्षा लगा सकते हैं? चुनावी विमर्श में ‘एक देश-एक चुनाव’ का मुद्दा भी सामने आया है, जिसके पक्ष में कुछ माहौल भी बना। हालांकि जिस प्रकार स्कूलों में नियमित आधार पर होने वाली नाना प्रकार की परीक्षाएं विद्यार्थियों का आकलन करती हैं, उसी तर्ज पर कुछ समय के अंतराल पर होने वाले चुनाव भी दलों को सतर्क रखते हैं कि वे मतदाताओं को किसी तरह हल्के में नहीं ले सकते।

यही भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती है। यह भारत को पश्चिम के उन विकसित देशों से अलग करती है, जहां एक बार चुनाव होने के बाद मतदाताओं की नियति चार-पांच साल के लिए तय हो जाती है। जबकि भारत में लोकसभा चुनाव की खुमारी उतरने से पहले ही मोदी को महाराष्ट्र और हरियाणा जैसे अहम राज्यों के लिए चुनावी तैयारी में जुटना होगा। इसके कुछ महीनों बाद तमिलनाडु, केरल, बंगाल, असम और पुडुचेरी में चुनावी बिगुल बजेगा। इसीलिए भारतीय राजनीति में कभी बोरियत का भाव नहीं आता। क्रिकेट की तरह राजनीति का सीजन भी सदैव गुलजार रहता है। इसलिए मतदाता भी हमेशा अपनी इच्छाओं की सूची के साथ तैयार रहते हैं।

मोदी पहले ही संकेत कर चुके हैं कि तीसरे कार्यकाल में कुछ क्रांतिकारी सुधार उनके रडार पर हैं और उन्हें मूर्त रूप देने की कार्ययोजना भी तैयार है। उनके भीतर का राजनीतिज्ञ भले ही 2047 के भारत के लिए दीर्घकालिक दृष्टिकोण की बात करे, लेकिन उनके अंदर का नेता यह भी जानता है कि लोकसभा चुनाव जीतने की दिशा में उनके लिए कुछ तात्कालिक मोर्चों पर विजय की भी आवश्यकता होगी। राम मंदिर पहले ही बन चुका है। मथुरा का मामला भी सामान्य रूप से सुलझ जाएगा, लेकिन उससे किसी प्रकार के चुनावी लाभांश की उम्मीद कम है। एक्सप्रेसवे जैसे बुनियादी ढांचे में निवेश अब सामान्य माना जाने लगा है तो ऐसे ही मुफ्त राशन हो या ग्रामीण आवास जैसी ‘लाभार्थी योजनाएं’। नल से जल, शौचालय, गैस और बिजली की स्थिति भी सुधरी है।

असल में आय और रोजगार के मुद्दे ज्वलंत हैं और यदि इनका समाधान नहीं निकाला गया तो भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है, क्योंकि विपक्ष भी इस मुद्दे को निश्चित रूप से भुनाने का प्रयास करेगा। इसके लिए अर्थव्यवस्था को एक नए आयाम पर ले जाना होगा, लेकिन मुद्दा केवल इतना भर नहीं। ऐसा इसलिए, क्योंकि जब तक निवेश के श्रम गुणांक में तेजी नहीं आती, तब तक ऊंची जीडीपी रोजगार सृजन में अपेक्षित रूप से सहायक नहीं बन पाती। आटोमेशन यानी स्वचालन के दौर में जब कंपनियां कम श्रमिकों से काम चला रही हैं तब रोजगार की चुनौती और कड़ी हो जाती है। नई तकनीक के उभार से कंस्ट्रक्शन जैसी गतिविधियों में कम श्रमिकों की आवश्यकता रह गई है। वहीं, सरकार द्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले प्रत्यक्ष रोजगार की अपनी एक सीमा है। लिहाजा इसका कोई ‘खटाखट’ समाधान नहीं हो सकता।

भारत में पारंपरिक रूप से नौकरियों का आशय ‘सरकारी नौकरी’ या निजी प्रतिष्ठानों में ‘स्थायी नौकरी’ से रहा है। हालांकि यह दृष्टिकोण बदला है, जो आने वाले समय में और ज्यादा बदलेगा। युवा पीढ़ी भविष्य को लेकर नई प्रकार की आकांक्षाएं भी कर रही है, लेकिन वे इस परिवर्तन के पड़ाव से तालमेल बिठाने का तरीका नहीं जानते। अन्य एशियाई अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत कुशल कामकाजी आबादी की भारी समस्या से जूझ रहा है। एक के बाद एक सरकारें यहां तक कि मौजूदा सरकार भी कौशल विकास के मोर्चे पर नाकाम सिद्ध हुई है। आवश्यक कुशल श्रमबल के अभाव में चीन के मुकाबले खुद को एक विनिर्माण महाशक्ति बनाने की हमारी हसरतें पूरी नहीं हो सकतीं। वैश्विक कंपनियां ‘चीन प्लस वन’ यानी चीन से इतर जो विनिर्माण केंद्र बनाने का विकल्प खोज रही हैं, कुशल कार्यबल की कमी के चलते भारत के लिए वह विकल्प बन पाना मुश्किल होगा।

उद्यमिता की बातें बहुत अच्छी लगती हैं। नौकरी चाहने वालों के बजाय नौकरी देने वालों की चर्चा भी अच्छी है, लेकिन इस राह में केवल पूंजी की उपलब्धता ही अवरोध नहीं। स्टार्टअप्स की सफलता दर तो कम है, लेकिन सूक्ष्म उद्यमों की हालत भी खतरनाक रूप से पस्त है। ‘गिग इकोनमी’ एक फैशनेबल शब्द बन गया है। हालांकि इसकी संभावनाओं को आकार लेने में समय लगेगा। अंतत: यह मामला ‘सब्सिडी’ और ‘रियायतों’ तक सिमट जाता है, जो किसी दीर्घकालिक योजना की स्थिति में ही कोई कारगर भूमिका निभा सकता है। ऐसे में, तात्कालिक दौर पर समाधान ग्रामीण आय को बढ़ाने से निकलेगा। इसके लिए अहम कृषि सुधारों की आवश्यकता होगी, जो केवल केंद्र में मजबूत सरकार ही कर सकती है।

यदि मोदी चार सौ से करीब सीटों के साथ जनादेश हासिल करते हैं तो वह ऐसे सुधारों के लिए अपनी ‘राजनीतिक पूंजी’ दांव पर लगाएंगे, जिन सुधारों को उन्हें पिछले कार्यकाल में ठंडे बस्ते में डालना पड़ा। कड़े सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश से इतर भी ‘डबल इंजन’ की और सरकार चाहिए होंगी। उत्तर प्रदेश सरीखी शासन व्यवस्था और क्रियान्वयन माडल नए कार्यकाल में मोदी के लिए एक प्रभावी ढांचा हो सकता है। मोदी के हालिया चुनावी भाषणों में योगी आदित्यनाथ के योगदान की खासी प्रशंसा भी सुनाई पड़ी। अब भाजपा को आगामी विधानसभा चुनावों में विंध्य के पार भी अपना विस्तार करना होगा। दक्षिणी राज्यों में उसे अपनी पैठ मजबूत करनी होगी। पंजाब जरूर भाजपा के लिए मुश्किल रण है, लेकिन यदि वहां आप का दायरा सिकुड़ता है तो सहयोगियों के जरिये इस राज्य को साधा जा सकता है। यह मोदी के तीसरे कार्यकाल के लिए निर्णायक होगा।

किसी भी अन्य मोर्चे पर प्रगति के मुकाबले अर्थव्यवस्था मोदी के तीसरे कार्यकाल की धुरी के रूप में दिखाई देगी। बाकी उपलब्धियां बोनस होंगी। मोदी समझते हैं कि उनका जनादेश विकसित भारत के लिए है। यही पहलू भावी पीढ़ी में विश्वगुरु की छवि को स्थापित करेगा। यह उम्मीद की जा सकती है कि चार जून से ही वह इसी मिशन में पूरी तन्मयता से जुट जाएंगे।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)